भारत का पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल बंगाल की खाड़ी से सटा हुआ है। इसके पश्चिम में बिहार और झारखंड, उत्तर-पूर्व में ओडिशा, पूर्व में बांग्लादेश तो उत्तर में नेपाल और भूटान हैं। अनुमान है कि 2021 में पश्चिम बंगाल की जनसंख्या लगभग 10 करोड़ हो जाएगी। ‘आधार’ के 31 मई, 2020 तक संशोधित अनुमानों के मुताबिक तब राज्य की आबादी 9,96,09,303 थी और यह भारत का चौथा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य था। इसका क्षेत्रफल 88,752 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या घनत्व 1100 प्रति वर्ग किलोमीटर है। बंगाल में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन 18वीं सदी में शुरू हुआ और आजादी के समय बंगाल का विभाजन पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल यानी आज के बांग्लादेश में हुआ। कलकत्ता एक शताब्दी तक ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा।
1947 में भारत के विभाजन के साथ ही बंगाल का भी विभाजन हुआ। रेडक्लिफ लाइन के आधार पर ब्रिटिश भारतीय राज्य बंगाल का विभाजन हुआ। हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल भारत का हिस्सा बना और मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) पाकिस्तान में चला गया। भारत का यह विभाजन ‘माउंटबेटन प्लान’ के अनुसार हुआ और 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। पाकिस्तान के हिस्से गया बंगाल का हिस्सा 1971 के मुक्ति युद्ध के परिणामस्वरूप बांग्लादेश नाम का एक नया स्वतंत्र देश बना।
स्वतंत्रता के बाद पश्चिम बंगाल की जनसंख्या में मुस्लिम आबादी में 7.65 प्रतिशत अंकों की वृद्धि हुई है। वर्ष 1991 में राज्य की जनसंख्या में मुस्लिमों का प्रतिशत 19.5 था जो 2011 में बढ़कर 27.3 प्रतिशत हो गया है। स्वतंत्रता के पहले बंगाल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग 30 था। विभाजन के समय जहां उत्तर-पश्चिम इलाकों की पूरी मुसलमान आबादी पाकिस्तान चली गई थी, वहीं यहां से आंशिक पलायन ही हुआ। आज स्थिति यह है कि राज्य में मुस्लिम आबादी जल्द ही विभाजन पूर्व के स्तर तक पहुंच जाएगी। दार्जिलिंग, बांकुरा और पुरुलिया को छोड़कर पूरे पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों की आबादी काफी बढ़ी है, जो पूरी जनसंख्या की करीब 10 फीसदी है। लेकिन ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां मुस्लिमों की मौजूदगी बहुत अधिक है और उसमें लगातार इजाफा ही हो रहा है। दिनाजपुर-मालदा से लेकर मुर्शिदाबाद-बीरभूम का भूभाग और खुलना से लगता 24 परगना, कोलकाता-हावड़ा का भूभाग। दिनाजपुर-मालदा से लेकर मुर्शिदाबाद-बीरभूमि में मुस्लिम आबादी अब 52 फीसदी है, जबकि 1951 में यह 40 और 1941 में 48 फीसदी से कम थी। ये क्षेत्र काफी ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले पूर्वी सीमाई इलाके का हिस्सा हैं, जो पश्चिम में बिहार के पूर्णिया और झारखंड के संथाल परगना और पूर्व में निचले और उत्तरी असम की सीमा तक फैले हुए हैं।
24 परगना-कोलकाता-हावड़ा इलाके में मुस्लिम करीब 28 फीसदी हैं, जबकि 1951 में ये 19.6 और 1971 में 20.6 फीसदी थे। 1941 में इनकी आबादी लगभग 27 फीसदी थी। पश्चिम बंगाल में ईसाई आबादी बड़े पैमाने पर दार्जिलिंग में केंद्रित है और वर्ष 1951 में वहां उनकी आबादी हिस्सेदारी में 3 प्रतिशत से भी कम की वृद्धि हुई और आज 7.6 प्रतिशत पर पहुंच गई है। जिले में पिछले एक दशक के दौरान आबादी में ईसाई हिस्सेदारी में 1.5 प्रतिशत अंक की वृद्धि हुई है। जिस तरह 1971 के बाद से असम की जनसांख्यिकी मत-मजहब के आधार पर तेजी से बदली है, पश्चिम बंगाल में भी वैसा ही कुछ हो रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक 1947 से 1971 के बीच लगभग 1.9 करोड़ और 1971 के बाद और 1 करोड़ हिंदू शरणार्थी के रूप में भारत आए। अलग-अलग समय पर पूर्वी-बंगाल/बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल और असम में हिंदुओं की संख्या पर गौर करने से यह बात साफ हो जाती है। स्वतंत्रता के समय यानी 1947 में बांग्लादेश में हिंदू जनसंख्या 22 फीसदी थी, जबकि वर्ष 2011 में यह घटकर केवल 8 फीसदी रह गई। वहीं, स्वतंत्रता के समय पश्चिम बंगाल में मुसलमान 17 फीसदी थे, जबकि 2011 की जनगणना के मुताबिक उनकी आबादी तब 27.6 फीसदी थी और वर्ष 2021 में तो इनके 31.82 फीसदी तक बढ़ने का अनुमान है।
आजादी के बाद से पश्चिम बंगाल में 2.8 करोड़ हिंदुओं के आने के बाद भी मुस्लिमों की आबादी में इस भारी वृद्धि से यह बात साफ होती है कि वास्तव में हिंदुओं का आबादी प्रतिशत घट रहा है, क्योंकि अगर सामान्य प्रजनन दर के अतिरिक्त सीमा पार से आए 2.8 करोड़ हिंदुओं से आबादी के अनुपात पर गौर किया जाए तो स्वाभाविक तौर पर हिंदू आबादी के प्रतिशत में तेज वृद्धि होनी चाहिए थी। लेकिन मामला उलट है। आबादी मुसलमानों की तेजी से बढ़ती दिख रही है जिसकी वजह न सिर्फ उनकी उच्च प्रजनन दर है, बल्कि बड़ी तादाद में रोहिंग्या समेत बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत में प्रवेश करना भी है। भारत आए इन घुसपैठियों की मंशा यही लगती है कि जैसे ही वे बहुसंख्य हो जाएं, पश्चिम बंगाल के उस हिस्से पर काबिज हो जाएं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि अगर पश्चिम बंगाल में एक भी मुस्लिम घुसपैठिया न आए तो भी 1 से 18 साल के बच्चे जब बालिग होंगे तब बंगाल में मुस्लिम आबादी 37.7 फीादी हो जाएगी।
वर्ष, 2011 में हुई जनगणना के अनुसार तब पश्चिम बंगाल की कुल आबादी 9.13 करोड़ थी, जिसमें 6.44 करोड़ हिंदू, 2.47 करोड़ मुस्लिम, 6.6 लाख ईसाई, 2.83 लाख बौद्ध, 63.5 हजार सिख और 63,000 जैन थे। 2001-11 के दशक की बात करें तो हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी वृद्धि दर में बहुत बड़ा अंतर है। इस दौरान हिंदुओं की आबादी में 10.8 प्रतिशत की तुलना में मुसलमानों की आबादी में 21.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यहां मुस्लिमों और हिंदुओं की आबादी में वृद्धि दर का अंतर पड़ोसी असम जितना बड़ा नहीं है। 2001-11 के दशक के दौरान हिंदू आबादी में जहां 10.9 प्रतिशत की बढ़त दिखी, वहीं मुस्लिम आबादी 29.6 प्रतिशत पर थी। साफ है कि पश्चिम बंगाल में दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दरों में बड़ा अंतर दर्ज हुआ है।
2001-11 के दशक के दौरान मुस्लिमों की वृद्धि हिंदुओं की तुलना में 102 प्रतिशत अधिक रही। यह व्यापक अंतर लगातार बना हुआ है और 1971-81 के बाद से तो यह और बड़ा होता गया है। इस अंतर के कारण राज्य की जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। 2001-11 के दौरान आबादी में उनकी भागीदारी 25.25 से बढ़कर 27.01 प्रतिशत हो गई जो 1.77 प्रतिशत अंकों की वृद्धि दिखाती है। राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम आबादी में 0.8 अंकों की औसत वृद्धि की तुलना में पश्चिम बंगाल की यह वृद्धि वास्तव में बहुत बड़ी है। 1971 के बाद के चार दशक तक मुस्लिम हिस्सेदारी में उच्च स्तर की यह वृद्धि जारी रही है। पश्चिम बंगाल की आबादी में 1951 में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 19.5 प्रतिशत और 1971 में 20.5 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 27.3 प्रतिशत हो गई और आज के समय में यह लगभग 31 फीसदी है।
हम कुछ क्षेत्रों में मुसलमान आबादी के घनत्व और वृद्धि पर विस्तार से चर्चा करेंगे। इसमें प्रमुख हैं चौबीस परगना-कोलकाता-हावड़ा क्षेत्र। इन क्षेत्रों की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 28 प्रतिशत है। दक्षिण 24 परगना में इनकी हिस्सेदारी लगभग 36 प्रतिशत है, जबकि उत्तर 24 परगना और हावड़ा में लगभग 26 प्रतिशत। आमतौर पर पश्चिम बंगाल के शहरी क्षेत्रों में मुसलमानों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम रही लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान कोलकाता में मुसलमानों की संख्या में तेज वृद्धि दर्ज हुई। एक और अहम बात, कोलकाता और दोनों 24 परगना के इलाकों में परस्पर लोगों का यहां से वहां जाकर बस जाना बड़े पैमाने पर होता रहा है; इसलिए लंबे समय के लिए किसी भी विश्वसनीय नतीजे पर पहुंचने के लिए इन तीनों जिलों का एक साथ आकलन करना होगा। इस क्षेत्र की आबादी में मुस्लिम हिस्सेदारी विभाजन से पहले के स्तर से भी अधिक हो चुकी है। 1951-61 के दशक के दौरान यहां मुस्लिम आबादी कमोबेश एक-सी रही और उसके बाद के दो दशकों में लगभग 1-1 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन 1981 के बाद के तीन दशकों के दौरान कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी 6 प्रतिशत से भी अधिक रफ्तार से बढ़ती रही। इसी का परिणाम है कि इस क्षेत्र में मुसलमानों का हिस्सा अब 1941 में दर्ज 27.24 प्रतिशत के विभाजन पूर्व के स्तर से अधिक हो गया है।
1946-1951 की स्थिति
आजादी के समय बंगाल का दो हिस्सों में विभाजन हुआ- हिंदू-बहुल पश्चिम बंगाल और मुस्लिम -बहुल पूर्वी बंगाल। दोनों ओर से शरणार्थी आए-गए। एक अनुमान के मुताबिक विभाजन से पहले पश्चिम बंगाल की आबादी 2.12 करोड़ थी। इसमें मुस्लिमों की आबादी 53 लाख यानी लगभग 25 फीसदी थी और वे अल्पसंख्यक थे। तब पूर्वी बंगाल की आबादी 3.91 करोड़ थी जिसमें 1.14 करोड़ यानी लगभग 30 फीसदी हिंदू थे और वे भी अल्पसंख्यक ही थे। विभाजन के तुरंत बाद पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल के लोगों के बीच हिंसक झड़प के कारण लगभग 75 लाख हिंदू पाकिस्तान के हिस्से में चले गए पूर्वी बंगाल को छोड़कर भारत के पश्चिम बंगाल पहुंचे। वहीं, पश्चिम बंगाल से लगभग 20 लाख मुस्लिम पूर्वी बंगाल गए।
1951-1960 की स्थिति
अनुमान है कि 1960 तक लगभग 40 लाख हिंदू शरणार्थी पश्चिम बंगाल आ चुके थे और करीब 7 लाख मुस्लिम पूर्वी पाकिस्तान जा चुके थे। इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों के रहने-खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं था। इस कारण लाखों लोगों को जिंदगी की रोजाना जरूरत से जुड़ी समस्या का सामना करना पड़ा। भारत आए लोगों में से बहुत ऐसे भी जिन्हें पूर्वी बंगाल में अपनी जमीन-जायदाद छोड़ कर पलायन करना पड़ा था।
1961 से 1970 की स्थिति
खबरों की मानें तो जब 1964 में पूर्वी पाकिस्तान में दंगा हुआ तो 15 लाख हिंदू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल आए और तब पश्चिम बंगाल से भी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान जाने लगे। पाकिस्तानी आंकड़ों के मुताबिक उस दौरान पश्चिम बंगाल से 43,000 मुस्लिम शरणार्थी पूर्वी बंगाल गए।
1971 का दौर
वर्ष,1971 में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आए। अनुमान के मुताबिक तब 75,35,916 लोग जान बचाकर पश्चिम बंगाल आए जिनमें से लगभग 80 फीसदी बंगाली हिंदू थे और बांग्लादेश के आजाद होने के बाद लगभग 15,21,127 बंगाली हिंदू शरणार्थियों ने पश्चिम बंगाल में ही रहने का फैसला किया। 1971 के बाद पश्चिम बंगाल आए बांग्लादेशी हिंदू मुख्यत: नदिया, उत्तर 24 परगना और दक्षिण 24 परगना जिलों में बस गए।
आर्थिक प्रभाव
रेडक्लिफ लाइन ने ऐसे बंगाल को दो हिस्सों में बांट डाला था जो ऐतिहासिक रूप से आर्थिक, सांस्कृतिक और जातीय (बंगाली-हिंदू या बंगाली-मुस्लिम) संदर्भों में हमेशा संगठित रहा था। उपजाऊ पूर्वी हिस्से में अनाज और कच्चे माल का उत्पादन होता, जिसका उपभोग पश्चिमी हिस्सा करता और पश्चिमी हिस्से के उद्योग जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन करते जिसका उपभोग पूर्वी हिस्सा करता। लेकिन विभाजन ने दोनों के हितों की पूर्ति की परस्पर निर्भरता को छिन्न-भिन्न कर दिया। बंगाल के दोनों हिस्सों के बीच रेल, सड़क और जल संचार बुरी तरह प्रभावित हुआ।
विभाजन के बाद उपजाऊ चावल उत्पादक जिलों के पूर्वी बंगाल में चले जाने से पश्चिम बंगाल को जबदस्त खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ा। खाद्यान्न उपलब्धता की यह कमी 1950 और 1960 के दशक तक बनी रही।
बेहतरीन गुणवत्ता वाले जूट की खेती ज्यादातर पूर्वी बंगाल में होती थी। शुरू में भारत और पाकिस्तान पश्चिम बंगाल की मिलों के लिए पूर्वी बंगाल से कच्चा जूट आयात करने के लिए व्यापार समझौते पर सहमत भी हुए। हालांकि, पाकिस्तान की अपनी मिलें स्थापित करने की योजना थी और इस कारण उसने भारत को कच्चे जूट के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे पश्चिम बंगाल की मिलों को कच्चे माल की भारी कमी का सामना करना पड़ा और पूरे उद्योग के लिए संकट खड़ा हो गया।
पश्चिम बंगाल के कागज और चमड़ा उद्योग को भी ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा। पेपर मिलों में पूर्वी बंगाल के बांस का उपयोग किया जाता था और चमड़ा कारखानों के लिए चमड़ा भी मुख्यत: पूर्वी बंगाल से ही आता था। केंद्र और राज्य सरकारों के काफी प्रयासों के बावजूद आजादी के बाद लाखों शरणार्थियों के लिए भोजन की कमी और औद्योगिक संकट के दबाव ने पश्चिम बंगाल को एक गंभीर मुश्किल में डाल दिया। नतीजतन गरीबी बढ़ी और औद्योगिक विकास में जो राज्य पहले शीर्ष पर हुआ करता था, अन्य भारतीय राज्यों से काफी पिछड़ गया। इन सब कारणों से विभाजन के बाद अगले तीन दशक तक पश्चिम बंगाल बड़े पैमाने पर राजनीतिक अशांति, हड़ताल और हिंसा का साक्षी बना।
ब्रिटिश शासन में 1947 तक बंगाल संभवत: भारत का सबसे अधिक विकसित और समृद्ध क्षेत्र था। भारत के अधिकतर इंजीनियरिंग उद्योग, जानी-मानी बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहीं थीं और भारतीय निर्यात का बड़ा हिस्सा इनकी बदौलत ही था। यहीं से जूट, चाय, वस्त्र वगैरह का निर्यात होता था। उच्च शिक्षा के विभिन्न संस्थानों के अतिरिक्त भारत के शुरुआती इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज यहीं खुले। इसी कारण कोई आश्चर्य नहीं कि भारत ने 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान जिन महान विभूतियों को देखा उनमें से राजा राम मोहन राय, श्री अरबिंद, स्वामी रामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिम चंद्र चटर्जी जैसे लोग इसी क्षेत्र में शोभायमान हुए। सामाजिक सुधार, कला और संस्कृति की बात हो या फिर शिक्षा की, बंगाल हमेशा अग्रणी रहा और भारत का कोई दूसरा क्षेत्र इसका मुकाबला नहीं कर सका। लेकिन पिछले सात दशकों में भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी स्वर्णिम पहचान कायम करने वाले इस राज्य की छवि धूमिल होने लगी है। आज यह देश के सभी बड़े राज्यों के मुकाबले निचले पायदान पर खिसक गया है। सदियों में विकसित हुई बंगाल की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत अब केवल इतिहास का हिस्सा रह गई है।
राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में 1977 तक कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी और फिर माकपा ने लगभग तैंतीस वर्षों तक राज्य पर शासन किया। 2011 में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें बुरी तरह हराया और अभी बंगाल में उनका यह दूसरा कार्यकाल है। ममता सरकार और उनकी पार्टी से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन इस दौरान राज्य ने शायद ही कोई बेहतर बदलाव देखा हो। हां, तृणमूल के दौरान राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव जरूर हो रहा है। बांग्लादेश के मुस्लिम घुसपैठिये हों या म्यांमार के रोहिंग्या, उन्हें एक ऐसी सरकार मिल गई है, जो बिना कोई सवाल पूछे उन्हें बसाने को तैयार है और इसकी वजह है सिर्फ वोट बैंक की राजनीति। तृणमूल ने राज्य में खुलेआम मुस्लिम समुदाय को लुभाया है और कई बार तो बहुसंख्यक हिंदुओं की कीमत पर।
पश्चिम बंगाल में भाजपा पिछले कुछ चुनावों में कोई खास प्रदर्शन करती नहीं दिखी। लेकिन 2019 के संसदीय चुनाव में उसने 18 सीटें जीतकर नई शुरुआत की और 40 फीसदी वोट हासिल कर वह राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। निस्संदेह इस बार के चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा राज्य की बदलती जनसांख्यिकी और मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति तृणमूल सरकार का बेलगाम समर्थन है। निश्चित रूप से राज्य की हिंदू आबादी की चिंता भी यही है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में हिंदू 70.5 फीसदी और मुस्लिम 27 फीसदी थे, जबकि आज हिंदुओं की आबादी 68 फीसदी और मुसलमानों की 31.6 फीसदी हो जाने का अनुमान है। मुसलमानों की अधिक प्रजनन दर और बड़ी संख्या में घुसपैठियों के आने के कारण मुसलमानों का प्रतिशत कुछ अधिक हो सकता है। 2011 में ही राज्य के तीन जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्य थी। मुर्शिदाबाद में 66 फीसदी, मालदा में 52 फीसदी और उत्तर दिनाजपुर में मुस्लिम आबादी 50 फीसदी थी। इसलिए, 2021 में यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गया है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं।
राज्य में गुंडाराज का बोलबाला
पश्चिम बंगाल में आज ‘गुंडाराज’ है, जिसे माकपा ने पाल-पोसकर तैयार किया था। यह संस्कृति आम आदमी में भय का माहौल बनाने, जोर-जबरदस्ती और हिंसा पर निर्भर रहती है। तृणमूल से उम्मीद की जा रही थी कि वह इस संस्कृति को कमजोर करेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। माकपा के इन ज्यादातर गुंडों ने अपनी वफादारी तृणमूल को समर्पित कर दी थी। इसलिए जनता आज भी उसी गुंडाराज में जी रही है। राज्य सरकार विभिन्न संदिग्ध तरीकों से इन गुंडों को पैसे देकर इन्हें अपने पक्ष में किए रहती है। पार्टी के नेता अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए इन गुंडों को पालते हैं। राज्य में हुआ पिछला पंचायत चुनाव इस बात का साफ उदाहरण है कि यह गुंडा संस्कृति कैसे काम करती है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में हिंसा और भय के माहौल पर अंकुश नहीं लगा पाने के लिए राज्य प्रसासन को कड़ी फटकार लगाई थी। पिछले पंचायत चुनाव में हुई हिंसा में 84 लोग मारे गए थे। स्थानीय पुलिस और अन्य अधिकारी इन गुंडों के अपराधों पर आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि इन्हें राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है।
बढ़े मुस्लिम बहुल क्षेत्र
जनसांख्यिकीय बदलाव का वास्तविक खतरा पहले से ही महसूस किया जा रहा है। निर्वाचन क्षेत्रों में हाल में हुए बदलाव पर इसका असर साफ दिखता है। हिंदू बहुल क्षेत्रों के निर्वाचन क्षेत्र जहां कम हो गए हैं, वहीं मुस्लिम बहुल क्षेत्र बढ़ गए हैं। कोलकाता में पहले 21 विधानसभा सीटें हुआ करती थीं, लेकिन अब केवल 11 हैं। हिंदू बहुल पुरुलिया और पश्चिम मेदिनीपुर जिलों में दो-दो सीटें कम हो गर्इं। बांकुरा, बर्धवान, बीरभूम और हुगली में एक-एक निर्वाचन क्षेत्र घट गया। वहीं मुस्लिम बहुल इलाकों में सीटें बढ़ गर्इं। मुर्शिदाबाद में तीन तो उत्तरी दिनाजपुर और नदिया में दो-दो सीटें अधिक हो गर्इं। इसी तरह मालदा और दक्षिण दिनाजपुर में एक-एक निर्वाचन क्षेत्र अधिक हो गया।
जनसांख्यिकीय बदलाव, हिंसा का बोलबाला और इन सबमें सरकार की मिलीभगत ने पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र को दांव पर लगा दिया है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में हिंदू आबादी दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। हिंदू अपनी जान-माल और प्रतिष्ठा के लिए डर-डर कर जीने को मजबूर हैं। मुर्शिदाबाद में ऐसे कई गांव हैं जो पहले हिंदू-बहुल हुआ करते थे, अब मुस्लिम बहुल हैं। भगवान गोला ब्लॉक में हिंदू या तो अपनी संपत्ति बेचकर कस्बों और शहरों को पलायन कर गए हैं या उन्हें गांवों से बाहर निकाल दिया गया है। मुर्शिदाबाद के शहरी इलाकों में तो कुछ हिंदू-बहुल क्षेत्र मिल भी जाएंगे, लेकिन इसके सभी गांवों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं। खासकर सीमावर्ती गांवों में घुसपैठियों का सिक्का चलता है।
(लेखक कोलकाता, उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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