पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन की लहर चल रही है। यही कारण है कि टिकट मिलने के बावजूद सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। जिनको अपनी पार्टी का टिकट नहीं मिलता है, वे पार्टी छोड़ते हैं, लेकिन बंगाल में उल्टा हो रहा है। हार का डर ही है, जो ममता को मंदिरों की देहरी तक जाने के लिए मजबूर कर रहा है
गत 10 मार्च को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से उम्मीदवारी का पर्चा भरने से पहले और बाद में लगभग 10 मंदिरों में मत्था टेका। जो ममता इससे पहले न के बराबर मंदिर जाती थीं, वह अनेक मंदिरों में पूजा कर रही हैं। जो ममता पहले मजारों और मस्जिदों में शान से जाती थीं, अब वह वहां जाने से बच रही हैं। यहां तक कि ममता अपने भाषणों में कह रही हैं, ‘‘वे हिंदू हैं और ब्राह्मण भी।’’
लगातार 10 साल तक तुष्टीकरण की राजनीति करने वालीं ममता का यह मन परिवर्तन यह बताने के लिए काफी है कि बंगाल में चुनाव का क्या हाल है। ममता को अहसास हो गया है कि अब बंगाल के लोग उन्हें वैसा भाव नहीं दे रहे हैं, जैसा कि 2011 और 2016 में दिया था। यही कारण है कि उन्होंने 10 मार्च की शाम को अपने पैर पर चोट लगने को किसी साजिश का हिस्सा बता दिया, ताकि बंगाल के लोगों में अपने प्रति सहानुभूति पैदा की जाए। लेकिन बंगाल में जो चुनावी हवा बह रही है, वह उनके लिए शुभ नहीं दिख रही है।
इन दिनों पश्चिम बंगाल में चुनावी चर्चा में त्रिपुरा की भी बात आ ही जाती है। लोग यह कहते दिख रहे हैं राज्य में भाजपा को त्रिपुरा जैसी सफलता मिल जाए, तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसलिए पहले त्रिपुरा की ही बात। उल्लेखनीय है कि 2018 में त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव में भाजपा ने जो जीत हासिल की थी, उससे बड़े-बड़े चुनावी पंडित दंग रह गए थे। लगातार पांच कार्यकाल तक सत्ता में रही माकपा को परास्त कर भाजपा ने त्रिपुरा में सत्ता पर कब्जा कर लिया था। यही नहीं, उसने अपना मत प्रतिशत भी एक (2013 में यही था) से बढ़ाकर 42.5 प्रतिशत कर लिया था। भाजपा की इस जीत ने उस धारणा को भी समाप्त कर दिया, जिसमें कहा जाता था, ‘‘बंगाली मानसिकता अनिवार्यत: ‘वाम-समर्थक उदारवादी’ है और इसीलिए भारत के कुछ पूर्वी राज्यों में भाजपा की चुनावी संभावनाएं हमेशा सीमित रहेंगी।’’ बंगाल में भी यह धारणा ध्वस्त होती दिख रही है।
उनीशे हाफ, एकुशे साफ
गत 7 मार्च को कोलकाता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में भारी भीड़ उमड़ी। इस रैली ने साफ संदेश दे दिया है कि भाजपा राज्य के मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने में सफल हो रही है। प्रधानमंत्री ने कहा कि तृणमूल कांग्रेस ने अपने राज में जो कीचड़ फैलायी है, उसी कीचड़ में कमल खिल रहा है। उल्लेखनीय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 41 प्रतिशत वोट प्राप्त करने के साथ 18 संसदीय क्षेत्रों में जीत हासिल की थी। इसके बाद नारा आया, ‘उनीशे हाफ, एकुशे साफ।’ मतलब 2019 में तृणमूल की ताकत आधी रह गई जो 2021 में खत्म हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने रैली में कहा भी, ‘‘टीएमसी का खेल खत्म।’’
कोलकाता के 23 वर्षीय निखिल कर्मकार भी मानते हैं कि तृणमूल का खेल खत्म होने जा रहा है। निखिल कहते हैं, ‘‘मुझे इस बात पर भ्रम हो सकता है कि पश्चिम बंगाल का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, पर इस बात पर कोई भ्रम नहीं है कि ममता बनर्जी या उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी मुख्यमंत्री नहीं बन रहे हैं।’’ बारासात निवासी नबेंदु पाल इस बात को और साफ-साफ कहते हैं, ‘‘मुझे यकीन है कि अगला मुख्यमंत्री भाजपा से होगा, क्योंकि हमारे राज्य और इसके असहाय नागरिकों को वास्तविक परिवर्तन की प्रतीक्षा है।’’
लोग मानते हैं कि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने बहुत सोच-समझकर ममता को राज्य में असल परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी दो-दो बार दी, लेकिन उन्होंने अपनी जिम्मेदारी न निभाकर राज्य को कई साल पीछे धकेल दिया है। इसके साथ ही उन्होंने तुष्टीकरण की राजनीति करके राज्य के माहौल में बहुत हद तक वैमनस्य और अलगाव के बीज बो दिए हैं। इससे आम लोग भी परेशान हैं। यही कारण है कि वे लोग परिवर्तन की राह पर निकल चुके हैं। लोग यह भी मान रहे हैं कि 2016 में जिन लोगों ने ममता के विरोध में वामपंथी दलों या कांग्रेस को समर्थन दिया था, वे लोग अब भाजपा की ओर तेजी से जा रहे हैं। भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं की मेहनत साफ दिखने लगी है। प्रदेश अध्यक्ष और सांसद दिलीप घोष, प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और प्रदेश के अन्य नेता लगातार पूरे राज्य के कार्यकर्ताओं के बीच जा रहे हैं और उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं। ऊपर से बीच-बीच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृहमंत्री अमित शाह जैसे बड़े नेताओं के दौरों से राज्य में भाजपा के कार्यकर्ताओं का हौंसला आसमान पर है। इसी हौंसले के साथ वे जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि राज्य के लोग भाजपा में अपना भविष्य देखने लगे हैं। दुर्गापुर निवासी और राजनीतिक विश्लेषक सुशांतो मैती कहते हैं, ‘‘भाजपा ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और अन्य कमजोर वर्गों के बीच भी अपनी पैठ बना ली है। सीएए कानून के जरिए मतुआ समुदाय के मतदाताओं को भी अपने पाले में लाने का प्रयास किया है। इनकी संख्या ढाई से तीन करोड़ है और वे 20-25 विधानसभा क्षेत्रों में परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। इसका फायदा निश्चित रूप से भाजपा को मिलेगा।’’
क्या हैं इन सीटों के अहम मुद्दे
बांकुरा, पुरुलिया और झाड़ग्राम की जिन सीटों पर पहले चरण में चुनाव होना है, कुछ वर्ष पहले तक ये क्षेत्र माओवादियों का गढ़ रहे हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पिछले पांच साल से यह दावा करती रही हैं कि उन्होंने इन इलाकों से माओवादियों को हटाकर शांति स्थापित की है और इन इलाकों में विकास की बयार बहाई है पर तथ्यात्मक रूप से यह बात ठीक नहीं है। न तो इस इलाके से पूरी तरह से माओवादियों का प्रभुत्व खत्म हुआ है और न ही विकास की दृष्टि से कायाकल्प हुआ है। यहां के बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खस्ता है। अंदरुनी इलाकों में जाने पर तो दूर-दूर तक कहीं विकास नजर नहीं आता। मुख्यमंत्री के रिकार्ड प्रगति के दावे पर स्थानीय लोग कहते हैं,‘‘यहां की अधिकतर सड़कें केंद्र सरकार की निधि से बनी हैं। जो राशन दिया जाता वह भी केंद्र सरकार की ही योजना है। ऐसे में राज्य सरकार क्या करती है हमारे लिए?’’
तृणमूल की रक्तरंजित राजनीति
यह वही पुरुलिया है, जहां कुछ समय पहले पंचायत चुनाव के दौरान दो भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी। इन हत्या से इलाके में भारी आक्रोश पनपा था। भाजपा ने राज्य में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था और तृणमूल को इस रक्तरंजित राजनीति के लिए जिम्मेदार माना था। अब इस इलाके में चुनाव होगा तो निश्चित ही इलाके के लोग दोनों कार्यकर्ताओं की हत्या को नहीं भूले होंगे। वे समय आने पर जरूर इसका प्रतिकार करेंगे।
खस्ताहाल रोजगार
इस इलाके की वैसे तो कई दुश्वारियां हैं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या रोजगार की खस्ता हालत है। युवा दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। रोजगार की आस में उन्हें घर छोड़कर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की ओर पलायन करना पड़ता है। जी चाहते हुए भी वे अपने गांव-परिवार में नहीं रह सकते। क्योंकि इस इलाके में ऐसा कोई भी रोजगार का साधन नहीं है, जिससे वे दो समय की रोजी-रोटी कमा सकें। लिहाजा दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं।
सीमा से होती तस्करी
झारखंड राज्य की सीमा से लगता है पुरुलिया-बांकुरा। तस्करों के लिए यह इलाका बहुत सुगम है। गोतस्करी, अवैध हथियारों का जखीरा, कोयला तस्करी एवं मानव तस्करी प्रमुख रूप से इसी रास्ते से होती है। देश के विभिन्न राज्यों से होने वाली गोतस्करी को बंगाल के रास्ते बांग्लादेश भेजने का यही मार्ग है। करोड़ों रु. के इस व्यापार में तृणमूल के क ई मंत्री और विधायक पूरी तरह संलिप्त हैं। मानव और अवैध हथियारों की तस्करी का भी यही हाल है। झारखंड से तस्करी करके लाई गईं नाबालिग लड़कियों को इसी इलाके से देश के विभिन्न राज्यों में भेजा जाता है। हालिया वर्षों में समय-समय पर रेलवे एवं अन्य विभागों की चुस्ती के चलते सैकड़ों लड़कियों को मुक्त कराया गया।
झाड़ग्राम
यह इलाका ओड़िशा की सीमा से लगता है। इस क्षेत्र में भी कोई ‘इंडस्ट्री’ नहीं है। चंूकि यह इलाका वनवासी है और माओवादियों के गढ़ के रूप में जाना जाता रहा है। हालांकि माओवादी अब नहीं रहे पर विकास आज तक यहां नहीं पहुंचा है। इलाके में कोई भी बड़ा शिक्षण संस्थान नहीं है। लिहाजा युवाओं को शुरुआत से ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें शिक्षा के लिए दुर्गापुर या भुवनेश्वर जाना पड़ता है। दूसरी बात वनवासी परिवारों के लिए भी राज्य सरकार ने कोई ठोस काम नहीं किया। उन्हें भी दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए बाहर जाकर हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। इलाके में रोजगार के रूप में रेहड़ी, सब्जी, चाय की दुकान ही उनकी आजीविका का साधन हैं।
लोकसभा चुनाव में आया मत प्रतिशत में अंतर
पश्चिम बंगाल में कुल 294 विधानसभा सीटें हैं। साल 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल को 211, वाम को 33, कांग्रेस को 44 और भाजपा को मात्र 3 सीटें मिली थीं। हालांकि 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बेहद शानदार प्रदर्शन किया। तृणमूल ने जहां 43.3 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, वहीं भाजपा को 40.3 प्रतिशत वोट मिले। भाजपा को कुल 2,30,28,343 मत मिले, जबकि टीएमसी को 2,47,56,985 मत मिले।
मेदिनीपुर
यह भाजपा में नए-नए आए सुवेंदु अधिकारी का इलाका है। यह देश ही नहीं, दुनिया में अपने नर्सरी कारोबार के लिए विख्यात है। लेकिन ममता बनर्जी न तो इसे एक पहचान दिलाने में कामयाब हुर्इं, न ही बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार देने की नीति बना सकीं। जबकि यह इलाका बहुत ही उर्वर है। इसके निकट ही हल्दिया पोर्ट है। यहां से आयात-निर्यात का सारा कारोबार होता है। नंदीग्राम भी यहीं है। ममता बनर्जी यहीं से चुनाव लड़ रही हैं लेकिन युवा उनसे खासे नाराज हैं। उनके विधानसभा क्षेत्र में ही चहुंओर रोजगार की कमी नजर आती है। साथ ही इलाके के कृषि पर निर्भर होने के बाद भी राज्य प्रशासन कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना सका, जो लोगों को सुविधा और उचित पैसा दिला सके। कुछ वर्षों में यहां के हिन्दुओं को जो सबसे ज्यादा समस्या हुई है, वह है मुस्लिमों की जनसंख्या का बढ़ना। नंदीग्राम मुस्लिमों का गढ़ बनता जा रहा है। युवा कट्टरपंथी हो रहे हैं। मस्जिदें बढ़ रही हैं। दरअसल, नजदीक ही सुंदरवन का इलाका है। बांग्लादेश के सुंदरवन से होते हुए रोहिंग्या भारत के इलाके वाले सुंदरवन में घुसपैठ करते हंै और वहां से मेदिनीपुर एवं राज्य के अलग-अलग भागों में बस जाते हैं। दुर्भाग्य से इलाके के कट्टरपंथी रोहिंग्याओं को बसाते हैं और उन्हें भरपूर मदद करते हैं।
बाहरी का मुद्दा—पड़ेगा भारी
इस चुनाव में ममता बनर्जी बाहरी बनाम बंगाली का मुद्दा का उठा रही हैं। वे लगातार भाजपा के केंद्रीय नेताओं को बाहरी कह रही हैं। और तो और, ‘भारत माता की जय’ के जयघोष को ‘हिंदी नारा’ बताया जा रहा है। मगर यह मुद्दा जितना तूल पकड़ेगा ममता को उतना ही नुकसान होगा। पश्चिम बंगाल के भद्र लोग इसे सही नहीं मानते। अब नंदीग्राम में उन्हें ही बाहरी कहा जाने लगा है। लोग यह भी कह रहे हैं कि क्या भारत के लोगों को ही भारत के किसी राज्य में बाहरी कहा जाएगा! एक बड़ा वर्ग तो यह भी कह रहा है कि जो लोग रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को बाहरी नहीं मानते, वे भारतीयों को ही बाहरी कैसे कह सकते हैं? फिर उन गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर का क्या होगा, जिन्होंने समस्त भारतीयों को पूरे देश की वंदना करने की सीख दी! भाषा के आधार पर देशभक्ति बढ़ाने वाले नारों को नकारने वालों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि वंदे मातरम् के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी के उन विचारों का क्या होगा, जिनसे प्रेरणा लेकर अनगिनत सपूतों ने मां भारती के लिए अपने जीवन को मिटा दिया और पूरा देश एकसूत्र में बंध गया!
बाहरी का मुद्दा उठाने वाले इस बात को न भूलें कि इस देश के लोग सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन प्रांत, भाषा, मजहब, रंग, खानपान जैसी संकीर्ण बातों के आधार पर देश को बांटने वालों को कभी माफ नहीं करते…
महिलाओं के बीच बढ़ी भाजपा की स्वीकार्यता
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की पश्चिम बंगाल में महिलाओं के बीच काफी स्वीकार्यता बढ़ी है। कई महत्वपूर्ण महिला नेता और सिने अभिनेत्रियां भाजपा में शामिल हुई हैं। टेलीविजन धारावाहिक ‘महाभारत’ में द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली रूपा गांगुली और अभिनेत्री लॉकेट चटर्जी पहले से ही भाजपा की सांसद हैं। रायगंज से भाजपा सांसद देबाश्री चौधरी अब केंद्र में महिला और बाल विकास राज्य मंत्री हैं। कुछ दिन पहले भी कई अभिनेत्रियां भाजपा में शामिल हुई हैं। इस कारण बंगाल की महिलाओं में भाजपा के प्रति आकर्षण बढ़ा है। इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है।
आक्रोश के कारण
मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति से जनता त्रस्त, लोग ममता को बिल्कुल पसंद नहीं कर रहे हैं।
ममता के सहयोगी रहे और अब नंदीग्राम से भाजपा के उम्मीदवार सुवेंदु अधिकारी कहते हैं, ‘‘ममता ने 10 साल तक बांग्लादेशी घुसपैठियों को राज्य में बसाने का काम किया और बंगाल को बांग्लादेश की राह पर धकेल दिया। अब बंगाल के लोग अपनी माटी को बचाने के लिए ममता का साथ छोड़ रहे हैं।’’
सीएए के कारण मतुआ समुदाय के लगभग ढाई करोड़ लोग भाजपा के साथ खड़े हो गए हैं।
करीबी ले डूबेंगे!
भाजपा बराबर यह आरोप लगा रही है कि ममता बनर्जी की शह पर उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी भारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और धन-उगाही (तोलाबाजी) का काम भी कर रहे हैं। भाजपा के इस आरोप से भले ही ममता को गुस्सा आता हो, लेकिन आम मतदाता भी मान रहे हैं कि कुछ गड़बड़ तो जरूर है। इसलिए अनेक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि अभिषेक बनर्जी को जल्दी ही ममता के ‘संजय गांधी’ के रूप में देखा जाने लगेगा, जिसे बंगाली समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। बंगाल के लोग यह भी मानते हैं कि ममता के सलाहकार ही उन्हें डुबो देंगे। सिलीगुड़ी के रमाकांतो सान्याल का कहते हैं, ‘‘डेरेक ओ ब्रायन, अभिषेक बनर्जी जैसे नेताओं की कारगुजारियों से भाजपा को ही मदद मिल रही है।’’
उल्लेखनीय है कि ममता ने पार्थो चटर्जी, शिशिर अधिकारी, सुदीप बंदोपाध्याय जैसे वरिष्ठ नेताओं को यह कहते हुए किनारे कर दिया है कि उनकी कार्यशैली की वजह से 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को कई सीटें गंवानी पड़ी थीं। इससे लोगों में संदेश जा रहा है कि ममता ने हर उस नेता को पीछे रखा है, जिसने उनके भतीजे को लेकर कभी कुछ शंका व्यक्त की हो या पारदर्शिता की अपेक्षा की हो। यही कारण है कि बड़ी संख्या में उनके सहयोगी उन्हें छोड़ रहे हैं। यह क्रम आज भी चल रहा है। इससे आम मतदाता भी ममता से दूर हो रहे हैं। यही कारण है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तरी बंगाल के साथ ही दुर्गापुर और आसनसोल जैसे कुछ इलाकों में अच्छा प्रदर्शन किया। केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को आसनसोल से लगातार दो बार (2014 और 2019) जीत मिली है। जबकि दार्जिलिंग से आए एस.एस. अहलूवालिया ने बर्धमान-दुर्गापुर में ममता के करीबी सहयोगी एम. संघमित्रा को हराया था। आसनसोल के शिक्षक झंटू डे का कहना है, ‘‘अब दक्षिण बंगाल के साथ ही उत्तरी और दक्षिणी 24 परगना जिलों और बांग्लादेश की सीमा से लगे मालदा तथा दक्षिण दिनाजपुर में भी भाजपा के उम्मीदवारों को समर्थन मिल सकता है।’’
ममता का साथ दिनेश त्रिवेदी जैसे नेता ने भी छोड़ दिया है। जमीनी स्तर पर तृणमूल के खिलाफ इतना असंतोष बढ़ रहा है कि हबीबपुर से टिकट दिए जाने के बावजूद सरला मुर्मू ने दिलीप घोष, शुवेन्दु अधिकारी और मुकुल रॉय की उपस्थिति में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, ‘‘तृणमूल कांग्रेस के लिए इससे बुरा और क्या हो सकता है कि टिकट देने के बाद भी उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और भाजपा की सदस्यता ले रहे हैं। तृणमूल के नेता अपने अपमान से इतने आहत हैं कि वे लोग पार्टी छोड़ रहे हैं।’’ तृणमूल का साथ छोड़ने वालों में एक अन्य प्रमुख नेता 80वर्षीय रबींद्रनाथ भट्टाचार्य भी हैं, जो सिंगूर आंदोलन के प्रमुख चेहरा थे। एक दौर में ममता के प्रमुख सहयोगी रहे मुकुल रॉय ने भट्टाचार्य का स्वागत करते हुए कहा कि दिग्गज नेता के इस कदम से साफ हो जाता है कि ममता बनर्जी सरकार ने उन लोगों का भरोसा किस कदर तोड़ा है, जिन्होंने उन्हें 2011 और 2016 में भारी समर्थन दिया था।
ममता का भटकाव
काफी पहले न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने कहा था, ‘‘यह दौर निर्देशित मिसाइलों और भटके हुए राजनेताओं का है।’’ उनकी यह बात ममता पर पूरी तरह लागू होती है। वह इस हद तक भटक गई हैं कि सार्वजनिक रूप से भी भाषा की मर्यादा नहीं रखती हैं। भद्र बंगाली मानुष इसे अच्छा नहीं मान रहा है। वहीं ममता भाजपा के नेताओं को ‘बाहरी’ कहती हैं, यह भी लोगों को ठीक नहीं लग रहा है।
दुगार्पुर निवासी मैती कहते हैं, ‘‘ममता एक साल पहले भी मतदाताओं बीच बेहद लोकप्रिय थीं, लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेताओं को बाहरी कहकर वे अपना ही नुकसान कर रही हैं। यह उनका भटकाव है।’’ वहीं रानीगंज के व्यापारी मोइदुल हुसैन कहते हैं, ‘‘यदि प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी के लिए वोट आकर्षित करते हैं, तो निस्संदेह ममता के नाम पर तृणमूल को वोट मिलते हैं, लेकिन अब यह संदेश जा रहा है कि उन्हें (ममता को) हराया जा सकता है। इससे मुस्लिम मतदाता घबरा गए हैं और इसीलिए वे आईएसएफ नेता अब्बास सिद्दीकी पर भरोसा करने लगे हैं।’’ हुसैन ने यह भी कहा कि कुछ ऐसे मुस्लिम-बहुल इलाके हैं, जहां तृणमूल मजबूत थी, लेकिन वहां अब वामपंथी-कांग्रेस-आईएसएफ गठबंधन प्रभाव डाल रहा है। कट्टर छवि वाले अब्बास सिद्दीकी के कारण मुस्लिम मतों का विभाजन होता दिख रहा है और इसका नुकसान केवल और केवल तृणमूल को होगा।
अब 2 मई को ही पता चलेगा कि मुस्लिम मतदाता बंटे या नहीं, पर एक बात तो साफ-साफ दिखती है कि बंगाल में ममता की राह कठिन होती जा रही है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
टिप्पणियाँ