मैं भारत का हूं और सारे भारतीय मेरे भाई हैं
1952 से वनवासी कल्याण आश्रम के हजारों कार्यकर्ता सुदूर क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इन लोगों की मेहनत और लगन का ही प्रतिफल है कि आज वनवासियों में नई आस जगी है, वे उठ खड़े हुए हैं, प्रगति पथ पर चल पड़े हैं। वनवासी बच्चे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दिखाने लगे हैं
भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम नहीं सुना, ऐसा एक भी ग्राम शायद ही बचा होगा, भले ही सारे नागरिक इसके कार्य और उसके उद्देश्यों के संबंध में ठीक से जानकारी न रखते हों। परंतु संघ के विचारों और संस्कारों को लेकर अपना-अपना व्यक्तिगत कार्य करते हुए स्वयंसेवक जिस भी क्षेत्र में रहता है वहां पर वह संपर्क में आने वाले नागरिकों को भी संघ कार्य से परिचित कराता है। इस विचारधारा से वह जुड़ जाए और सक्रिय हो जाए, ऐसा प्रयास अवश्य ही करता है।
वनवासी कल्याण आश्रम के कार्य को प्रारंभ करने वाले श्री रमाकान्त केशव देशपांडे एवं श्री़ मो़ ह. केतकर बाल्यकाल से संघ से जुड़ गए थे। संघ संस्थापक डॉ़ हेडगेवार जी से उनका तभी से परिचय हो गया था। देशपांडे जी 1942 के आंदोलन में कारावास गए थे, तो केतकर जी संघ के प्रचारक के रूप में घर से निकल पड़े थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने कन्वर्जन के विरुद्ध आंदोलन चलाया था। मध्य प्रांत और बरार प्रांत के मुख्यमंत्री ने सरदार पटेल और पूज्य ठक्कर बापा के परामर्शानुसार अपने प्रांत में पिछडेÞ वर्ग के कल्याण के लिए अलग से शासकीय विभाग खोलकर योजनाएं प्रारंभ कीं जिससे कि राष्ट्र विभाजक गतिविधियों पर रोक लगे। इस विभाग में कार्य करने देशपांडे जी की नियुक्ति अति विपरीत जशपुर क्षेत्र में की गई। उन्होंने इस योजना को योग्यता के साथ चलाया। परंतु उन्हें ध्यान में आया कि शासकीय सेवा में रहते हुए वे जिस उद्देश्य को लेकर कार्य करना चाहते थे, वह नहीं हो सकता। अत: चार वर्ष नौकरी करने के बाद उन्होंने 1952 में त्यागपत्र दे दिया और सामाजिक संस्था की स्थापना करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने लगे। उसी साल दिसंबर में उन्होंने ‘कल्याण आश्रम’ की स्थापना की और व्यक्तिगत रूप से अर्थार्जन के लिए वकालत शुरू की।
भारत में जनजातियों की जनसंख्या 10-11 करोड़ है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण यह सारा क्षेत्र मानो राष्ट्रीय मुख्यधारा से कट-सा गया था। इसके बाद अंग्रेजों का आक्रमण हुआ और वे शासक बन गए। उन्होंने भारतीय समाज को भ्रमित करने के लिए जाति, भाषा, संप्रदाय आदि के आधार पर अविश्वास और संघर्ष का वातावरण पैदा किया और यह भी दुष्प्रचारित किया कि भारत एक राष्ट्र कभी नहीं रहा है। प्रशासन ने आज के अरुणाचल, नागालैंड और मिजोरम में प्रवेशबंदी की और प्रवेश के लिए अनुमति प्राप्त करने का नियम बनाया, जो आज भी चल रहा है। परंतु इस दुर्गम और पिछडेÞ क्षेत्र में देशी-विदेशी ईसाई मिशनरियों को अंदर जाने की उदारतापूर्वक अनुमति देते थे। इस वजह से आज मिजोरम और नागालैंड में तीन चौथाई जनसंख्या ईसाई बन चुकी है। मिशनरियों ने वनवासियों को समझाया कि तुम हिन्दू नहीं हो। हिन्दू तो वनवासियों का शत्रु है। इसलिए आज सामान्य शिक्षित व्यक्ति भी वनवासी हिन्दू नहीं हैं, ऐसी धारणा अकारण बना लेता है। भारत की यह बड़ी समस्या रही है और आज भी है। लेकिन वनवासी कल्याण आश्रम के प्रयत्नों से यह धारणा बनती जा रही है कि वनवासी हिन्दू ही हैं। वनवासी और शेष हिन्दू समाज आपस में भाई-भाई हैं, हम सभी एक ही धर्म-संस्कृति के धारक हैं, अनुगामी हैं, यह धारणा भी दृढ़ होती जा रही है। आखिर संघ भी इसी धारणा को दृढ़ करना चाहता है।
कल्याण आश्रम द्वारा राष्ट्रीय भावात्मक एकता वनवासी क्षेत्र में कैसे पहुंची, यह एक-दो उदाहरण द्वारा ध्यान में आ जाएगा। 80 के दशक में मीनाक्षीपुरम में एक जाति विशेष के लोगों ने समूह में इस्लाम मत को अपना लिया। देश भर में इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। उस समय हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए धनसंग्रह अभियान चला। जशपुर वनवासी बहुल क्षेत्र है। यहां ग्रामों में एतदर्थ धर्म-रक्षा अभियान चलाया गया। एक गांव में अत्यंत गरीब वनवासी ने द्वार पर आए कार्यकर्ता को दान में 50 रु. दिए। रकम देखकर वह कार्यकर्ता आश्चर्यचकित हुआ, क्योंकि व्यक्ति ने घुटने तक की धोती और बनियान पहन रखी थी, जो जगह-जगह से फटी हुई थी। उससे दो-चार रुपए मिलेंगे ऐसा सोचा था। लेकिन धर्म रक्षा के महत्व को समझकर उसने बचाकर रखी गई पूरी रकम दान में दे दी। उन दिनों नागालैंड में कोई अपने को हिन्दू नहीं कहता था। यहां आश्रम का कार्य 1980-81 में शुरू हो गया था। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का अभियान चल रहा था। तब रानी गाइदिन्ल्यू ने कहा कि जन्मभूमि पर राम मंदिर बनाने की अनुमति शासन को देनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हम नागा लोग हिन्दू हैं।
एक और प्रसंग है। आज के छत्तीसगढ़ प्रांत में 1952 से 1970 तक कल्याण आश्रम का कार्य जशपुर तहसील में ही सीमित था। 1962-64 में मैं अंबिकापुरा (सरगुजा) में शासकीय सेवा में प्रवासी कार्यकर्ता था। वनवासी बंधु के सिर पर प्राय: चोटी तो रहती थी पर वह अपने को ‘आदिवासी हूं’ ऐसा ही कहता था। तुम हिन्दू हो, इस पर वह मौन ही रहता था। कल्याण आश्रम के कार्य से मैं 1966 में जुड़कर जशपुर नगर में आ गया। उस वर्ष वर्षा बहुत कम हुई थी। अकाल की विभीषिका थी। मैंने देखा कि सबसे पिछड़ी जनजाति के पहाड़ी कोरवा, जिनके सिर पर प्राय: चोटी रहती थी, मिशन केंद्र पर अनाज प्राप्ति के लिए जा रहे हैं। उनमें से कोई भी ईसाई नहीं बना, वे ऐसे पक्के निष्ठा वाले थे।
कल्याण आश्रम का कार्य जहां पर प्रारंभ हुआ उन सभी स्थानों पर स्वार्थी लोगों ने विरोध किया। भोलेभाले वनवासी अपढ़ लोग प्रारंभ में कुछ दूरी बनाए रहते थे। परंतु थोड़े ही समय में उन्हें सारी बातें समझ में आने लगती थीं। परंतु नागालैंड में प्रारंभिक एक-दो वर्ष तक कार्यकर्ताओं को बहुत कष्ट झेलने पड़े। कुछ समय बाद उनका ऐसा विरोध समाप्त हो गया। हां, मिशन के प्रभाव के कारण उनमें से कई लोग दूरी बनाए रखते हैं।
नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में मतांतरित ईसाइयों का बहुमत है। नागालैंड में तो सभी शासकीय कर्मचारियों, व्यवसायी-उद्योगपतियों,सामाजिक संस्थाओं से भी आतंकवादी ‘कर’ वसूलते हैं। एक आतंकवादी ने कल्याण आश्रम को भी कर देने को कहा। वहां के कार्यकर्ता ने कहा कि हमारे पास पैसा नहीं रहता है। धमकाकर आतंकवादी ने कहा कि काम बंद करके चले जाओ। कार्यकर्ता ने कहा कि ठीक है, चले जाएंगे। तब उसके साथ के बड़े आतंकी ने कहा, ‘‘यह आश्रम सबसे अच्छा है, और हमारे बच्चे भी यहां पढ़ते हैं। उनको यहीं रहने देना है।’’
हमारे प्रकल्पों का प्रभाव किस तरह वनवासी समाज में दिखता है वह भी बताना चाहूंगा। महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के माणगांव में आश्रम का छात्रावास है। शुरू-शुरू की बात है यहां आसपास के कातकरी जनजातियों के बच्चों को पढ़ने के लिए रखा गया। पर बच्चे बिना बताए घर चले जाते थे। कार्यकर्ता उन्हें फिर से ले आते। ऐसा दो-तीन वर्ष तक चला। इसके बाद वे ढंग से रहने और पढ़ने लगे। बाद में ये बच्चे पढ़ाई में बड़े होशियार निकले।
संगठनात्मक और सांस्कृतिक-धार्मिक क्षेत्र में भी कल्याण आश्रम का अमूल्य योगदान है। ग्राम-ग्राम में ग्राम समितियों को स्थापित करते हैं जहां पर गांव द्वारा चयनित आठ-दस ग्रामीण एक या दो मास में विचार-विमर्श के लिए बैठते हैं। इसमें ग्राम विकास कार्य, सरकारी योजना, ग्राम के उत्सव आदि से जुड़ी समस्या का निपटारा किया जाता है।
ग्राम समितियों के प्रमुखों की भी वर्ष में एक या दो बार बैठक होती है और कार्य दिशा आदि पर विचार होता है। इससे ग्रामीणों में संगठित रूप से कार्य करने का भी अभ्यास होता है। वैसे ही ग्राम-ग्राम में श्रद्धा जागरण हेतु भी समिति कार्यरत रहती है। उपासना-श्रद्धा स्थानों की रक्षा, उसका निर्माण, सामूहिक रूप से उत्सव मनाना, कभी-कभी कथा-प्रवचन आदि कार्यक्रम होते हैं। इससे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से श्रद्धा दृढ़ होती है जो समाज जीवन का आवश्यक अंग है।
कल्याण आश्रम के ‘एकलव्य खेलकूद प्रकल्प’ के कारण अब शासन का ध्यान वनवासी युवाओं की ओर गया है। हर चार वर्ष में 12-13 खेलों की एक प्रतियोगिता होती है। इससे वनवासी बच्चों की खेल प्रतिभा देश के सामने आती है। इनमें से कुछ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खेल चुके हैं। महाराष्ट्र की कविता राऊत ने राष्ट्रमंडल खेलों में दौड़ में कांस्य पदक प्राप्त किया है।
कह सकते हैं कि वनवासी क्षेत्रों में वनवासी कल्याण आश्रम की जो गतिविधियां चल रही हैं, उनसे इस समाज को बहुत लाभ हो रहा है। वनवासी अब जाग उठा है, जग रहा है, ऐसा कहा जा सकता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, खेलकूद, आर्थिक आदि हर क्षेत्र में वह आगे बढ़ता जा रहा है। मैं भारत का हूं और सारे भारतीय मेरे भाई हैं, यह भाव भी दृढ़ होता जा रहा है।
(लेखक अ़खिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के संस्थापक सदस्य हैं)
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