भारतीय मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा वर्ग भयंकर रूप से सांप्रदायिक और कट्टरपंथी है। यह कैसे संभव है कि कर्नाटक में 14 साल के एक हिंदू लड़के की निर्ममता से हत्या का समाचार अंदरूनी पन्नों पर भी स्थान नहीं बना पाया और डासना में मंदिर में चोरी करने घुसे एक 14 साल के लड़के को दो-चार थप्पड़ लगाने की घटना राष्ट्रीय महत्व की हो गई! इसी तरह तेलंगाना के भैंसा कस्बे में हिंदुओं की दुकानें और मकान जलाए जाने का समाचार भी दबा दिया गया। स्थिति यदि उलट होती तो मीडिया का अंतरराष्ट्रीय विलाप देखने लायक होता। जिस टाइम्स आॅफ इंडिया जैसे अखबार ने दिल्ली दंगे में पकड़ी गई दिशा रवि के महिमामंडन में कई-कई पन्ने रंग दिए, उसने आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अपनी हिंदू पहचान के लिए नस्लवाद का शिकार बनी रश्मि सामंत के समाचार को दबा दिया।
यही कारण था कि जब शिया नेता वसीम रिजवी ने कुरान की 26 विवादित आयतों को हटाने के बारे में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दी तो चैनलों और अखबारों ने चुप्पी साध ली। आएदिन हिंदू आस्था के विषयों पर बेहूदी टिप्पणियां करने वाले मीडिया ने इस्लाम के अंदर से मजहबी सुधार के लिए उठे स्वर पर ऐसे दिखाया मानो कुछ हुआ ही नहीं। रिजवी को मिली कट्टरपंथियों की धमकियों को भी सामान्य समाचार की तरह दिया। इसी तरह जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. संगीता श्रीवास्तव ने अपने घर के पास मस्जिद से अजान के नाम पर होने वाले शोर-की शिकायत की तो मीडिया की ज्यादातर कवरेज ऐसी रही मानो यह कोई बड़ी समस्या नहीं, बल्कि कुलपति नींद पूरी न होने से परेशान हैं।
उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत अब मीडिया के इसी वर्ग के निशाने पर हैं। उन्होंने फटी जींस पहनने की संस्कृति को लेकर एक कार्यक्रम में कुछ कहा। उनका वह वक्तव्य विशेष रूप से लड़कों के लिए था कि वे पारंपरिक वेशभूषा छोड़कर पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं। यह समाचार ऐसे छपा मानो मुख्यमंत्री का बयान सिर्फ लड़कियों के लिए हो। मीडिया यह साहस कभी किसी गैर-भाजपा मुख्यमंत्री के साथ नहीं करता। उन्हें पता होता है कि थोड़ी-सी गलत रिपोर्टिंग भी करोड़ों रुपये के सरकारी विज्ञापन बंद करा सकती है। इसी तरह राजस्थान में विरोधी नेताओं के फोन टैप करने की स्वीकारोक्ति का समाचार भी दबा दिया गया। यही घटना किसी भाजपा शासित राज्य में होती तो लोकतंत्र पर संकट आ चुका होता।
मीडिया का यह वर्ग नेताओं ही नहीं, देश के मुख्य न्यायाधीश की बातों को भी तोड़-मोड़कर प्रकाशित करता है। बलात्कार के एक केस में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति बोबडे की एक टिप्पणी को बीबीसी, द क्विंट समेत कई मीडिया समूहों ने संदर्भ से काटकर प्रकाशित किया। नकली नारीवादियों की एक टोली पहले से तैयार बैठी थी। उसने न्यायमूर्ति बोबडे के विरोध में खुला पत्र लिख दिया। मीडिया ने बिना जांचे-परखे इस दुष्प्रचार को खासा स्थान दिया। जब मुख्य न्यायाधीश ने खंडन किया तब भी इन अखबारों और चैनलों ने अपने मिथ्या प्रचार पर कोई खेद प्रकट करने की आवश्यकता नहीं समझी।
मीडिया में कांग्रेस और वामपंथ पोषित कुछ पत्रकारों ने ‘गोदी मीडिया’ शब्द गढ़ा है। जो भी समाचार पत्र या चैनल उनके अनुसार नहीं चलते वे उसे गोदी मीडिया कहना शुरू कर देते हैं। पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के घर पर जन्मदिन के एक कार्यक्रम का कई पत्रकारों ने बहिष्कार किया। बाद में पता चला कि वे इसलिए नहीं गए क्योंकि आजाद के कार्यक्रम में जाने से सोनिया गांधी के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध मान ली जाती। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि लगभग सभी अखबारों और चैनलों में कांग्रेस पार्टी को कवर करने वाले संवाददाता से अधिक कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता होते हैं।
उत्तर प्रदेश में सपा नेता अखिलेश यादव ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रÞेंस में पत्रकारों को जमकर पिटवाया। जब वे मुख्यमंत्री थे तब पत्रकारों पर जितने हमले हुए उतने पहले कभी नहीं हुए। फिर भी अखिलेश सेकुलर पत्रकारों के प्रिय हैं। एडिटर्स गिल्ड नाम की कांग्रेस की जेबी संस्था ने पत्रकारों की बर्बर पिटाई पर एक पंक्ति का वक्तव्य जारी करना भी आवश्यक नहीं समझा। जबकि ये पत्रकारिता के वेश में ‘फेक न्यूज’ फैलाने वालों के साथ हरदम मजबूती से खड़ी रहती है।
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