आंखें बंद करके एक शब्द बोलिये – बंगाल। इससे आपके अवचेतन में जो एक चित्र कौंधता है, उसमें ज्ञान के रंग हैं, देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान के रंग हैं, सांस्कृतिक पहचान के रंग हैं। परंतु बंगाल से जुड़ी किसी ताजा खबर को पढ़ने के लिए जैसे ही आप आंखें खोलते हैं, अवचेतन पर उभरता यह चित्र टूटकर बिखर जाता है। दिखती हैं तो अराजकता, उत्पात, अव्यवस्था, उन्माद की किरचें… बंगाल इस हाल में कैसे पहुंचा?
बंगाल का दर्द यह है कि उसकी संस्कृति, या उसकी पहचान या कहिये उसका चेहरा विकृत कर दिया गया है। जनसांख्यिक परिवर्तन ने बंगाल को ऐसे दाग दिये कि इससे जनप्रतिनिधित्व में जगह-जगह तुष्टीकरण के गड्ढे गहरे होते गये। दक्षिण 24 परगना जिला, (जहां मोक्षदायक सागरद्वीप स्थित है) जैसे स्थल, जो कभी सांस्कृतिक पहचान के केंद्र होते थे, वहाँ घुसपैठियों की बाढ़ ने संस्कृति के पावन प्रतीकों की घेरेबंदी कर दी, उन्हें विनष्ट कर दिया, उन्हें मटियामेट कर दिया।
परंतु बंगाल इस दुष्चक्र से निकलता दिख रहा है। इसके तीन कारण हैं। पहला कारण यह है कि तुष्टीकरण की राजनीति के विरुद्ध राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता का जागरण होने लगा है। इससे बंगाल अपनी पहचान के लिए लामबंद होने लगा है।
दूसरा कारण यह है कि अब तुष्टीकरण के कई सारे ठेकेदार हो गये हैं। यहां ममता बनर्जी का यह बयान समीचीन है जिसमें उन्होंने कहा कि-हां मैं मुस्लिम तुष्टीकरण करती हूं। ऐसा सौ बार करूंगी, क्योंकि जो गाय दूध देती है, उसकी लात खाने से कोई नुकसान नहीं होता। इस तुष्टीकरण की होड़ में फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दिकी भी एक खिलाड़ी बन कर उभरे हैं। वामपंथी दल भी अपने समय में इस होड़ में पीछे नहीं रहे हैं और कांग्रेस ने तो खैर, इसकी शुरुआत ही की थी। इससे राज्य की संस्कृति को निशाना बनाने वालों के बीच जो फच्चर फंसेगा, वह अंतत: राज्य के लिए अच्छा रहेगा।
तीसरा कारण यह है कि देश की जनता ऐसे घुसपैठियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए मानस बनाने लगी है जिससे देश की सबसे बड़ी पंचायत ने घुसपैठियों की बाढ़ को रोकने के कानून पारित कर दिये। इन तीनों स्थितियों से भविष्य के अच्छे संकेत मिलते हैं।
एक अन्य बड़ा प्रश्न बंगाल की बदहाली का है। इसके कारण क्या हैं, यह प्रश्न आपको विचलित करने लगता है। इनके लिए कोई एक राजनीतिक दल उत्तरदायी नहीं है। बंगाल ने कई राजनीतिक प्रयोग किये। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में जो राज्य अगुवा रहा, वहां की अपनी राजनीति प्रयोगों से भरपूर रही। प्रारंभ में जब पूरे देश में कांग्रेस का प्रभाव था, तो बंगाल भी उसी रंग में रंगा। परंतु देश से एक अलग तरह की राजनीति को परखने का जो प्रयोग है, बंगाल ने वह भी किया। वामपंथ, जो बाकी जगह नहीं चला, वह बंगाल में खूब चला। परंतु इस खूब चलने में बंगाल को क्या मिला?
यहां विकास की बात करना जरूरी हो जाता है। विकास का जो मॉडल देश में था और बंगाल का क्या मॉडल था, ये तुलनाएं जरूरी हो जाती हैं। बंगाल में जब वामपंथी वर्चस्व था, उस समय दूसरे राजनीतिक दलों के लिए सिर उठाने की गुंजाइश नहीं थी। वहां 28,000 राजनीतिक हत्याएं हुर्इं और इसका ब्योरा विधानसभा में भी है। वर्ष 1997 में विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में तत्कालीन मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार किया था कि 1977 से 1996 के बीच पश्चिम बंगाल में 28,000 राजनीतिक हत्याएं हुर्इं। 60 के दशक (1967) में नक्सलबाड़ी आंदोलन भी बंगाल से ही प्रारंभ हुआ था जिसे चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने प्रारंभ किया था।
परंतु वामपंथ का थोथापन, एक लंबे शासन के बाद उससे उपजी उकताहट, ऊब, उससे निकलने की छटपटाहट, यह भी बंगाल ने महसूस किया। और, उसके बाद नक्सलवाद की कमर तोड़ने का काम करता हुआ बंगाल दिखाई दिया। सिंगूर, नंदीग्राम वह क्षण था जब लगा कि वामपंथ के पीछे छिपी अराजकता को पोषने वाला तानाशाही तंत्र अब बंगाल को बर्दाश्त नहीं है। बंगाल ने एक नया प्रयोग किया-तृणमूल कांग्रेस को साथ लिया। बंगाली मानुष कांग्रेस से थक चुका था, वामपंथ से ऊब चुका था, तब तीसरा प्रयोग तृणमूल कांग्रेस को सत्ता सौंपकर किया जो कांग्रेस से बागी होकर नया दल बना था। लगा कि बंगाल के दिन बहुरने वाले हैं।
दिन बहुरे या नहीं बहुरे, परंतु यहां से राजनीति में हिंसा का एक नया दौर जरूर प्रांरभ हो गया। यह दिखा कि हिंसाचार का जो तंत्र वामपंथियों ने अपनाया था, ममता ने उसे जस का तस अंगीकार करके उस पर अपनी पार्टी का झंडा-बिल्ला लगाने का काम किया। तुष्टीकरण की नीति ऐसी रही कि मालदा, मुर्शिदाबाद, नदिया, हुगली और प्रदेश के अनेक सीमावर्ती जिलों का जनसांख्यिकीय स्वरूप ही कुछ वर्षों में पूरी तरह पलट दिया गया। घुसपैठिये, गो-तस्करी, अवैध हथियार और जितने तरह के अपराध तंत्र की कल्पनाएं हो सकती हैं, बंगाल उनके गढ़ के रूप में बदलने लगा। साथ ही, जो चीज बंगाल के मानस को कचोट रही थी, वामपंथी शासनमें भी, शक्ति का उपासक बना रहने वाला जो राज्य था, वहां इस्लामी उन्माद की एक लहर उठती सबने देखी। दुर्गा पूजा पर प्रतिबंध, मौलवियों और मस्जिदों के लिए धन लुटाने वाली सरकार, सड़क से लेकर सिलेबस तक तुष्टीकरण के फूहड़तम प्रयोग, ये बंगाल ने देखे। बंगाल शायद बदलाव की चाह में किये गये अपने प्रयोगों की विफलता से छटपटा रहा था। पंचायत चुनाव में नामांकन नहीं कर सकते, उस समय में 100 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हो जाती हैं, लोग अपनी मर्जी से पार्टी नहीं बदल सकते।
इससे एक सांस्कृतिक छिटकाव आया। राजनीतिक प्रयोगों की विफलता से समाज में आक्रोश पैदा हुआ-अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए। इसका संकेत दिखा पिछले लोकसभा चुनाव में जब बंगाल से लोकसभा की 42 में से एक या दो सीटें जीतने वाली भाजपा ने 18 सीटें जीत लीं। अब प्रश्न है कि 294 सदस्यीय विधानसभा में पिछली बार महज तीन सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार शून्य से शिखर तक पहुंचेगी? आम जनमानस की छटपटाहट उसकी राजनैतिक मुखरता में दिख रही है। सोशल मीडिया पर भी एक बड़ा बदलाव दिख रहा है। बंगाल की माटी का मानुष इस बार निर्णायक मुद्रा में है।
@hiteshshankar
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