ओटीटी मंचों पर प्रदर्शित होने वाली महिला केंद्रित फिल्मों और वेब सीरीज में भारतीय महिलाओं के चरित्र को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है। साथ ही, यह दिखाने का कुत्सित प्रयास भी किया जा रहा है कि भारत में कथित तौर पर पितृसत्तात्मक सोच का बोलबाला है
इन दिनों ओटीटी मंचों पर महिला केंद्रित कई वेब सीरीज और फिल्में आ रही हैं जिनमें से कई पर हाल ही में विवाद हुआ। वेब सीरीज ‘तांडव’ में धर्म और जाति को लेकर तो आपत्तिजनक दृश्य थे ही, सर्वाधिक आपत्तिजनक था राजनीति में महिलाओं को लेकर संकीर्ण व बेहद नकारात्मक दृष्टिकोण। इसमें महिलाओं के चरित्र पर सवाल उठाकर सफल एवं संघर्षरत महिलाओं को अत्यंत दुर्बल बताने का प्रयास किया गया।
दरअसल, फिल्म के संवादों के दूसरी भाषा में अनुवाद के क्रम में इस तरह की शरारत की जाती है। अनुवाद सिद्धांत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय होता है-छलपूर्ण तकनीक। औपनिवेशक युग में अनुवाद मात्र भाषांतरण नहीं था, बल्कि छलपूर्वक हिन्दू साहित्य को नष्ट करने के एक अस्त्र के रूप में उभरा था। अनुवाद करते समय अनुवादक न केवल समय, स्थान, विवाद, ऐतिहासिक और अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता है, अपितु यह भी ध्यान रखता है कि उसकी अपनी विचारधारा क्या है और वह किस प्रयोजन के लिए अनुवाद कर रहा है। फिल्म, धारावाहिक या कोई भी दृश्य माध्यम मात्र विचारों और स्थितियों का अनुवाद है। यह इस पर निर्भर करता है कि एक ही स्थिति को दो लोग कैसे भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं। लोग अपनी विचारधारा के अनुसार ही इसे देखते हैं और उसके आधार पर कृति का निर्माण करते हैं। एंद्रे लेफ्रे का भी कहना है कि अनुवादक अपनी विचारधारा या राजनीति के अनुसार मनचाहा अनुवाद कर सकता है। वहीं, बेकर की मानें तो यदि वैचारिक आधार पर अनुवाद में बदलाव किया जाता है तो अनुवादक अलग ही छवि प्रस्तुत कर देगा।
ओटीटी मंचों पर दिखाई जाने वाली फिल्में व वेब सीरीज महिलाओं को लेकर यही कर रही हैं, क्योंकि भारतीय समाज को लेकर एक तो ऐसे फिल्म निर्माताओं की सोच विकसित ही नहीं हुई। थोड़ी-बहुत सोच अगर विकसित भी हुई है, वह आयातित यानी वामपंथी या इससे प्रेरित है। ‘तांडव’ के पटकथा लेखक हिमांशु कृष्ण मेहरा की विचारधारा को लेकर भी सोशल मीडिया पर काफी हल्ला मचा। कहा गया कि उनकी विचारधारा भी वामपंथ से प्रेरित है। जिस विचारधारा में महिला को केवल देह माना जाता है और आगे बढ़ने के लिए देह का सहारा लिया जाता है, हिमांशु ने उसी आधार पर भारतीय राजनीति की समृद्ध महिला परंपरा में हेर-फेर कर अपने किरदार उस रूप में दिखाया। यह हास्यास्पद है कि एक मध्यमवर्गीय भारतीय महिला की बोरियत को शरीर से जोड़कर अनैतिक संबंधों को आजादी का नाम दे दिया गया। हाल ही में एक फिल्म आई थी ‘त्रिभंग’।
यह महिला केंद्रित फिल्म थी, जिसकी पटकथा रेणुका शहाणे ने लिखी और निर्देशन भी किया। फिल्म में एक टूटे हुए परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दिखाया गया है, जिसमें लेखिका (मां), उसकी नृत्यांगना बेटी व नवासी हैं। फिल्म में नयनतारा के पति को पितृसत्ता का वाहक बताया गया है, जो हर कदम पर पत्नी का साथ देता है। लेकिन जब नयनतारा दोनों बच्चों को लेकर चली जाती है तो पति का क्या होता है? उसकी जिंदगी कैसे तबाह हो जाती है, रेणुका ने यह नहीं दिखाया, क्योंकि उनकी विचारधारा कथित पितृसत्ता से लड़ाई के साथ शुरू होती है।
पितृसत्ता भारत की अवधारणा ही नहीं है। पर फिल्म की कहानी लिखने वाला साधारण परिस्थितियों को भी उसी पितृसत्तात्मक सोच के साथ देखेगा या देखेगी जिसे उसने पढ़ा या जिससे वर्तमान हिंदी साहित्य अटा पड़ा है। इनकी दृष्टि में हिन्दुओं का हर त्योहार और रीति-रिवाज पितृसत्ता का वाहक है। इसलिए वह हर छोटी घटना को उसी सोच से देखती हैं व उसी के अनुरूप कहानी लेखन में छलपूर्ण तकनीक का सहारा लेती हैं। अनुवाद की हेराफेरी वाली शाखा पूरे पाठ को दुबारा लिखने की बात करती है। जैसे फिल्म में मध्यमवर्गीय महिलाओं की जिंदगी एकदम उबाऊ लिख दी गई। यह सच है कि एक उम्र के बाद महिलाओं के जीवन में थोड़ा खालीपन आ जाता है। यह खालीपन बच्चों के प्रति अत्यधिक मोह के कारण आता है। महाभारत में एक छोटा सा अध्याय है भगवद्गीता, जो यह बताता है कि देह नश्वर है। अत: व्यक्ति देह से परे देखे तथा वर्णाश्रम की तैयारी करे। जाहिर है जिसने पितृसत्ता की अवधारणा की ही पढ़ाई की है, वह वर्णाश्रम के प्रति अज्ञानता से उपजी ऊब को देह की कुंठा से ही जोड़ेगा।
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित वेब सीरीज ‘जिंदगी इन शॉर्ट’ में भी यही दिखाया गया है। नाम से भले ही लगता हो कि यह महिलाओं के जीवन से जुड़ी कुछ लम्हों की कहानी होगी, पर इसमें भी 40 वर्ष पार की मध्यमवर्गीय महिलाओं की सामान्य ऊब को देह से जोड़ दिया गया है। ऐसी किसी भी सीरीज में सकारात्मक समाधान क्यों नहीं दिया जाता है? क्या ऐसी महिलाओं की कहानी से यह संदेश नहीं दिया जा सकता कि वे अपना जीवन जी चुकी हैं और अपना बाकी जीवन समाज को समर्पित करना चाहती हैं? क्यों गणितज्ञ शकुन्तला को केवल मां और महिला की भूमिका तक समेट दिया जाता है?
यह इसलिए होता है, क्योंकि लेखकों-लेखिकाओं की विचार प्रक्रिया भारतीय समाज से संचालित नहीं होती है। वह संचालित होती है आयातित विचारधारा की पितृसत्तात्मक सोच से, जिसमें महिला को हमेशा शोषित दिखाया जाता है और जो सिर्फ विध्वंस में विश्वास रखता है। महिलाएं समाज को क्या देना चाहती हैं, इस पर इस पर वे मौन हैं। उनके विमर्श में समाधान का स्थान ही नहीं है, इसलिए वे समाज को तोड़ने वाले मोड़ पर लाकर छोड़ देते हैं। विध्वंसात्मक अनुवाद में ऐसा होता है और उसकी प्रथम शर्त भी यही है। जैसे- वामपंथियों ने हिटलर का अनुवाद हत्यारा कर दिया, पर लाखों हिन्दुओं के संहारक मुगलों को इतिहास और वास्तुकला के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। यह है विचारधारा के अनुसार विध्वंसात्मक अनुवाद का उदाहरण।
नतालिया वी क्लिमोविक अपने शोधपत्र ‘मैनिप्यूलेटिव स्ट्रेटेजीज इन द ट्रांस्लेशन्स आॅफ लिटरेरी टैक्स्ट्स कैरिड आउट इन सोवियत यूनियन’ में लिखती हैं कि सोवियत संघ की राजनैतिक और सांस्कृतिक नीति ने अनुवादकों के लिए विचारधारा का निर्माण किया तथा अनुवाद में अपनी पसंद की रणनीतियों को प्रभावित किया। अनुवाद हर देश के सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रभावी विचारधारा के अनुसार रूप लेता रहा है। अब फिल्मों एवं अन्य दृश्य माध्यमों ने यह स्थान ले लिया है। अत: लेखिका या लेखक अपनी विचारधारा के अनुसार घटना को ही छलपूर्वक अनुदित कर देता है। यह घटनाओं का छल एवं कुटिलतापूर्वक किया गया पुन: वर्णन है, जो हमें संस्कृति से काटने के लिए किया जा रहा है। इसे एक समानांतर विमर्श से ही परास्त किया जा सकता है।
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