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विवेकानंद पथ पर बढ़ते कदम

by WEB DESK
Mar 16, 2021, 04:32 pm IST
in संघ
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राष्ट्र को सबल और समर्थ बनाकर नित नई ऊंचाइयों पर ले जाने में जुटा है संघ

संघ अपने स्थापना काल से समाज को संगठित करके राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने के जिस उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा है, आज 90 वर्ष की यात्रा के बाद भी वह ध्येय धुंधलाया नहीं है। संगठन, सेवा और स्वधर्म गौरव का जो भाव स्वामी विवेकानंद ने प्रकट किया था उसी से प्रेरणा आज 35 संगठन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू राष्ट्र के उदय से जुड़ा जीवन लक्ष्य है- यह परिभाषा श्री दादाराव परमार्थ ने प्रतिपादित की थी जो 1940 के दशक के पूर्वार्द्ध में दक्षिण क्षेत्र में संघ विस्तार का कार्य कर रहे थे। जब उनसे संघ का अर्थ पूछा गया तो जवाब में उन्होंने यह उत्तर दिया था। दादाराव परमार्थ का व्यक्तित्व उन संघ-मूल्यों के आधार पर विकसित हुआ था जो उन्होंने संघ संस्थापक डॉ़ हेडगेवार के घनिष्ठ साहचर्य में काम करते हुए आत्मसात किए थे। उनके सारगर्भित काव्यात्मक मंत्र में राष्ट्र का मूल विचार, उसकी अभिलाषा, उसका इतिहास आदि सब कुछ समाहित था। इसमें रा. स्व. संघ और राष्ट्र के बीच अलौैकिक गठबंधन की बात कही गई है। वे कहते हैं कि परंपरागत तौर पर संघ एक संस्था मात्र नहीं, बल्कि राष्ट्र का महत्वपूर्ण अंग है। हिंदू राष्ट्र में रा. स्व. संघ का उदय एक स्वाभाविक और चैतन्य प्रक्रिया थी।

संघ-स्वाभाविक विकास
एक राष्ट्र का जीवन लक्ष्य क्या होता है? हमारे प्राचीन ऋषियों ने पवित्र ग्रंथों में सुस्पष्ट किया है: ‘क्रण्वंतो विश्वमार्यम'(विश्व को श्रेष्ठ बनाना),’सर्वेपि सुखिन: संतु’। उनके शब्द हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को इंगित कर रहे थे। परंतु किसी कारणवश लक्ष्य प्राप्ति की इस यात्रा में बाधा आ रही थी, जिसे दूर करने के लिए राष्ट्र में एक प्रभावशाली और मजबूत संगठन तैयार हुआ। इस चेतना को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम दिया गया। अत: रा. स्व. संघ राष्ट्र के क्रमिक विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है। यही कारण है कि अस्तित्व में आने के बाद से यह संगठन निरंतर उत्थान की ओर बढ़ रहा है। इस तथ्य को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें 90 वर्ष पूर्व विजयादशमी पर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के कहे गए शब्दों पर गौर करना होगा। उनके शब्दों की शाश्वत दृढ़ता और महत्ता पवित्र वैदिक मंत्रों जैसी पावन है। उन्होंने सरल लहजे में कहा था, ”आज संघ की शुरूआत हो रही है।”उन्होंने यह नहीं कहा कि आज मैं, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, संघ की शुरूआत कर रहा हूं या हम संघ की शुरूआत कर रहे हैं। अत: मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि डॉ़ हेडगेवार के नेतृत्व में युवाओं के एक समूह ने संघ की शुरूआत (स्थापना) की। डॉक्टर जी के कर्म में कभी कर्ता होने का अहं नहीं रहा। श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार, किसी व्यक्ति का कर्म तभी कर्मयोग कहलाता है जब वह ‘कर्ता’ की अहमन्यता से मुक्त हो। संघ की स्थापना का बुनियादी दर्शन यही है।

एक उत्कृष्ट संगठन
संघ का मुख्य लक्ष्य वर्गभेद और सीमाओं में उलझे बगैर समस्त विश्व के कल्याण और हित पर केंद्रित है। लेकिन संघ या डॉक्टर जी ने कभी इसका ढिंढोरा नहीं पीटा। संघ के गठन के समय नागपुर के मोहिते के बाड़े में ली गई प्रतिज्ञा में देश के समाज को संगठित कर ‘परम वैभव’ की प्राप्ति की बात कही गई थी। इसी लक्ष्य के लिए रोजाना एकत्रित होने की एक सरल और आडंबररहित योजना तैयार की गई जो आज एक महान संगठन बन चुकी है।
संघ की शक्ति के दिव्य स्वरूप को समझने के लिए एक तुलनात्मक विश्लेषण आवश्यक है। लेकिन विश्व में संघ जैसा अन्य कोई संगठन नहीं, इसलिए समग्र तुलनात्मक आकलन संभव नहीं है। फिर भी, केरल की असाधारण हालात को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का उदय 1920 के दशक में हुआ था। इसी दौरान संघ भी अस्तित्व में आया। कम्युनिस्ट दलों के लक्ष्यों से सभी परिचित हैं। उनका दावा है कि उनका जन्म इतिहास में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए हुआ है, वृहद् वैश्विक कल्याण से जुड़ा उनका नारा है-हमारा लक्ष्य हमारे देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं। वे दूसरों के विचारों का मजाक उड़ाते हैं मानो वामपंथ प्रगति का पर्याय है। उनके अनुसार वामपंथ एकमात्र विवेकशील विचारधारा है।
इस बीच, मजबूती के साथ उभर रहे संघ ने युवाओं एवं बच्चों को एकजुट करके उन्हें राष्ट्रहित के कायार्ें में लगाने का निर्णय लिया ताकि उनमें राष्ट्रीयता की भावना पैदा हो। इस तरह संगठन में ज्ञान और ऊर्जा के प्रवेश की भूमिका तैयार हुई। संघ ने सभी देशों के एक होने का आह्वान कभी नहीं किया; न ही दुनिया में क्रांति लाने की चुनौती ली। स्वयंसेवकों का मंत्र था कि दूसरों को बदलने से पहले हमें अपने आप को बदलना होगा। वे यह बात दोहराते कि अगर हम अपने जीवन और विचार में परिवर्तन लाते हैं, तो समाज में स्वत: बदलाव आ जाएगा।
एक तरफ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एम़ एऩ रॉय एवं रजनी पाम दत्त का नेतृत्व था और दूसरी तरफ डॉ़ हेडगेवार थे, एक आम इनसान, लेकिन देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत। जहां उन्हें (एम़ एऩ रॉय एवं रजनी पाम दत्त को) संयुक्त राज्य अमेरिका की धुर विरोधी तत्कालीन महाशक्ति सोवियत संघ का प्रश्रय प्राप्त था, वहीं डॉ. हेडगेवार के पास एक बस्ती तक का समर्थन नहीं था। कम्युनिस्ट पार्टी ने पाउंड और रूबल्स में सहायता हासिल करके अथाह पूंजी इकट्ठी कर ली थी। जबकि बेहद गरीब घर में पैदा हुए डॉ़ हेडगेवार की एकमात्र पूूंजी थी, उनकी मजबूत इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास।
बच्चों के एक समूह के साथ शुरू हुआ संघ बड़े दावों का प्रदर्शन किए बगैर आज महान संगठन का रूप ले चुका है, जो वैश्विक द्वंद्वों को सुलझाने की क्षमता रखता है। आज यह राष्ट्र पुनर्निर्माण के कार्य में लगा है। वहीं, ईश्वर की बजाय खुद के इस ब्रह्मांड की केंद्रीय शक्ति होने का दावा करने वालों को इतिहास कूड़ेदान में फेंक चुका है।
सच यह है कि आज रा. स्व. संघ अंतरराष्ट्रीय समाजशास्त्रियों एवं विशेषज्ञों के लिए चमत्कार की तरह है। वे अब संघ की असाधारण प्रगति के कारणों का पता लगाने के प्रयास में लगे हैं। कोनराड एल्स्ट की ‘द सैफ्रन स्वास्तिका’ एवं वाल्टर के़ एंडरसन एवं श्रीधर दामले की ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रन’ इन्हीं शोध प्रयासों का नतीजा हैं।

संघ का सफलता सूत्र
संघ का सफलता सूत्र क्या है, इसके लिए संघ के विकास और लक्ष्य प्राप्ति से जुड़ी उसकी पृष्ठभूमि की जानकारी हासिल करना जरूरी है। देश की तात्कालिक परिस्थितियों के व्यापक विश्लेषण के बाद डॉक्टर जी ने अपने समकालीनों के साथ संघ से संबंधित विमर्श शुरू किया। उन्होंने राष्ट्र के समक्ष खड़ी समस्याओं का आकलन किया, उनकी पहचान की और समाधान के नए सूत्र एवं कारगर उपाय सामने रखे।
समस्या के कारण थे-(1) राष्ट्र के अस्तित्व संबंधी विचार का अभाव (2) देशभक्ति का अभाव (3) अपनी अस्मिता के एहसास का अभाव (4) व्यक्ति और समाज के बीच संबंधों का अभाव (5) समाज की समस्याओं का समाधान करने की जिम्मेदारी का अभाव, और (6) समाज को एक इकाई मानने की जागरूकता का अभाव।
समय बीतने के साथ, समस्याओं के बादलों से घिरे भारत पर यूरोपीय लोगों का कब्जा हो गया। प्रचलित मिथकों के विपरीत इस पक्षाघात की वजह पश्चिम की फतह या राज नहीं था। अत: डॉक्टर जी इस नतीजे पर पहुंचे कि बुनियादी कमजोरी को दूर करना सबसे जरूरी है।
इस दिशा में एक सुगठित, सभ्य, सुदृढ़, त्रुटिहीन एवं समतावादी समाज का गठन सबसे पहली जरूरत थी, जिसके जरिये राष्ट्र ‘परम वैभव’ प्राप्त करे और समस्त विश्व एक बार फिर सनातन हिंदू दर्शन को अंगीकार करे। इस स्वप्न को साकार करने के लिए सकारात्मक विचारों वाले देशप्रेमी युवाओं या स्वयंसेवकों की जरूरत थी जो एक समर्पित जीवनादर्श का पालन करें। स्वयंसेवकों का समर्पित जीवन ही राष्ट्र की समस्याओं के निवारण की औषधि है। शाखा कार्यक्रम इसी औषधि के निर्माण की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से गुजरने वाला व्यक्ति आदर्श स्वयंसेवक बनता है और देश की चुनौतियों को सुलझाने में जुटता है। संघ के दो लक्ष्य हैं-(1) शाखा के माध्यम से स्वयंसेवक तैयार करना (2) स्वयंसेवकों के जरिये समाज को संगठित करना।
समाज में इस बदलाव के सफल बीजारोपण के लिए शाखाओं में स्वयंसेवकों में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के गुण बोए जाते हैं। इस दिशा में सबसे पहले जो दृष्टिकोण विकसित होता है, उसे सत्य दृष्टि कह सकते हैं। ‘भारत एक है; भारतभूमि की मिट्टी का प्रत्येक कण मेरे लिए पवित्र है। मैं और कुछ नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र का एक अंग मात्र हूं। समाज और मेरे बीच अनूठा अद्वितीय संबंध है।’ इसी दृष्टिकोण के कारण स्वयंसेवक अस्तित्व से जुड़े उस प्रश्न के भाव को समझ पाते हैं-कि मैं कौन हूं?
दूसरा है सहानुभूति का भाव। जब हम इस गहन भाव को समझ लेते हैं कि समाज और हम एक हैं, तब समाज के प्रत्येक व्यक्ति की समस्या और प्रसन्नता हमारी अपनी हो जाती है। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने लाहौर में अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, ”आप तभी एक हिंदू हैं जब अन्य किसी की पीड़ा से आपके हृदय में वैसी ही दुख की लहर दौड़ जाती है, जैसी कि अपने पुत्र को तकलीफ में देखकर होती है।” (स्वामी विवेकानंद समग्र, खंड 3, कोलम्बो से अल्मोड़ा तक के संभाषण)। शाखा में निरंतर दी जा रही शिक्षा से स्वयंसेवक सच्चे हिंदू बनेंगे, जैसी कि स्वामी विवेकानंद ने कल्पना की थी।
तीसरा बोध, समाज के सामने खड़ी समस्त चुनौतियों के निवारण की जिम्मेदारी हमारी है। इसलिए समस्या चाहे कितनी भी जटिल हो, उसकी जिम्मेदारी लेने की हिम्मत विकसित करनी होगी। इस समझ के साथ स्वयंसेवक विभिन्न क्षेत्रों में बिना किसी बाहरी आकर्षण के सेवा गतिविधियों से जुड़े रहते हैं। इस प्रेरणा के साथ कि परिवर्तन ‘प्रथम पुरुष’ या मुझसे ही शुरू होता है, स्वयंसेवक अपनी रुचि व क्षमता के अनुसार सेवा क्षेत्र, शिक्षा, अकादमिक, कला, विज्ञान आदि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ते हैं।
इस दिशा में चौथा पक्ष व्यवहार से जुड़ा है। एक ही लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में एक ही समय में अनेक लोग प्रयास करते हैं। इसलिए उन्हें एक इकाई समझकर आगे बढ़ना और उस प्रयास को सारगर्भित व समग्र संवाद के तौर स्वीकार करना जरूरी है। अत: संघ एक सशक्त संगठन, समाज के एक मजबूत ढांचे के तौर पर सफल रहा है।
पांचवां लक्ष्य है कि स्वयंसेवक शुद्ध आत्मा का स्वामी हो। यह चौथे पक्ष का ही एक भिन्न रूप है। हमारे समाज में संघ द्वारा प्रस्तुत मंचों से इतर कई व्यक्ति एवं संगठन ऐसे हैं जो राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रमों से जुड़े हैं। संघ और स्वयंसेवकों ने कभी दावा नहीं किया कि वे राष्ट्रीय लक्ष्य की दिशा में काम करने वाले एकमात्र संगठन हैं। स्वयंसेवक स्वभावत: ऐसे लोगों को एकजुट करने में भूमिका निभाते हैं जो अपनी असाधारण सेवाएं देश को दे रहे हैं। उन्हें राष्ट्रीय नवचेतना के मंच पर आगे लाने का प्रयास किया जाता है।
इसके बाद आता है छठा पक्ष-नैतिकता- ‘सुशीलम जगद्येन नम्रम भवेद्’ -स्वयंसेवक वे हैं जो समस्त विश्व में वंदनीय आदर्श चरित्र को अपने व्यक्तित्व में ढालने की आकांक्षा रखते हैं। जहां तक संघ का प्रश्न है, यह सबसे महत्वपूर्ण गुण है जिसके बिना कोई व्यक्ति किसी कार्य में कहीं सफल नहीं हो सकता। संघ पश्चिम के ‘अंत भला तो सब भला’ का हिमायती नहीं है। संघ का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि हमारे साधन भी उतने ही पवित्र होने चाहिए जितना की लक्ष्य। संघ बार-बार कहता है कि शुचिता, नैतिकता एवं आदर्श जैसे गुणों का सिर्फ निजी जीवन में ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन मेें भी पालन होना चाहिए।
सातवां पक्ष, समाज को पूर्णत: संगठित करने से जुड़ा है। डॉ. हेडगेवार कहते हैं, ”हमारा संगठन समाज में नहीं, बल्कि समाज से बना है।” इसीलिए संघ समाज एवं संगठन के समन्वय की बात कहता है जो प्रत्येक स्वयंसेवक का प्रेरणा सूत्र है। संगठन वह शक्ति है जो शाखा यानी उसके गर्भ से प्रस्फुटित होती है और समूचे समाज को शामिल कर राष्ट्र को आच्छादित कर लेती है। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक शिष्य अलसिंघ पेरुमल को लिखे पत्र में कहा है, ”संगठन के साथ आगे बढ़ते जाओ, और कुछ जरूरी नहीं है, केवल प्रेम-गांभीर्य-धैर्य जरूरी है। प्रेम ही जीवन है, और स्वार्थ मृत्यु।”
स्वामीजी ने बेहद उत्साह के साथ एक ऐसे संगठन की इच्छा व्यक्त की थी जो राष्ट्र व्यापी होता- उन्होंने कहा है: ”मध्य भारत में एक नगर बनाने की वृहद योजना है, जहां आप अपने विचारों का स्वतं़त्रतापूर्वक पालन कर सकें, फिर एक छोटा उत्प्रेरण सभी को उत्प्रेरित कर देेगा। इसी दौरान एक केंद्रीय समिति का गठन करें जिसकी शाखाएं समस्त भारत में फैलें। अभी केवल धर्म के आधार पर शुरूआत करें और तीखे सामाजिक सुधारों से जुड़े विचारों का उपदेश देने से फिलहाल परहेज करें; मूर्खतापूर्ण अंधविश्वासों को बढ़ावा न दें। शंकाराचार्य, रामानुज एवं चैतन्य जैसे महापुरुषों के बताए प्राचीन सार्वभौमिक निर्वाण एवं समता के विचारों को समाज में पुनर्जाग्रत करने का प्रयास करें।”

उत्तरोत्तर बढ़ता प्रभाव
एक छोटा उत्प्रेरण सभी को उत्प्रेरित कर देेगा-स्वामीजी के इस प्रस्ताव से लोगों पर चमत्कारी प्रभाव पड़ा। संघ द्वारा किए गए कार्य भी यही उत्प्रेरण जगा रहे थे। तरंग ऊर्मिका सिद्धांत के अनुसार, पानी की सतह पर उठने वाली लहर एक के बाद एक तट की ओर तेजी से दौड़ती है। इस संदर्भ में शुरूआती तरंगें संघ की शाखाओं से उठती हैं, जहां से शिक्षा प्राप्त करके प्रत्येक स्वयंसेवक अपने क्षेत्र में परिवर्तन लाने में जुट जाता है। उसके प्रयास उसके परिवार, कार्यक्षेत्र एवं सामाजिक जनजीवन को बदलने लगते हैं। अंतत: शाखाओं में समन्वित लाखों स्वयंसेवकों के प्रयासों से परिवर्तन के नए युग का आगाज होता है। इस दिशा में दूसरी लहर शिक्षा, सांस्कृतिक केंद्रों एवं सेवा आधारित गतिविधियों से ग्रामीण जनजीवन को समृद्ध बनाने की प्रतीक है। पिछले 90 वषार्ें का इतिहास ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा है।
इसके आलावा, सेवा एवं उदार कायार्ें से जुड़े वृहद संगठनों से बड़ी लहरें उठती हैं। पूजनीय डॉक्टर जी की जन्मशती पर गठित सेवा विभाग के अंतर्गत 1,65,000 विभिन्न गतिविधियां चल रही हैं। यह कार्य शहरी झोपड़पट्टियों से वनवासी क्षेत्रों तक के बंधुओं तक, अनेक क्षेत्रों में फैला है। इसके बाद यह लहर समाज को छूती है और नया रूप लेती है। समाज में संघ अपने सिद्धांत के पांच प्रमुख घटकों के तहत काम करता है-ग्राम विकास, गो-सेवा, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन एवं धर्म जागरण समन्वय। इस प्रकार, स्वयंसेवकों के अथक प्रयासों से समाज का हर वर्ग नवचेतना के युग में प्रवेश करता है ।

प्रगतिशीलता का गुण
विचारों को साकार रूप देने के लिए स्वामी जी ने जिस स्वतंत्र क्षेत्र की स्थापना की बात कही थी, उसी की तर्ज पर संघ की प्रेरणा से विभिन्न केंद्रीकृत संगठनों की भी स्थापना हुई। स्पष्ट है कि यह विस्तार वास्तव में प्रगतिवादी है। प्रत्येक विविध क्षेत्र समय, परिस्थितियों एवं जरूरत से जुड़ा स्वाभाविक विकास है। इस दिशा में आज शिक्षा से लेकर रोजगार, संस्कृति से लेकर विज्ञान, अर्थशास्त्र से लेकर राजनीति तक के क्षेत्रों में 35 संगठन कार्यरत हैं। इसके अलावा, संघ समान लक्ष्यों के लिए काम कर रहे विभिन्न व्यक्तियों व संगठनों के साथ भी समन्वय करता है।
संघ कार्य के वैज्ञानिक आधार को इससे बेहतर तरीके से समझाना संभव नहीं है। अपनी मजबूत वैचारिक बुनियाद के आधार पर, 90 वर्ष पूरे होने के बाद भी संघ नित नई ऊंचाइयां छू रहा है और नई ऊर्जा और उत्साह के साथ आगे बढ़ रहा है। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ हिंदू राष्ट्र के अपने बुनियादी लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर बढ़ रहा है जो विचार खुद इस देश की इच्छाशक्ति से जाग्रत हुआ है।
(लेखक रा. स्व. संघ के अखिल भारतीय सह-प्रचार प्रमुख हैं)

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