महामारी ने दुनिया को यह बताया है कि जहां पर वह खड़ी है, वह अपने-आपको खतरों से परे समझती है। परंतु खतरे कई तरह के हो सकते हैं और ऐसी छोटी, अनदेखी चीजें भी बड़ी हो सकती हैं जिसके लिए आप तैयार नहीं हैं।
चीनी वायरस की ही तरह विश्व व्यवस्था के समीकरण भी रूप बदल रहे हैं। साथ ही दोनों की यह बात भी साझा है कि मौजूद होने पर भी ये ओझल ही रहते हैं।
नई विश्व व्यवस्था की दृष्टि से कुछ परिवर्तनों के आसार दुनिया देख रही है। ऐसे में चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद, जिसे ‘क्वाड’ कहा जा रहा है, एक बड़ी पहल है। इसका उद्देश्य अमेरिका, जापान, आॅस्ट्रेलिया व भारत के बीच अनौपचारिक सामरिक संवाद है। इससे समूल विश्व व्यवस्था, विशेषकर एशिया के आयाम में परिवर्तन हुआ है। चीन इससे बौराया हुआ है। परंतु देखने वाली बात यह है कि जो दुनिया, चीन से बेचैन है, वह चीन की इस बेचैनी को कैसे देखती है!
इसी संदर्भ में दूसरी घटना टोक्यो की है। पेंटागन के मुखिया लॉयड आॅस्टिन और शीर्ष अमेरिकी कूटनीतिज्ञ एंटोनी ब्लिंकेन जब जापान पहुंचे तो चीन के बढ़ते दबदबे के विरुद्ध दोनों देशों के गठजोड़ को मजबूती देने के लिए शीर्ष स्तरीय कूटनीतिक और सामरिक वार्ता हुई। अमेरिका और जापान, दोनों ने चीन को साफ चेतावनी दी है कि ड्रैगन की धींगामुश्ती और दूसरे देशों में अस्थिरता फैलाने का बर्ताव और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जल्दी ही इस टोली में दक्षिण कोरिया भी जुड़ने वाला है।
जाहिर है, इन बदलते घटनाक्रमों से चीन बौखला गया है। चीन के समाचारपत्रों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि चीनी विस्तारवाद के विरुद्ध संगठित होती वैश्विक लोकतांत्रिक चेतनाओं को छद्म विमर्शों से रौंदने की तैयारी शुरू हो गई है। ऐसी बेमतलब बहसें जिन्हें खाद-पानी देकर आंदोलन की आड़ में अराजकता का बवंडर खड़ा किया जा सके।
चीन के अखबारों या उससे प्रेरित वामपंथी मीडिया के आलेखों में ‘क्वाड’ को कोसने के साथ-साथ आहिस्ता से एक नया विमर्श खड़ा किया जा रहा है कि महामारी से एशिया बनाम पश्चिम, के नए नस्लवाद का उभार हुआ है, जिसमें एशिया पीड़ित पक्ष है।
इसे विश्व वामपंथ का नया षड्यंत्र कहना ज्यादा उचित होगा।
वामपंथ पूंजीवाद से लड़ता हुआ शुरू हुआ, और राज्यों में वह भाषा के नाम पर और भौगोलिक आधारों पर अस्मिता के नाम पर, परिवारों तक में लैंगिक विभेद के नाम पर संघर्ष के बिंदु उभारता आया है।
सो, अब अति आक्रामक ड्रैगन के प्रति दुराग्रह न हो, इसके लिए एक नया विमर्श रचा जा रहा है। दरअसल, एशिया बनाम पश्चिम की फांक को ध्यान से देखें तो वह व्यक्ति केंद्रित पूंजीवाद तथा सर्वशोषक चीनी विस्तारवाद ही दिखेगा।
अरसे से कहा जा रहा था कि नई सदी एशिया की होगी, परंतु अब एशिया की राह, प्रगति और संस्कृति को चीनी बताने तैयारी शुरू हो गई है। किन्तु क्या विश्व के सामने मात्र चीन का मार्ग है? नई सदी एशिया की तो होगी परंतु वह चीन की अधूरी, एकांगी शोषक दृष्टि वाली नहीं होगी। वह सिर्फ अपनी ‘बैलेंसशीट’ के लिए व्यवस्था संतुलन बिगाड़ने वाली पूंजीवादी दृष्टि की भी नहीं होगी। ये दोनों ही दृष्टिकोण समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। एशियाई सदी का सीधा अर्थ पूरब की प्राचीन समझ और उन सनातन मूल्यों से है, जो इसे बदलाव के झंझावातों में भी जीवित-जाग्रत संवेदनशील बनाए रहे। जिस दृष्टिकोण में ये मूल्य न हों यानी मानवता की बात न हो, सर्व की बात न हो, चराचर की बात न हो, वह दृष्टि पूरब की, एशियाई हो ही नहीं सकती।
वायरस त्रासदी के बाद दुनिया के सामने विश्व के विभिन्न मॉडलों के सबक हैं। पूंजीवाद का खोखलापन और वामपंथ का दमनकारी दामपंथ में बदलना इस दुनिया ने देखा है।
‘क्वाड’ जैसे बहुपक्षीय संवाद नई विश्व व्यवस्था को जोड़ने वाली कड़ियां हैं और पूरब बनाम पश्चिम को बांटने वाले ‘नस्लवाद’ के आरोप वामपंथ के नए हथकंडे।
मानवता आपस में जुड़ेगी या विभाजनकारी हथकंडे इस पर हावी हो जाएंगे, यह हमारी समझ से तय होगा।
@hiteshshankar
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