प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश-यात्रा के तीन बड़े निहितार्थ हैं। पहला है, भारत-बांग्लादेश रिश्तों का महत्व। दूसरे, बदलती वैश्विक परिस्थितियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया की भूमिका और तीसरे पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनाव में इस यात्रा की भूमिका। इस यात्रा का इसलिए भी प्रतीकात्मक महत्व है कि कोविड-19 के कारण पिछले एक साल से विदेश-यात्राएं न करने वाले प्रधानमंत्री की पहली विदेश-यात्रा का गंतव्य बांग्लादेश है।
यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बांग्लादेश का स्वतंत्रता दिवस 26 मार्च उस ‘पाकिस्तान-दिवस’ 23 मार्च के ठीक तीन दिन बाद पड़ता है, जिसके साथ भारत के ही नहीं बांग्लादेश के कड़वे अनुभव जुड़े हुए हैं। हमें यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रगान के रूप में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत को चुना था।
हालांकि बांग्लादेश का ध्वज 23 मार्च, 1971 को ही फहरा दिया था, पर बंगबंधु मुजीबुर्रहमान ने स्वतंत्रता की घोषणा 26 मार्च की मध्यरात्रि को की थी। बांग्लादेश मुक्ति का वह संग्राम करीब नौ महीने तक चला और भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद अंततः 16 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्म समर्पण के साथ उस युद्ध का समापन हुआ। बांग्लादेश की स्वतंत्रता पर भारत में वैसा ही जश्न मना था जैसा कोई देश अपने स्वतंत्रता दिवस पर मनाता है। देश के कई राज्यों की विधानसभाओं ने उस मौके पर बांग्लादेश की स्वतंत्रता के समर्थन में प्रस्ताव पास किए थे।
बांग्लादेश की भूमिका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर खुशी जताई है कि एक साल के अंतराल के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा ऐसे पड़ोसी मित्र देश की हुई है, जिसके साथ भारत के गहरे संबंध हैं। आने वाले समय में बांग्लादेश की दो कारणों से बड़ी भूमिका होगी। एक तो पाकिस्तान के विपरीत बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। भारत के साथ आर्थिक सहयोग के कई कार्यक्रमों की घोषणा इस यात्रा के दौरान होगी। भारत का प्रयास होगा कि इस इलाके में चीन के प्रभाव को रोकने के लिए पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को बेहतर बनाया जाए।
भारत और बांग्लादेश बिमस्टेक (बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन) के सदस्य हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की सक्रिय भागीदारी और क्वाड देशों के समूह में शामिल होने के बाद बंगाल की खाड़ी एक तरफ रक्षा सहयोग का केंद्र बनेगी, दूसरी तरफ इसके चारों तरफ के देश भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के विकास की धुरी भारत बनेगा।
इस क्षेत्र में गैस के भंडार हैं, जिनके दोहन में भारत की भूमिका होगी। इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर विकास और सड़कों, पुलों, नागरिक उड्डयन, बंदरगाहों और रेलवे के विकास में जापान जैसे देश के साथ मिलकर त्रिपक्षीय समझौतों की सम्भावनाएं बन रहीं है। हालांकि बिमस्टेक का काम धीमा है, पर भविष्य में इसकी भूमिका बढ़ेगी। बांग्लादेश में भारत-विरोधी प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय हैं। खासतौर से पाकिस्तानी आईएसआई और चीन द्वारा प्रायोजित आतंकी समूहों की गतिविधियाँ भी वहाँ से चलती हैं। उन्हें रोकने के लिए वहाँ की सरकार के साथ हमारे रिश्तों की बेहतरी चाहिए।
महत्वपूर्ण संदेश
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भी भारत के प्रधानमंत्री को मुख्य-अतिथि के रूप में आने का निमंत्रण देकर एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। बांग्लादेश में इस साल मुजीब वर्ष यानी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने यात्रा पर रवाना होने के एक दिन पहले कहा कि बांग्लादेश के साथ भारत की साझेदारी ‘पड़ोसी-पहले नीति’ का अहम स्तंभ है। उन्होंने बांग्लादेश की यात्रा का प्रारम्भ ढाका के राष्ट्रीय शहीद स्मारक से किया। यहाँ उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि दी। एक पौधा भी लगाया।
नरेंद्र मोदी आज शाम बंगबंधु इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर स्थित ‘बंगबंधु-बापू म्यूजियम’ का उद्घाटन करेंगे। शनिवार को वे गोपालपुरा जिले में तुंगीपाड़ा स्थित ‘बंगबंधु’ के मकबरे पर जाएंगे। यहां आने वाले वे भारतीय नेता हैं। इसके अलावा वे 51 शक्ति पीठों में से एक यशोरेश्वरी मंदिर और ओराकंडी स्थित हरिचंद ठाकुर के मतुआ मंदिर में भी जाएंगे। यह पहली बार है जब कोई भारतीय प्रधानमंत्री इस मंदिर का दौरा करेगा। इसके अलावा वे कुश्तिया में रवीन्द्र कुटी बाड़ी और बाघा जतिन के पैतृक घर में भी जा सकते हैं। इन सभी स्थानों का सांस्कृतिक महत्व है।
मतुआ मंदिर की यात्रा
प्रधानमंत्री की इस यात्रा का दो देशों के रिश्तों से जितना वास्ता है, उतना ही पश्चिमी बंगाल में हो रहे विधानसभा चुनाव से भी है। सम्भव है कि भविष्य के तीस्ता जैसे समझौतों को लेकर भी इस यात्रा के दौरान विचार हो। राजनीतिक दृष्टि से ओराकंडी के मतुआ मंदिर की यात्रा पर भारत के पर्यवेक्षकों की नजरें हैं। यह मतुआ समुदाय के गुरु हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर का जन्मस्थल है। इसकी स्थापना 1860 में एक सुधार आंदोलन के रूप में की गई थी।
इस समुदाय के लोग अस्पृश्य माने जाते थे। हरिचंद ठाकुर ने इनमें चेतना जगाने का काम किया। उनके समुदाय के लोग उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं। मतुआ धर्म महासंघ समाज के दबे-कुचले तबके के उत्थान के लिए काम करता है। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में कुल आबादी के 23.5 प्रतिशत दलित और 5.8 प्रतिशत आदिवासी हैं। बंगाल के दलित एवं आदिवासी मतुआ धर्म महासंघ के स्वाभाविक समर्थक माने जाते हैं।
उत्तर 24 परगना जिले में बनगाँव स्थित मतुआ धर्म महासंघ के मुख्यालय में मतुआ माता वीणापाणि देवी के साथ गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैठक की थी। वीणापाणि देवी के दबाव में ही ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल सरकार को मतुआ कल्याण परिषद का गठन करना पड़ा। वीणापाणि देवी का गत वर्ष निधन हो गया। अब उनके पुत्र और पौत्र मतुआ आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं।
नागरिकता कानून के कारण भाजपा को इस समुदाय का समर्थन हासिल हुआ है। सन 2019 के चुनाव में मोदी ने नागरिकता कानून में संशोधन का वायदा किया था, जिसे उन्होंने पूरा किया। इसका लाभ उन्हें 2019 के चुनाव में मिला। मतुआ समुदाय को नेतृत्व देने वाले परिवार के भीतर भी दो गुट हैं। बीजेपी ने इसके बड़े तबके को अपने पक्ष में कर रखा है। मतुआ वोटरों की इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका है। उत्तर बंगाल में की 51 और नदिया, उत्तर और दक्षिण 24 परगना की 70 से ज्यादा सीटों पर करीब पौने चार करोड़ लोग मतुआ समुदाय से जुड़े हैं। ये लोग पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से भागकर यहाँ आए हैं। विभाजन के बाद से मतुआ समुदाय को नागरिकता की समस्या से जूझना पड़ रहा है। पहले ये लोग सीपीएम को समर्थन देते थे, फिर इन्होंने ममता का साथ दिया।
साल 2016 विधानसभा चुनाव में मतुआ बहुल 21 सीटों में से 18 पर टीएमसी को जीत मिली थी लेकिन साल 2019 में सीएए-एनआरसी लागू करने के एलान के बाद ही गेम बदल गया और बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 21 में से 9 सीटों पर बढ़त हासिल हो गई। मतुआ समाज खुलकर सीएए-एनआरसी लागू करने की वकालत कर चुका है। मतुआ, हिंदू, और बंगाली संस्कृति के जरिए बीजेपी को यकीन है कि उसे लाभ मिलेगा।
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