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नव चेतना का वह उद्घोष

by WEB DESK
Mar 16, 2021, 04:54 pm IST
in संघ
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रामलला के भव्य मंदिर निर्माण के लिए देश भर में चले प्रखर जनांदोलन की गाथा

संघ का स्वर यानी समाज की भावनाओं का उद्घोष। जो समाज के मन में है संघ की लीक उससे अलग नहीं है। स्वयंसेवक समाज की इन्हीं भावनाओं की नेतृत्वकारी प्रतिमूर्ति हैं। यह बात श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान साफ दिखी

वैसे तो अयोध्या में राम जन्मभूमि को वापस प्राप्त करने के लिए 1528 ई़ से ही सतत संघर्ष चल रहा है। इतिहास की पुस्तकों में 75 लड़ाइयों का वर्णन दर्ज है। 1934 ई. की लड़ाई, तो आधुनिक काल की है इसलिए सर्वज्ञात है। 1949 में अयोध्या के नवयुवकों द्वारा उस स्थान पर अधिकार कर लेना भी कल की ही बात है, उन नौजवानों में से अनेक आज भी जीवित हैं तो भी संसार ये मानता है कि विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि की लड़ाई लड़ी और इसका नेतृत्व संतों ने किया। साधु-संत मानते हैं कि नेतृत्व श्री अशोक सिंहल जी ने किया। परन्तु अशोक जी क्या कहते हैं? बात पुरानी है। अशोक जी ने कहा था कि विश्व हिंदू परिषद अकेले कुछ नहीं है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति ही विश्व हिन्दू परिषद की शक्ति है। अगर राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ को निकाल दिया जाए तो शरीर में से प्राण निकल जाने पर जो होता है, वैसी अवस्था हमारी हो जायेगी। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ का कार्य तो हिंदू संगठन का कार्य है, व्यक्ति निर्माण का कार्य है। संघ के स्वयंसेवक समाज जीवन में यही कार्य करते हैं और श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में स्वयंसेवकों की यही भूमिका, यही आहुति रही है।

1983 में मुजफ्फरनगर में एक सम्मेलन हुआ था, वह संघ के स्वयंसेवकों ने आयोजित किया था, तारीख थी 23 मार्च। मंच पर माननीय रज्जू भैय्या मौजूद थे, हरिद्वार के एक-दो संत थे, मेरी स्मृति बताती है, ब्रह्मलीन जगदीश मुनि जी मंच पर थे। मुजफ्फरनगर जिले का समाज भारी संख्या में एकत्र आया था। अभी तक विश्व परिषद का कार्य कुछ प्रौढ़ों का ही कार्य था। मुजफ्फरनगर में उस समय अगर कोई एक कार्य था तो वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। मंच पर गुलजारी लाल नंदा, दाऊदयाल खन्ना थे। लेकिन विश्व हिंदू परिषद का कोई कार्यकर्ता नहीं था, अशोक सिंहल जी भी नहीं। वहां पर दाऊदयाल जी ने यह विचार दिया कि अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थानों को वापस लो। अब यह काम तो संघ का नहीं था। लेकिन जो जन समुदाय वहां था वह तो संघ स्वयंसेवकों का था या स्वयंसेवकों के द्वारा लाया गया हिंदू समाज था। उत्साह की लहर दौड़ गई। अशोक जी तो उसके बाद दाऊदयाल जी से मिलने गये, उनकी बात सुनी और समझी। संघ के स्वयंसेवकों का इस अभियान को आगे बढ़ाने में यह पहला योगदान है।

मैंने पढ़ा है कि जनवरी, 1983 में इलाहाबाद में संघ का एक शीत शिविर लगा था। उस शिविर में परम पूजनीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस आए थे। शिविर समाप्ति के बाद कुछ प्रचारकगण बैठे थे, बातचीत चल रही थी, बालासाहब ने पूछा, ‘‘सुना है अयोध्या में राम जन्मभूमि पर ताले पड़े हैं?’’ उस क्षेत्र से संबंधित प्रचारक ने खड़े होकर कहा था, ‘‘हां, यह बात सत्य है।’’ बालासाहब ने कहा, ‘‘कब तक ताले पड़े रहेंगे’’? और बात वहीं समाप्त हो गई थी। मैं समझता हूं, विश्व हिंदू परिषद ने जब राम जन्मभूमि मुक्ति का काम अपने हाथ में लिया तो ये उसका बीजारोपण था। अयोध्या में भगवान की जन्मभूमि पर ताले पड़े हैं, यह संदेश गांव-गांव पहुंचाना चाहिए, जनता को बताना चाहिए इसलिए एक रथ यात्रा निकालने का निर्णय हुआ। परन्तु रथ कौन निकालेगा? कौन व्यवस्था करेगा? जनता को कौन बुलाएगा? कार्यक्रम कौन कराएगा? धन संग्रह कौन करेगा? यह काम संघ के स्वयंसेवकों ने किया। पहले एक रथ चला, फिर छह रथ चले। उत्तर प्रदेश में व्यापक जन-जागरण हुआ, परिणामस्वरूप ताले खुल गये।

मुझे यह भी याद आता है कि संघ के प्रांतों के प्रमुख प्रचारकगण और अखिल भारतीय अधिकारी बैठे थे, राम जन्मभूमि की चर्चा चल रही थी। सब अपनी-अपनी बात रख रहे होंगे। मैंने सुना है कि बालासाहब देवरस ने कहा था, ‘‘अच्छी तरह से सोच लो, अगर इस अभियान को हाथ में लिया तो वापस लौटने के रास्ते नहीं हैं। फिर सफलता प्राप्त होनी ही चाहिए, हिंदू समाज का सम्मान ऊंचा उठना ही चाहिए।’’ और सोच-विचार कर सारे देश के कार्यकर्ताओं ने सामूहिक सहमति व्यक्त की थी। संभवत: यह घटना राजस्थान के किसी शहर की है जहां उस समय संघ की बैठक चल रही थी। अशोक जी उस बैठक का मात्र एक हिस्सा थे, अगर वहां 100 कार्यकर्ता बैठे थे तो वे उनमें से एक थे यानी 1/100 थे। इस प्रकार राम जन्मभूमि आंदोलन संघ के स्वयंसेवकों का, स्वाभिमानी हिंदुओं का और हिंदुओं के प्रतीक रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति या एक संस्था के नाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है।

आंदोलन आगे बढ़ने लगा। विचार हुआ कि वहां एक मंदिर बनाना चाहिए तो मंदिर वास्तुकार मिल गये, मंदिरों के अनेक प्रारूप बने। संतों ने उसमें से किसी एक को स्वीकार कर लिया। इतना तो हुआ, लेकिन अब मंदिर बनाने के पहले करोड़ों हिंदुओं को पता लगना चाहिए था कि ये मंदिर बनेगा और मंदिर कुछ लोगों के धन से नहीं अपितु करोड़ों हिंदुओं के योगदान से बनेगा, इसलिए एक विचार आया कि हर हिंदू से सवा रुपया लेंगे। हर गांव से, शहर के एक मुहल्ले से एक शिला लेंगे। शिलापूजन का यह अभियान सितंबर 1989 को हुआ तो देश के लगभग 2 लाख 75 हजार गांवों में या शहरों के मुहल्लों में शिला पूजन हुआ। मोटे अनुमान से 6 करोड़ लोगों से संपर्क हुआ। 6 करोड़ लोगों ने सवा-सवा रुपए भेंट किए। ये 6 करोड़ लोग और 2 लाख 75 हजार गांवों तक पहुंचने की स्थिति संघ के बिना तो संभव ही नहीं थी। विश्व हिंदू परिषद तो यह कार्य कर ही नहीं सकती थी। लेकिन यह कार्य मात्र 15 दिन में संपन्न हो गया। संघ के स्वयंसेवक हजारों की संख्या में जुटे थे। वे अपना समय देते थे। जो निश्चय किया उसको पूरा करते थे। इस संघ शक्ति का ही परिणाम है कि राम जन्मभूमि मुक्ति का विचार हिंदुस्थान के 2 लाख 75 हजार गांवों के 6 करोड़ लोगों तक पहुंचा।

9 नवंबर, 1989 को शिलान्यास हो गया। 24 जून, 1990 को हरिद्वार में आस-पास के क्षेत्र का हिंदू सम्मेलन हुआ, 40 हजार जनता आयी थी, 50,000 भोजन पैकेट हरिद्वार के घरों से एकत्र किये थे। यह कार्य भी केवल स्वयंसेवकों के दम पर हुआ था। निर्णय हुआ 30 अक्तूबर, 1990 को हिंदू समाज अयोध्या जाएगा और अपने हाथों से निर्माण का कार्य प्रारंभ करेगा। इसी को कार सेवा कहा गया। पुलिस के अधिकारियों ने दिल्ली आकर विश्व हिंदू परिषद कार्यालय में अशोक जी को कहा था, ‘‘आपने यह क्या घोषणा कर दी है, जब पुलिस गोली चलाएगी तो कोई टिकेगा नहीं।’’ अशोक जी ने उस अफसर को कहा था,‘‘ तुमको अभी मालूम नहीं है निष्ठावान कैसे होते हैं। एक मरेगा तो दूसरा आगे बढ़ेगा, दूसरा मरेगा तो तीसरा झंडा लेकर आगे बढ़ेगा।’’ मुझे नहीं लगता कि उस पुलिस अफसर को ऐसा कहने वाला कोई व्यक्ति पहले कभी मिला होगा। कालांतर में वही सिद्ध हुआ। अयोध्या को चारों तरफ से सात-सात स्थानों पर बैरियर लगाकर जेल बनाया गया। घोषणा हुई कि ‘‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’’ पत्रकारों ने कहा, ‘‘हेलीकाप्टर से भी अगर फावड़ा गिरा दोगे तो हम मान लेंगे कि कारसेवा हो गई।’’ लोग ढांचे पर चढ़ गये। यह भीड़ नहीं थी। ये देश और धर्म की रक्षा के लिए स्वेच्छा से अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले लोग थे। ऐसे लोगों की निर्मिति केवल संघ शाखा पर होती है। 2 नवंबर, 1990 के गोली कांड के कारण अभियान को रुकना पड़ा।

1990 के बाद यह विचार आया कि दिल्ली में बड़ी हिन्दू शक्ति का प्रकटीकरण होना चाहिए और इतनी बड़ी शक्ति का प्रकटीकरण होना चाहिए जितना पहले कभी न हुआ हो ताकि लोग कहें कि ऐसा न कभी पहले हुआ, न कभी भविष्य में होगा। यदि मेरी स्मृति बिल्कुल ठीक है, तो ऐसा कार्यक्रम करने का निर्णय मार्च के महीने में हुआ था और 4 अप्रैल, 1991 उसकी तिथि तय की गई। स्थान था बोट क्लब। 4 अप्रैल, 1991 के साक्षी लाखों हिंदू दिल्ली में आज भी रहते हैं। मंच से पूछा गया, ‘‘यहां कितने लोग हैं’’, तो वीतराग संत वामदेव जी महाराज ने कहा था कि घोषणा कर दो, 25 लाख लोग हैं। घोषणा हो गई। आज तक कोई उसे काटता नहीं। लेकिन ये 25 लाख लोग दिल्ली आये, दिल्ली में ठहरे, शांति से दिल्ली से बाहर निकल गये, कहीं लूट-मार नहीं हुई। इतना बड़ा अनुशासित समुदाय, अनुशासित हिंदू, ये तो केवल संघ स्वयंसेवकों के कारण ही संभव है। इनमें लाखों संघ के स्वयंसेवक थे। दिल्ली में बाहर से आए इन लाखों रामभक्तों के भोजन एवं अन्य दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था दिल्ली एवं अन्य प्रांतों से बुलाये गए संघ स्वयंसेवकों ने की थी। संघ का यह योगदान है राम जन्मभूमि आंदोलन में।

दूसरी बार फिर निर्णय हुआ, 6 दिसंबर, 1992 को चलेंगे। लगभग 3 लाख लोग सारे देश से पहुंचे। ऐसी भीड़ कहीं आ जाए और वह आक्रोश और जोश में हो, तो देश के क्या अनुभव हैं? ऐसे लोगों की भीड़ रेलवे स्टेशन पर, बाजारों में क्या व्यवहार करती है? परंतु 6 दिसंबर के बाद अपने घरों को जाने वाला समुदाय या अयोध्या की ओर आने वाला समुदाय या अयोध्या में जिसने चार-पांच दिन निवास किया, उस दौरान कोई दुकानदार यह नहीं कह सकता कि लोगों ने हमारी चाय पी, बिना पैसा दिये चले गए और कोई कारसेवक भी नहीं कह सकता कि किसी दुकानदार ने दो रुपये की चाय पांच रुपये में बेची। अयोध्या में तो आज भी 15 के आस-पास मस्जिदें हैं, लेकिन 3 लाख की भीड़ ने अन्य किसी मस्जिद को छुआ भी नहीं। अयोध्या में मुस्लिम घर भी हैं। किसी घर के साथ कोई दुर्घटना होने का उदाहरण नहीं है। मुस्लिम दुकानदार के साथ भी नहीं, फैजाबाद में तो मुस्लिम दुकानदार बहुत हैं। एक मिशन लेकर घर से निकले, उस मिशन के दाएं-बाएं नहीं सोचना, अनुशासन के अंतर्गत रहना, समाज को कष्ट नहीं पहुंचाना, ये संस्कार शाखा पर ही मिलते हैं। इसलिए 6 दिसंबर, 1992 को इतने अनुशासित ढंग से सब आए और वापस चले गये तो ये राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों का परिणाम है। उसके स्वयंसेवक थे या उनके नेतृत्व में आया हुआ हिंदू समाज था।

ढांचा गिर जाने के बाद यह विचार आया कि हिंदू समाज हस्ताक्षर करे। अब मैं फिर कहता हूं कि प्रतिबंध लग जाने के बाद विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता ये काम नहीं कर सकते थे, लेकिन 11 करोड़ हस्ताक्षर हुए जो राष्ट्रपति महोदय को सौंपे गए। एक लाइन का प्रस्ताव था-राम जन्मभूमि मंदिर का पुनर्निर्माण होना चाहिए। बिना किसी प्रचार प्रसिद्धि के, अपने फोटो खिंचाने की कोई इच्छा नहीं, बदले में कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं, आत्मविलोपी और लिया हुआ संकल्प पूरा करने के लिए अपना घर, व्यापार छोड़ने वाला व्यक्ति संघ का स्वयंसेवक है। उसके कारण यह संभव हुआ।
लेखक विश्व हिन्दू परिषद के महामंत्री हैं

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