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रूढ़ियां टूटीं, स्वीकार्यता बढ़ी

by WEB DESK
Mar 16, 2021, 04:48 pm IST
in संघ
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राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक त्रिवेणी ने संघ के विस्तार को गति दी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने आपातकाल का विरोध कर, जे.पी. आंदोलन को सहयोग देकर, श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन चलाकर और विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ प्रदर्शन कर अपनी ताकत का एहसास कराया और संघ को आगे बढ़ाया

उन्नीस सौ सतहत्तर से 2005 तक का भारत एक ऐतिहासिक दौर का भारत है। आपातकालीन तानाशाही की त्रासदी को परास्त कर गैर-कांग्रेसवाद के गर्भ से जन्मे विकल्प की यह परीक्षा का काल था। गैर-कांग्रेसवाद के प्रारंभ की कहानी तो 1977 के एक दशक पूर्व प्रारंभ होती है, जब 1967 के चुनावों के बाद भारत की राजनीति में एकदलीय वर्चस्व टूट कर ‘संविद’ सरकारों का दौर प्रारंभ हुआ था। ‘गैर-कांग्रेसवाद’ एक निषेधात्मक विचार था उसमें से रचनात्मक या सृजनात्मक विकल्प उत्पन्न करना न केवल कठिन था वरन् लगभग असंभव भी था। तब पं. दीनदयाल उपाध्याय ने बार-बार इस दिशा में तत्कालीन नेतृत्व को सावधान भी किया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस विचार सरणि का प्रतिनिधित्व करता था, दीनदयाल जी उसी सरणि का व्याख्यायन राजनीति के क्षेत्र में करते थे। समाजवादी नेता डॉ़ राम मनोहर लोहिया भी भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निकट आए थे। वे भारतीय जनसंघ के स्वाध्याय शिविर में दिनभर रहे तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा वर्ग में भी आए। दीनदयाल और लोहिया का ‘भारत-पाक महासंघ’ के विषय में साझा वक्तव्य भी आया, लेकिन दुर्दैव से दोनों ही महापुरुष लगभग एक ही साथ चले गए। 1967 से 1977 का दशक, दीनदयाल और लोहिया के अभाव से जूझता रहा। कांग्रेस को भी 1969 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने तोड़ दिया, नई कांग्रेस की स्थापना हो गई।

1971 में श्रीमती गांधी की अद्भुत विजय ने पुरानी कांग्रेस को भी गैर-कांग्रेसवाद का हिस्सा बना दिया। गैर-कांग्रेसवाद का चरित्र और नकारात्मक हो गया। देश की राजनीति अब गैर-राजनीतिक व्यक्तित्वों में अपना नायकत्व खोज रही थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एवं छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने इस शून्य को भरा। समाजवादी युवजन सभा ने भी इसमें किंचित भूमिका निभाई। एक गैर-राजनीतिक नेता के रूप में बाबू जयप्रकाश नारायण 1973-74 के छात्र आंदोलन के नायक बने। इस आंदोलन के पीछे लोगों ने राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ की शक्ति को महसूस किया। तत्कालीन सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने जे़ पी. को संत की उपाधि से विभूषित किया। जयप्रकाश नारायण ने कहा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे आंदोलन का हरावल दस्ता है। भ्रष्टाचार विरोधी इस गैर-राजनीतिक छात्र आंदोलन को जे़ पी़ ने ‘समग्र क्रांति’ का मंत्र दिया। श्रीमती गांधी का सिंहासन डोलने लगा। उन्होेंने लोकतंत्र को ग्रसित करने वाली तानाशाही आपातकाल के रूप में देश पर आरोपित कर दी।
1975 से 1977 की तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई ने गैर-कांग्रेसवादी राजनीतिक नेतृत्व को बाध्य कर दिया कि वे एक दल के रूप में संगठित हों। संकट ने उन्हें एक दल ‘जनता पार्टी’ बना दिया, लेकिन संकट टलते उसकी नकारात्मकता उभर कर सामने आई। वृद्ध जे़ पी़ स्वर्ग सिधार गए। जनता पार्टी का प्रयोग विफल हुआ, वह टूट गई। श्रीमती गांधी पुन: सत्ताधिष्ठित हुईं।

इस पूरी कहानी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा। आपातकाल के संघर्ष में उसकी निर्णायक भूमिका थी। 1973 में प़ पू़ श्रीगुरुजी के अवसान के बाद श्री बाला साहब देवरस ने संघ का सरसंघचालकत्व संभाला। यह एक संक्रांतिकाल था। आद्य सरसंघचालक डॉ़ हेडगेवार भारत की आजादी के आंदोलन की उपज थे, आजादी का तत्कालीन स्वर राजनीतिक था। द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी एक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विभूति थे। तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहब के नेतृत्व का स्वर सामाजिक था। उनके नेतृत्व में ‘सेवा भारती’ एवं ‘सामाजिक समरसता’ के स्वर को मुखरता प्राप्त हुई। ऐतिहासिक वसंत व्याख्यानमाला में उन्होंने ‘हिन्दू समाज व्यापी रोटी-बेटी व्यवहार’ का आह्वान किया। यह हिन्दू समाज की विवाह संस्था को जातिनिरपेक्ष बनाने का आह्वान था। बाला साहब ने कहा, ‘यदि छुआछूत पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है।’ सामाजिक समरसता मंच को प्रधानता प्राप्त हुई। राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक विचार और व्यवहार की त्रिवेणी ने संघ को समाज की मुख्यधारा का विचार बना दिया। लेकिन देश की नई छुआछूतवादी राजनीति ने संघ के नाम पर ही जनता पार्टी को तोड़ दिया। 1980 में भारतीय जनता पार्टी के रूप में एक नवीन राजनीतिक दल की स्थापना हुई। ‘गांधीवादी-समाजवाद’ की अनुभव-यात्रा के बाद 1985 में पुन: वह ‘एकात्म मानववाद’ के वलय में आ गई। परिणामत: 1989 में भाजपा पुन: संसद में नम्बर दो की पार्टी बनकर उभरी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जिन-जिन संगठनों में कार्य करते थे वे सभी संगठन देश में निर्णायक महत्ता प्राप्त कर चुके थे। अ़ भा़ विद्यार्थी परिषद् देश का सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन बन चुका था, भारतीय मजदूर संघ भी साम्यवादी एवं समाजवादी संगठनों से श्रमिक क्षेत्र में आगे बढ़ गया था। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के नेतृत्व में भारतीय किसान संघ का भी कार्य प्रारंभ हो चुका था। विश्व हिन्दू परिषद् का भी संत-संन्यासियों एवं उपासनागृहों में महत्वपूर्ण स्थान बन गया था। 1973-74 के बाद 1980-90 के दशक में राम जन्मभूमि आन्दोलन राष्टÑीय जन को झकझोरने वाला सिद्ध हुआ। इस आंदोलन के पीछे भी लोगों ने संघ की शक्ति को महसूस किया। राम जन्मभूमि आंदोलन के समय ही एक नई वैश्विक परिस्थिति हमारे देश की राजनीति पर दस्तक दे रही थी। भू-मंडलीकरण की हवा तथा डब्ल्यू़ टी़ ओ. की स्थापना की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। वित्तमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह ने डब्ल्यू़ टी़ ओ. की स्थापना के पहले ही भू-मंडलीकरण का वरण किया तथा भारत के बाजार को विदेशी बहु-राष्टÑीय कंपनियों को बेच देने का उपक्रम रचा। देश में इसकी गहरी प्रतिक्रिया हुई। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के नेतृत्व में ‘स्वदेशी जागरण मंच’ की स्थापना हुई। भू-मंडलीकरण एवं बहु-राष्टÑीय विदेशी कंपनियों के खिलाफ प्रखर आंदोलन हुआ। संघ ने इसमें प्रत्यक्ष सहभागिता की।
1996 का महानिर्वाचन हुआ। कांग्रेस पराजित हुई। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में संसद में उभरी। श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार केवल 13 दिन रही। गैर-भाजपा दलों के सहारे पहले एच. डी. देवगौड़ा और फिर आई. के. गुजराल प्रधानमंत्री बने। ये दोनों करीब दो वर्ष ही सरकार चला पाए। 1998 में आम चुनाव हुआ। एक बार फिर से भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और अटल जी प्रधानमंत्री बने। सही मायने में प्रथम गैर-कांग्रेसी तथा स्वयंसेवक प्रधानमंत्री देश को प्राप्त हुआ।
भाजपा ने एऩ डी़ ए़ की सरकार चलाई। स्वयंसेवक का नेतृत्व होने के बावजूद यह एक विचारधारा और दल की सरकार नहीं थी। एन.डी.ए. का जो न्यूनतम कार्यक्रम बना उसमें राम जन्मभूमि का मुद्दा भी नहीं था। हां, श्री वाजपेयी के नेतृत्व में भारत आणविक शक्ति संपन्न देश बना। श्री वाजपेयी की छह साल की सरकार ने सामान्यत: अच्छा कार्य किया था लेकिन 2004 के निर्वाचन में वह पराजित हो गई।1990 से 2004 तक का काल बहुत गहमागहमी का काल था। युगांतकारी घटना के रूप में बाबरी ढ़ांचे का ध्वंस देखा। संघ पर एक बार पुन: प्रतिबंध तथा भाजपा की तीन राज्य सरकारों को बर्खास्त होते हुए देखा। भारत को विश्व व्यापार संगठन के सामने शरणागत होते देखा। इस गहमागहमी में संघ अपनी सैद्धांतिक निष्ठा के साथ अविचल खड़ा रहा तथा अपनी सार्थक भूमिका भी निभाता रहा। राष्टÑवाद बनाम छद्म पंथनिरपेक्षता में देश का वैचारिक ध्रुवीकरण हो गया था। इस काल में श्री बाला साहब देवरस और श्री रज्जू भैया ने नेतृत्व प्रदान किया। संघ की शाखा के साथ ही विविध आयामों में स्वयंसेवक की निर्णायकता स्थापित हुई।
दसों दिशाओं में जाएं दल बादल से छा जाएं

उमड़-घुमड़ कर इस धरती को नंदनवन सा सरसाएं
यह गीत न केवल संघ में गाया गया, वरन् उसे समुचित व्यवहार भी दिया गया। बाला साहब देवरस जी ने संघ में सामूहिक नेतृत्व की भावना को साकार किया। हिन्दू की व्यापक और रूढ़िगत परिभाषाओं पर विमर्श हुआ। गणवेश बदली गई। संघ शिक्षा वर्गों के दिवस क्रमश: कम किए गए। प्रदेश और क्षेत्रों का पुनर्गठन हुआ। रज्जू भैया ने 2000 में अपने स्वास्थ्य के कारण से अवकाश ग्रहण कर लिया और माननीय सुदर्शन जी को सरसंघचालकत्व की कमान सौंप दी।
(लेखक प्रसिद्ध चिंतक और एकात्म मानव दर्शन प्रतिष्ठान के निदेशक हैं)

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