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मुश्किल मोर्चों पर यादगार प्रदर्शन

by WEB DESK
Mar 17, 2021, 02:44 pm IST
in संघ
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कठिन स्थितियों में संघ राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर प्रखर भूमिका में दिखा

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज जम्मू-कश्मीर का जो हिस्सा भारत में है, उसके लिए सैनिकों के साथ-साथ संघ के स्वयंसेवकों ने भी बलिदान दिया है। 1947 में स्वयंसेवकों ने अपनी शहादत देकर भारतीय सेना की मदद की थी। इसके परिणामस्वरूप ही पाकिस्तानी फौज जान बचाकर भागी थी

पन्द्रह अगस्त, 1947। पूरा भारत स्वतंत्रता के उल्लास में झूम रहा था। कश्मीर घाटी में भी लोग सैकड़ों वर्षों की पराधीनता के बाद मुक्ति की हवा में सांस ले रहे थे। एक वर्ग विशेष के सांप्रदायिक उन्माद में डूबे कुछ लोगों को यह स्वतंत्रता भी रास नहीं आ रही थी। उन्हें लगता था कि जम्मू-कश्मीर मुस्लिम-बहुल राज्य है जिसे पाकिस्तान में शामिल होना चाहिए। उन्होंने सूर्योदय से पहले ही श्रीनगर के सरकारी भवनों पर पाकिस्तान के झण्डे लगा दिए।
लोगों के बीच दबे स्वर में प्रतिक्रिया शुरू हुई लेकिन सामने कौन आए। सूर्योदय के साथ ही संघ की शाखा के लिए स्वयंसेवक निकले और यह चर्चा उनके कान में पड़ी। शाखा के पश्चात् बैठक हुई और स्वयंसेवकों ने निश्चय किया कि इसका प्रभावी प्रतिकार किया जाएगा। ठीक दस बजे अमीराकदल के निकट स्वयंसेवक एकत्र हुए। नगर के देशभक्त नागरिक भी इसमें सम्मिलित हो गए। भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए हजारों लोग श्रीनगर की सड़कों पर परिक्रमा लगाते रहे। देखते ही देखते सरकारी भवनों से पाकिस्तानी झण्डे उतार फेंके गए।

कश्मीर घाटी तब भी, और आज भी मुस्लिम-बहुल है। आज की ही तरह तब भी वहां उपद्रवियों की एक जमात थी, जो संख्या में कम होते हुए भी घाटी को बंधक बनाने की क्षमता रखती थी। इसके बावजूद स्वयंसेवकों के साथ मिल कर नगर के नागरिकों ने जो साहस 15 अगस्त, 1947 को इन उपद्रवियों का प्रतिकार कर दिखाया, उसके पीछे था कुछ माह पहले ही हुआ संघ का एक विशाल कार्यक्रम। इस कार्यक्रम में पहली बार कश्मीर घाटी के लोगों ने संघ की क्षमता और उसके अनुशासन का अनुभव किया।
यह कार्यक्रम डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में आयोजित हुआ जिसमें 1,000 से अधिक गणवेशधारी स्वयंसेवकों ने भाग लिया। तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने अपने प्रेरक उद्बोधन में हिन्दू समाज की एकता को आवश्यक बताते हुए राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से सतर्क रहने तथा सामूहिक शक्ति के बल पर उनके षड्यंत्रों को सफल न होने देने का आह्वान किया।
स्वयंसेवकों की इस पहल से हीन-भाव से ग्रस्त अल्पसंख्यक किन्तु राष्टÑवादी समाज में उत्साह का संचार हुआ। इससे उत्पन्न आत्मविश्वास ने आने वाले दिनों में पाकिस्तानी आक्रमण का सामना करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

तूफानी दिन : जम्मू-कश्मीर में संघ के प्रमुख कार्यकर्ता आने वाली विभीषिका की पदचाप सुन रहे थे। सीमा प्रान्त से आने वाली सूचनाएं चिंतित करने वाली थीं और कार्यकर्ता यह निश्चय कर चुके थे कि बलिदान देकर भी वे जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तानी षड्यंत्र से बचाने का पूरा प्रयत्न करेंगे। 13 अक्तूबर, 1947 को रावलपिंडी में जिस समय मुहम्मद अली जिन्ना की उपस्थिति में 22 अक्तूबर को हमले करने की योजना बनी, उस समय एक स्वयंसेवक वेश बदल कर वहां मौजूद था। रात तक यह सूचना संघ के श्रीनगर मुख्यालय को मिल चुकी थी जिसे समय रहते ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह और ब्रिगेडियर फकीर सिंह तक पहुंचा दिया गया।

कर्तव्य पथ पर : इस कठिन परिस्थिति में स्वयं महाराजा ने संघ से सहायता मांगी और संघ ने इसे अपना कर्तव्य मान कर पूरा किया। अभियान का नेतृत्व संभाल रहे प्रो. बलराज मधोक से प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन ने कहा, ‘‘हम आपसे ऐसे नौजवान चाहते हैं जो शत्रु को कश्मीर घाटी में दाखिल होने से रोकने में सेना की सहायता करें। 150 नौजवान, कल सुबह सात बजे।’’
इस समय रात के 12 बज चुके थे। रैनावाड़ी, पुराना शहर और अमीराकदल की शाखा के मुख्य शिक्षकों को सोते से जगा कर यह काम सौंपा गया कि वे तीन बजे तक अपने-अपने शाखा क्षेत्र के स्वयंसेवकों को युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान करने की तैयारी के साथ प्रात: छह बजे तक संघ कार्यालय में पहुंचने की सूचना दें। प्रात: पांच बजे से ही स्वयंसेवकों की छोटी-छोटी टोलियां संघ कार्यालय में पहुंचने लगीं। प्रो. मधोक के प्रेरक उद्बोधन के पश्चात् संघ की प्रार्थना की गई और ट्रकों में सवार होकर स्वयंसेवक बादामी बाग छावनी की ओर रवाना हो गए।

त्वदीयाय कार्याय बद्धाकटीयम् : पूरा कश्मीर भारतीय सेना के किसी भी क्षण पहुंचने की आशा कर रहा था। लेकिन सैनिक विमानों को उतरने के लिए विस्तृत हवाई पट्टियां चाहिए थीं जिनका अभाव था। श्रीनगर, जम्मू और पुंछ, तीनों स्थानों पर रात-दिन परिश्रम कर हवाई पट्टियों के निर्माण का चुनौती भरा काम स्वयंसेवकों ने पूरा किया।
बलिदान पथ पर : 27 अक्तूबर को श्रीनगर में भारतीय सेना का पहला विमान उतरा। अगले दस दिन में भारतीय सेना ने उड़ी तक का पूरा क्षेत्र खाली करा लिया। पाकिस्तानियों को कश्मीर में पीछे हटना पड़ा तो उन्होंने जम्मू की ओर दबाव बढ़ा दिया। भिम्बर और मीरपुर, दोनों पाकिस्तानियों के हाथ में जा चुके थे। 50,000 से अधिक नागरिकों की नृशंस हत्या हो चुकी थी। कोटली पर घेरा कसता जा रहा था। सैनिक सहायता पहुंचने की संभावना कम थी। वायुसेना के एक विमान द्वारा गोला-बारूद की आठ पेटियां गिराई गर्इं परन्तु वह भी शत्रु के नियंत्रण वाले क्षेत्र में जा गिरीं। इन्हें शत्रु की गोलियों के बीच उठा कर लाना भी संभव नहीं और इसके बिना लड़ना भी संभव नहीं। इस असंभव को संभव बनाने के लिए संघ के स्वयंसेवक सामने आए।

कोटली के नगर कार्यवाह चन्द्रप्रकाश ने अपने अतिरिक्त सात अन्य स्वयंसेवकों को चुना और रेंगते हुए बारूद की पेटियों तक पहुंच गए। मार्ग में एक नाले को तैर कर पार करना था। पानी में होने वाली आवाजों ने शत्रु को चौकन्ना कर दिया। गोलियों की बाढ़ में अब वे पेटियों के साथ सरकते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी चन्द्रप्रकाश और एक अन्य कार्यकर्ता वेदप्रकाश को गोली लगी, लेकिन उन्हें देखने का समय नहीं था। शेष कार्यकर्ताओं ने उनकी पेटियां भी साथ लीं और चल पड़े। युद्ध सामग्री को सफलतापूर्वक सैनिकों को सौंप कर वे पुन: वापस लौटे। दोनों कार्यकर्ता चिरनिद्रा में लीन हो चुके थे। उनके शव को अपनी पीठ पर लाद कर उन्हें पहाड़ पर ऊपर की ओर रेंगते हुए आगे बढ़ने का दुष्कर कार्य करना था। गोलियों की बौछार बढ़ती ही जा रही थी। दो और कार्यकर्ताओं को गोली लगी और उन्हें शेष दो साथियों ने अपनी पीठ पर उठा लिया।

कोटली नगर के बाहर एक ही चिता पर चारों स्वयंसेवकों का अंतिम संस्कार किया गया। वे अपनी शपथ को पूरा कर गए। सैनिकों के पास अब पर्याप्त युद्ध सामग्री थी जिसे लेकर उन्होंने उसी रास्ते पर बढ़ना शुरू किया जिससे ये बलिदानी सामग्री लेकर आए थे। सूर्योदय के साथ ही पाकिस्तानी बंदूकें शांत हो गर्इं। सामने वाली पहाड़ी पर अब तिरंगा लहरा रहा था।
पतत्वेष कायो नमस्ते-नमस्ते : कोटली अब पूरी तरह भारतीय सेना के नियंत्रण में थी। तभी सूचना मिली कि 20 कि.मी. दूर पलांरी में लगभग 1,200 हिन्दुओं को आक्रमणकारियों ने घेर लिया है। कोटली को असुरक्षित नहीं छोड़ने की वजह से बड़ी संख्या में सैनिकों को वहां नहीं भेजा जा सकता था। निश्चय हुआ कि लेफ्टिनेंट ईश्वरी सिंह के नेतृत्व में 30 सैनिक, 15 जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान और 100 स्वयंसेवक इस मिशन पर पलांरी जाएंगे। इस अभियान की सूचना एक विश्वासघाती सरकारी अधिकारी द्वारा शत्रु पक्ष को पहले ही मिल गई और उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी कर रखी थी। पूरी टुकड़ी आखिरी सांस तक लड़ी, एक भी जीवित नहीं लौटा।

सेवा कार्य : बलिदानों का यशस्वी इतिहास रचने के बाद संघ कार्य का दूसरा चरण शुरू हुआ। युद्ध विराम लागू होने के बाद उन लाखों लोगों की देख-भाल की चुनौती सामने थी जो अपना सब कुछ गंवाकर और अपने परिजनों को खोकर शरणार्थी और विस्थापित के रूप में जम्मू और उसके आस-पास पड़े थे।
राज्य के अपने नागरिकों को भी शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में ठहरने नहीं दिया। उन्हें जम्मू की ओर धकेल दिया गया और यह विडंबना ही है कि आज भी जम्मू इन विस्थापितों की भूमि बना हुआ है। संघ ने इन सभी पीड़ितों की तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए समाज का सहयोग मांगा और उनके भोजन, आवास, सुरक्षा, चिकित्सा जैसे प्राथमिकता के पहलुओं पर काम करना शुरू किया। कार्यकर्ता जिस प्रकार पाकिस्तानी आक्रमण के समय शत्रु के आगे दीवार बन कर खड़े हो गए थे, उसी प्रतिबद्धता के साथ वे बिना अपनी चिन्ता किए दिन-रात इन विस्थापितों और शरणार्थियों की सेवा में जुट गए।
प्रजा परिषद और उसका आंदोलन : अपनी जनता पर हो रहे पाकिस्तानी अत्याचारों से विचलित महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपने की अतार्किक मांग को भी स्वीकार करते हुए विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस बीच मुजफ्फराबाद के उपायुक्त रह चुके पं. प्रेमनाथ डोगरा के सर्वमान्य व्यक्तित्व को आगे कर जम्मू प्रजा परिषद का गठन किया गया।

शेख ने प्रशासन हाथ में लेते ही अपने राजनैतिक विरोधियों से कड़ाई से निपटना शुरू किया। प्रो. मधोक और उनके माता-पिता को जम्मू से निष्कासित कर दिया तथा पं डोगरा को जेल में डाल दिया। शेख अब्दुल्ला के दबाव में हुए दिल्ली समझौते, राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत राजप्रमुख को असंवैधानिक ढ़ंग से बदल कर सदरे-रियासत की घोषणा आदि घटनाक्रम ने राज्य में अनिश्चितता और आशंका का वातावरण उत्पन्न कर दिया। परिणामस्वरूप प्रजा परिषद को निर्णायक आंदोलन की ओर बढ़ने को बाध्य होना पड़ा।
दिल्ली में आंदोलन की आग : जम्मू में आंदोलन अपने चरम पर था। हर दिन आंदोलनकारियों पर लाठी और गोली चल रही थी। आंदोलन के समर्थन में दिल्ली में भी जुलूस और विराध प्रदर्शनों का क्रम शुरू हो गया। भारतीय जनसंघ ने एक आठ सदस्यीय तथ्यखोजी शिष्टमंडल जम्मू भेजने की घोषणा की किन्तु भारत सरकार ने उसे वहां जाने की अनुमति नहीं दी।
मौन साधना : अगले लगभग तीन दशक तक केन्द्र सरकार जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रयोग करती रही। इन प्रयोगों के दौरान भारत विरोधी गतिविधियों को अनदेखा करते हुए, और कभी-कभी तो उसे संरक्षण देते हुए कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपनी जगह बनाए रखी। बांग्लादेश में पराजय के बाद जब पाकिस्तान ने अपनी रणनीति बदली तो अलगाववादियों ने भी अपने सुर बदल लिए। शेख अब्दुल्ला ने तो जम्मू-काश्मीर के भारत में विलय को अंतिम बताना भी शुरू कर दिया। इससे प्रभावित होकर शेख को पुन: मुख्यमंत्री बनाया गया। संघ के लिए यह काल मौन साधना का था।

आतंकवाद के विरुद्ध : 1989 आते-आते आतंकवादियों के आगे प्रशासन पूरी तरह लाचार हो गया। मस्जिदों से निजामे-मुस्तफा की घोषणा होने लगी। हिन्दुओं को घाटी छोड़ने के लिए कहा गया। भाजपा और संघ के कई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। इस परिस्थिति में संघ की पहल पर जम्मू-कश्मीर की सभी धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं को एकत्र कर जम्मू-कश्मीर सहायता समिति का गठन किया गया।
कश्मीर मार्च : अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के आह्वान पर 11 सितंबर, 1990 को देशभर से 11,000 से ज्यादा छात्र-छात्राएं जम्मू पहुंचे। परिषद ने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा की थी किन्तु जो प्रशासन लालचौक पर तिरंगे के अपमान को नहीं रोक सक था उसने इन राष्टÑवादी युवाओं को आगे बढ़ने से रोक।
जम्मू कश्मीर बचाओ अभियान : जनजागरण के उद्देश्य से 29 से 31 मार्च, 1991 तक राष्टÑ सेविका समिति ने देशभर में जम्मू-कश्मीर बचाओ अभियान का आयोजन किया। 31 मार्च को जम्मू में एक विशाल जागरण यात्रा और जनसभा आयोजित हुई।

एकता यात्रा : राज्य की परिस्थिति की जानकारी को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से भारतीय जनता पार्टी ने एकता यात्रा की घोषणा की। भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अयक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में यह रथ यात्रा 11 दिसम्बर, 1991 को कन्याकुमारी से प्रारंभ हुई। 26 जनवरी, 1992 को तमाम बाधाओं को पार करते हुए यह यात्रा श्रीनगर पहुंची जहां पूर्व घोषणा के अनुसार तिरंगा फहराया गया।
जम्मू का प्रत्युत्तर : देशभर में आम धारणा यह है कि आतंक की पीड़ा केवल कश्मीर ने झेली। यह अधूरा सच है। कश्मीर से आतंक का सिलसिला शुरू हुआ लेकिन जल्दी ही जम्मू के विभिन्न जिलों में फैल गया। अंतर यह था कि घाटी में हुए घटनाक्रम ने समझने और संभलने का मौका नहीं दिया। एकाएक वहां के हिन्दू समाज को पलायन करना पड़ा और प्रतिकार का अवसर ही नहीं मिला। वहीं जम्मू में, विशेषकर उसके घाटी से लगने वाले इलाकों जैसे किश्तवाड़, डोडा, रामबन, राजौरी, पुंछ आदि में आतंकवादियों ने अनेक बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया और वहां के हिन्दू समाज का संबल बनने वाले राष्टÑवादियों पर नृशंस अत्याचार किया।

पूर्व सैनिक रैली : जम्मू-कश्मीर में पूर्व सैनिकों की बड़ी संख्या है। आतंकवाद के विरुद्घ इन पूर्व सैनिकों को एक शक्ति के रूप में खड़ा करने के लिए पूर्व सैनिक सेवा परिषद ने दिसम्बर, 1992 में किश्तवाड़ के चार चिनार नामक स्थान पर सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें प्रशासन से पूर्व सैनिकों से जब्त की गर्इं 12 बोर की बंदूकें वापस करने की मांग की गई जिसे प्रशासन ने स्वीकार कर लिया। हथियार प्राप्त होते ही इन पूर्व सैनिकों ने आतंकवाद के विरुद्ध खुले संघर्ष की घोषणा कर दी।

अमरनाथ आंदोलन : अमरनाथ यात्रियों की निरंतर बढ़ती संख्या के कारण अमरनाथ के मार्ग में बालटाल स्थित शिविर में स्थान छोटा पड़ने लगा था। सरकार ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन विभाग के अंतर्गत आने वाला भूमि का एक छोटा टुकड़ा अस्थायी शिविर बनाने के लिए हस्तांतरित करने का निर्णय किया। अलगाववादियों ने इसका तीव्र विरोध किया जिसके दवाब में राज्य सरकार ने भूमि हस्तांतरण का निर्णय बदल दिया। जम्मू में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई जिसे देशभर के हिन्दू समाज का समर्थन मिला। जम्मू में राष्टÑवादी विचार के सभी लोगों ने एक मंच पर आकर संघर्ष समिति का गठन किया। जम्मू मण्डल में आंदोलन की आग तेजी से भड़की। 61 दिन तक चले इस अभूतपूर्व आंदोलन में अंतत: राष्ट्रवादी शक्तियों की निर्णायक जीत हुई और अलगाववादियों के विरोध के बावजूद प्रशासन को घुटने टेकने पड़े।
सिंधु दर्शन : सिंधु नद की घाटी में ही भारत की सभ्यता-संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई है। जम्मू-कश्मीर के साथ भारत के इस सांस्कृतिक संबंध को रेखांकित करने और लद्दाख, जहां आज भी यह भारतीय भूमि से होकर गुजरती है, का देश के साथ संवाद बढ़ाने के लिए 1997 से सिंधु दर्शन का कार्यक्रम प्रतिवर्ष जून मास में आयोजित किया जाता है। लेह के निकट शे नामक स्थान पर सिंधु तट पर इसका आयोजन होता है। 1999 में भारत सरकार द्वारा इस निमित्त एक डाक टिकट जारी किया गया। वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा इसे भव्य स्वरूप दिया गया।

एकल विद्यालय : जम्मू-कश्मीर की भौगोलिक परिस्थिति में सुदूर गांवों तक शिक्षा व्यवस्था अत्यंत कठिन है। एक ओर सरकारी व्यवस्था में शिक्षा का स्तर सुधारने का कोई आग्रह नहीं है, वहीं आतंकवाद के चलते अनेक गांवों में विद्यालय या तो जला दिए गए अथवा शिक्षकों ने जाना ही छोड़ दिया। अनेक मामलों में तो पूरा गांव ही पलायन कर गया जिसके कारण उस गांव के बच्चों के लिए शिक्षा दुर्लभ हो गई।
इस खाई को पाटने के लिये सेवा भारती, विद्या भारती और विश्व हिन्दू परिषद ने एकल विद्यालय की संरचना खड़ी की। किसी भी गांव में मौजूद 10 से 20 बच्चों के लिए एक शिक्षक नियुक्त कर उनको प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता से जोड़ने और संस्कार देने का काम प्रभावी रूप से चल रहा है। आज पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में 3,200 से अधिक एकल विद्यालय कार्यरत हैं।

विद्या भारती : राज्यभर में 50 से अधिक ऐसे स्थानों पर, जहां विद्यार्थियों की संख्या अधिक है, विद्या भारती अपने प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालय चलाती है। इनमें जंस्कार और लेह जैसे स्थानों पर चल रहे आवासीय विद्यालय भी हैं जो क्षेत्र के बच्चों के लिए उज्ज्वल भविष्य की एक मात्र किरण है।
बाढ़ राहत : सितम्बर, 2014 में जम्मू-कश्मीर को भयंकर प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ा। जम्मू में जहां अतिवृष्टि के कारण अनेक गांवों में भारी जन-धन की हानि हुई, वहीं कश्मीर घाटी में झेलम नदी ने भयावह रूप धारण कर लिया। परंपरागत जलप्रवाह के मार्गों में अतिक्रमण और निर्माण के कारण पानी को निकलने का मार्ग नहीं मिला और श्रीनगर सहित अनेक स्थान जलमग्न हो गए।
राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ ने सदैव की भांति राज्य के आपदा पीड़ितों के लिए बिना समय गंवाए बचाव तथा सहायता कार्य प्रारंभ कर दिए। देश भर से टनों सहायता सामग्री आदि जमा करके पीड़ितों के बीच वितरित की गई। सेवा कार्य के लिए 500 से अधिक कार्यकर्ता और 200 से अधिक चिकित्सकों की टीम जम्मू-कश्मीर पहुंची। लगभग दो माह तक ये सेवा-कार्य चलते रहे।

पूर्ण एकात्मता की ओर : राष्ट्रवादी शक्तियों की एकजुटता के कारण आज आतंकवाद और अलगाववाद अपने आपको बचाने की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। राष्ट्रवादी शक्तियां इसमें विजयी होकर उभरी हैं। एक समय था जब अधिकांश लोगों को और सरकार को भी लगता था कि कश्मीर हाथ से फिसल रहा है। कुछ लोगों का मानना था कि राज्य को तीन हिस्सों में बांट कर कम-से-कम जम्मू और लद्दाख तो सुरक्षित कर लिया जाए। बहुत से लोग नियंत्रण रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के पक्षधर थे। लेकिन जम्मू-कश्मीर की राष्ट्रवादी शक्तियों ने अपने जीवट के बल पर इस सारी नकारात्मकता को चीर कर अपनी ताकत दिखाई है। आज का प्रश्न है कि नियंत्रण रेखा के उस पार स्थित भारतीय भू-भाग को वापस अपने नियंत्रण में कैसे लाया जाए? अंतरराष्टÑीय कूटनीति के चलते जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर जो भ्रम का आवरण डाला गया, उसे कैसे निरावृत्त किया जाए। छह दशक तक केन्द्र सरकार की चुप्पी ने जिस झूठ को प्रतिष्ठित किया है, उसे कैसे निरस्त कर सत्य को सामने लाया जाए?

जम्मू-कश्मीर का विषय अब एक नए चरण में प्रवेश कर गया है जहां तथ्यों और तर्कों के आधार पर सत्य की प्रतिष्ठापना करनी होगी। वैचारिक संघर्ष की इस चुनौती को भी संघ ने स्वीकार किया है और इस दिशा में शोधपरक अध्ययन द्वारा तथ्यों को क्रमबद्ध और वैज्ञानिक रूप से समाज के सामने लाने का प्रयास निरंतर जारी है। गत कुछ वर्षों में जिस प्रकार जम्मू-कश्मीर का प्रश्न केन्द्रीय मुद्दे के रूप में आया है उससे इन प्रयासों की सार्थकता स्वत: सिद्ध होती है।
लेखक रा.स्व.संघ के अखिल भारतीय सह संपर्क प्रमुख हैं
प्रस्तुति : आशुतोष भटनागर

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