आज बेपैंदी की कांग्रेस कभी किसान के नाम पर भीड़ को फंडिंग करती नजर आती है तो कभी उन रघुराम राजन के बयान को उद्धत कर केन्द्र सरकार को घेरती है, जो खुद वित्त विशेषज्ञ कम अदृश्य विदेशी ताकतों की कठपुतली ज्यादा नजर आते हैं। क्योंकि किसी वक्त बैंकों के विलय की पैरोकारी करने वाले राजन अब ऐसे विलय को देशहित के उलट बताते हैं। तो कौन से रघुराम सही हैं, पहले के या अब वाले!
संसद के दोनों सदनों में हाशिए पर हांफती वैचारिक रूप से खोखली हो चुकी कांग्रेस स्कूली बच्चों के बीच कसरतें करने और पोखर में मछलियां पकड़ने से उबरने वाली नहीं है। ये सत्तापक्ष पर बेसिर पैर के आरोपों, सेना के अपमान और राष्ट्रीय संस्थानों पर सिर्फ और सिर्फ सवालिया निशान उछालते रहने भर से भी नहीं उबरने वाली। गांधी कुनबे या आलाकमान के फरमानों और अलोकतांत्रित चाल—चलन को सही रास्ते पर लाने की कोशिश में जुटे पार्टी के उन 23 दिग्गज नेताओं को किनारे रखने से भी राहुल—सोनिया कांग्रेस की डूबती नैया नहीं थमने वाली, जिन्होंने जिंदगी खपा दी पार्टी को जिलाए रखने के लिए। आज बेपैंदी की कांग्रेस कभी किसान के नाम पर भीड़ को फंडिंग करती नजर आती है तो कभी उन रघुराम राजन के बयान को उद्धत कर केन्द्र सरकार को घेरती है, जो खुद वित्त विशेषज्ञ कम अदृश्य विदेशी ताकतों की कठपुतली ज्यादा नजर आते हैं, क्योंकि किसी वक्त बैंकों के विलय की पैरोकारी करने वाले राजन अब ऐसे विलय को देशहित के उलट बताते हैं। तो कौन से रघुराम सही हैं, पहले के या अब वाले!
कांग्रेसी ताबूत में ताजा कील ठोकी है भारतीय किसान यूनियन (भानु) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भानु प्रताप सिंह ने। 15 मार्च को उन्होंने उन आरोपों की एक तरह से पुष्टि ही की जो पिछले तीन महीनों से तथाकथित किसान आंदोलन पर नजर रखे हुए थे; जानकारों का साफ कहना था कि इस पूरे जमावड़े में मुद्दा नहीं, अलबत्ता कांग्रेस और कम्युनिस्टों का जुगाड़ा मजमा है, जो किसी भी तरह एपीएमसी, मंडी हो या आढ़ती व्यवस्था में संशोधन से जुड़ी 11 दौर की बातचीत के बाद हर बार ‘तीनों कानून वापस लो’ बोलते हुए निकलते रहे ‘किसान नेता।’ 26 जनवरी को किसान के नाम पर दिल्ली में दहशत का जो आलम बनाया गया था, वह हम सब जानते हैं।
भानु प्रताप सिंह ने किसान आंदोलन के इस जमावड़े को कांग्रेस के पैसे से खड़ा बताया है। उनका कहना है, ’26 जनवरी को हमें मालूम पड़ा था कि जितने भी संगठन सिंघु बॉर्डर, गाज़ीपुर बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे थे, वे सारे के सारे कांग्रेस के खरीदे हुए थे, कांग्रेस के ही भेजे हुए संगठन थे। कांग्रेस इनको फंडिंग कर रही थी।…जब प्रदर्शनकारियों (किसान) ने पुलिस पर हमला किया और लालकिले पर कोई और झंडा लहराया तो हमने अपना समर्थन वापस ले लिया और लौट आए। भानु प्रताप इतने पर ही नहीं रुकते हैं। वे आगे कहते हैं, ”जिन लोगों को बातचीत के लिए भेजा गया था, वे इसे 4 से 5 साल तक लटकाए रखना चाहते हैं। ऐसी भाषा तो सिर्फ आतंकियों की ही हो सकती है, भारत के किसान की नहीं।” उधर राकेश टिकैत अब यह कहते घूम रहे हैं कि आंदोलन दिसम्बर तक चलेगा; वे तृणमूल के पक्ष में पश्चिम बंगाल तक केन्द्र सरकार के लिए ममता की रटाई भाषा बोल आए हैं। उनके इस रवैए से एक बार फिर साफ होता है कि टिकैत को किसानों के ‘हित’ की बजाए अपने सियासी भविष्य की चिंता है। उनकी यह कवायद बंगाल में ममता के सामने कमर कसकर खड़े कम्युनिस्टों को रास नहीं आई और बताते हैं, उन्होंने टिकैत के आंदोलन को अब आगे खाद—पानी देने से कन्नी काटनी शुरू कर दी है।
सलाह या भ्रमजाल !
अब बात रघुराम की। द मिंट अखबार ने 16 मार्च को रघुराम राजन और रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य का संयुक्त रूप से लिखा एक प्रपत्र छापा है—’इंडियन बैंक:ए टाइम टू रिफॉर्म?’ इसमें लिखा है, “चुनिंदा पीएसबी का फिर से निजीकरण बहुत संभल कर तालमेल वाली रणनीति के हिस्से के रूप में किया जा सकता है, जो ऐसे निजी निवेशकों को आकर्षित करके जिनमें वित्तीय और तकनीकी दोनों विशेषज्ञताएं हों। कॉरपोरेट घरानों को, उनके हितों में कुदरती टकराव को देखते हुए, ज्यादा हिस्सा लेने से परे रखना चाहिए। क्यों ! इसकी वजह भी उस प्रपत्र में साफ की गई है और वह यह है कि ‘कभी-कभी वित्तीय समावेशन या बुनियादी ढांचे के वित्त जैसे सार्वजनिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए इस शक्ति का उपयोग किया जाता है, कभी-कभी इसका उपयोग उद्योगपतियों को संरक्षण या उन पर नियंत्रण करने के लिए किया जाता है।’ रघुराम की एक और अनुशंसा देखिए; वे लिखते हैं,’ वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा विभाग को समाप्त करना आवश्यक है, जो बैंक बोर्ड और प्रबंधन को स्वतंत्रता की मंशा के साथ ही महंगे सामाजिक और राजनीतिक उदृेश्यों की पूर्ति के लिए बैंकों को ऐसी सेवा में न शामिल होने देने के प्रति प्रतिबद्धता झलकाएगा। राष्ट्रीय निजी क्षेत्र के ‘बैड बैंक’ कर्जे को जमा करने, संकटापन्न संपत्तियां के लिए प्रबंधन टोलियां बनाने और ऐसी संपत्तियों की मांग पैदा होने तक एक सेक्टर जैसी शक्ति में थामे रखने के तौर पर सेवा दे सकते हैं।’ यानी लब्बोलुबाब ये कि चुनिंदा बैकों का निजीकरण कर दो, एनपीए से निपटने के लिए एक ‘बैड बैंक’ बना दो और वित्तीय सेवा विभाग की भूमिका कुछ कम कर दो।
लेकिन इस प्रपत्र के छपने से ठीक एक दिन पहले यानी 15 मार्च को रघुराम राजन कुछ और ही राग अलाप रहे थे। अपने प्रपत्र में जहां वे निजीकरण के पक्ष में तर्क देते नजर आ रहे हैं वहीं साक्षात्कार में अपने ही कहे से पलटते नजर आए। बैंकों की दो दिन की हड़ताल पर पीटीआई को दिए एक साक्षात्कार में राजन के सुर अलग थे; उनका कहना था,’अक्षम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अगर औद्योगिक घरानों को बेचा जाता है, तो यह एक बड़ी भारी गलती होगी।’ उन्होंने गैर कारगर बैंकों के सफल निजीकरण पर संदेह जताया। उन्होंने ठीकठाक आकार के बैंक को विदेशी बैंकों को बेचने को राजनीतिक रूप से अव्यावहारिक बताया। राजन का कहना है,”हालांकि 2021-22 के बजट में निजीकरण पर बहुत अधिक जोर दिया गया है, लेकिन इस सरकार के पिछले कामों को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार इस काम को कर पाएगी।”
राजन का यह वक्तव्य किसी वित्त विशेषज्ञ का गूढ़ वित्तीय ज्ञान कम, किसी विपक्षी राजनीतिक दल के प्रवक्ता का बयान ज्यादा लगता है। और राजन के इस साक्षात्कार को ‘प्रयोग’ किसने किया ? कांग्रेस ने। रघुराम का कंधा सहज मिल गया कांग्रेस की आलाकमानी तिकड़ी को। तुरंत ट्वीट कर दिया साक्षात्कार का लिंक, रघुराम की फोटो के साथ। ‘पोस्टर ब्वॉय’ बन गए हैं रघुराम राहुल की कांग्रेस के!! ट्वीट में लिखा है—’मोदी सरकार विशेषज्ञ की सलाह माने, मोदी सरकार भारत की आवाज सुने।’ कांग्रेस स्पष्ट करे कि वह रघुराम की कौन सी बात को सही मानती है—संयुक्त प्रपत्र वाली या पीटीआई के साक्षात्कार वाली ?
किसानों के नाम पर अराजकता फैला रही कांग्रेस और दो तरह की बात करने वाले रघुराम राजन को ‘विशेषज्ञ’ कहकर प्रचारित कर रही कांग्रेस का दिमागी दिवालियापन साबित होने में शेष क्या बचा है!
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