आरोपी परवेज आलम एक नर्सिंग इंस्टीट्यूट का निदेशक है। अपना मजहब छिपाने के लिए उसने अपना नाम बबूल रखा हुआ था। वह छात्राओं के सब्र का इम्तिहान लेने के नाम पर उनके कपड़ों में हाथ डालता था और उनके निजी अंगों को छूता था
यही थी कि नर्सिंग की छात्राओं के ‘सब्र’ का इम्तिहान लेने के लिए, उनसे छेड़छाड़ और यौन शोषण करने का आरोप झारखंड के एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के निदेशक बबलू पर लगा है। खबर थी कि एनजीओ की ओर से राज्य के खूंटी जिले में चलाए जाने वाले नर्सिंग इंस्टीट्यूट की कई छात्राओं ने निदेशक पर यौन शोषण किए जाने का आरोप लगाया था। खूंटी में यह बात चल पड़ी कि झारखंड सरकार के कुछ रसूख वाले लोग इस मामले को दबाना चाहते हैं। आदिवासी छात्राओं के शोषण के मामले को आखिर हेमंत सोरेन की सरकार में क्यों दबाया जाएगा? इस प्रश्न का उत्तर बाद में स्पष्ट हुआ। बबलू का वास्तविक नाम परवेज आलम था, जो संस्थान को बबलू नाम से चला रहा था। पीड़ित छात्राओं के मुताबिक संस्थान का निदेशक परवेज आलम, छात्राओं के सब्र का इम्तिहान लेने के नाम पर उन्हें पकड़ कर अपने हाथ उनके कपड़ों में डालता था। स्थानीय मीडिया में आई खबर के अनुसार आरोपी परवेज आलम पिछले काफी समय से नर्सिंग छात्राओं को अपना शिकार बनाता रहा है।
परवेज आलम की करतूतों का खुलासा उस समय हुआ जब कुछ छात्राओं ने अपनी पीड़ा एक समाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी बाखला से शेयर की। छात्राओं की शिकायत के आधार पर लक्ष्मी ने इस संबंध में राज्यपाल को चिट्ठी लिखी।
इसके बाद बीडीओ सविता सिंह के अधीन जांच शुरू की गई और स्थानीय महिला थाने की एक टीम को भी संस्थान में भेजा गया। जांच टीम ने अपनी रिपोर्ट खूंटी एसपी आशुतोष शेखर को भेज दी है।
सविता सिंह के अनुसार — लड़कियों ने बताया कि उनके निजी अंगों को उन्होंने हाथ से छुआ। यह सब शक्ति परीक्षण के नाम पर हुआ। यह सहन शक्ति परीक्षण टेस्ट क्या है और परवेज आलम ने अकेले में यह टेस्ट क्यों किया, यह जांच का विषय है।
सविता सिंह ने यह भी कहा कि लड़कियों की उम्र कम है, उन्होंने बताया कि टेस्ट के नाम पर उनके साथ गलत व्यवहार हुआ है। सहनशक्ति परीक्षण क्या होता है, इसके संबंध में मुझे भी कोई अंदाजा नहीं है।
सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी ने राज्यपाल को जो पत्र लिखा है कि उसमें परवेज आलम के नाम का उल्लेख बबलू सर के तौर पर ही है। बाखला ने पत्र में लिखा कि बच्चियों द्वारा बताया गया कि ट्रेनिंग के नाम पर बबलू द्वारा 15 बच्चियों के साथ एक—एक कर बुलाकर छेड़छाड़ की गई। खबर लिखे जाने तक बबलू उर्फ परवेज आलम गिरफ्तार किया जा चुका है लेकिन झारखंड की सोरेन सरकार में कई लोग उसे बचाना चाहते हैं।
वैसे झारखंड में मुसलमानों द्वारा आदिवासी महिलाओं पत्नी का दर्जा दिए बिना घर में रखने की घटना मानो रिवाज बन चुका है। झारखंड की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि जैसे ही जनजातीय लड़की नर्स या शिक्षिका बनती है, कोई न कोई मुसलमान लड़का उसके पीछे पड़ जाता है।
एक से अधिक विवाह के संबंध में अपने अध्ययन के दौरान ‘इंडिया फाउंडेशन फॉर रूरल डेवलपमेन्ट स्टडीज’ ने पाया कि रांची के आसपास के जिलों को मिलाकर ऐसे एक हजार से अधिक मामले इस क्षेत्र में मौजूद हैं। इस स्टोरी पर काम करते हुए ऐसे रिश्तों की जानकारी मिली जिसमें आदिवासी लड़की को दूसरी या तीसरी पत्नी बनाकर घर में रखा गया है। परिवार में साथ रहने के बावजूद स्त्री को पत्नी का दर्जा हासिल नहीं है। समाज इन्हें पत्नी के तौर पर जानता है लेकिन उन्हें पत्नी का कानूनी अधिकार हासिल नहीं है। कई मामलों में उन्हें मां बनने से रोका गया। जनजातीय लड़कियां, गैर जनजातीय परिवार में सिर्फ ‘सेक्स की गुड़िया’ की हैसियत से रह रही हैं। यदि एक पुरुष एक स्त्री के साथ बिना शादी किए एक घर में रहता है और उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है तो इसे आप ‘लिव इन रिलेशन’ कह सकते हैं लेकिन शादी के बाद घर में दूसरी—तीसरी औरत को रखना और उसे पत्नी का कानूनी अधिकार भी न देने को आप क्या नाम देना चाहेंगे? इस रिश्ते का कोई तो नाम होगा?
झारखंड के जनजातीय समाज में अशोक भगत लंबे समय से काम कर रहे हैं। उनकी संस्था विकास भारती जनजातीय समाज के बीच एक जाना पहचाना नाम है। अशोक भगत शोषण की बात स्वीकार करते हुए कहते हैं- एक खास मजहब के लोगों को एक से अधिक बेगम रखने की इजाजत है। उन लोगों ने अपने मजहब की इस कमजोरी का लाभ उठाकर एक-एक पुरुष ने झारखंड में कई-कई शादियां की हैं। आम तौर पर ये लोग झारखंड के बाहर से आए हैं और जनजातीय लड़कियों को दूसरी, तीसरी पत्नी बनाने के पिछे इनका मकसद झारखंड के संसाधनों पर कब्जा और इनके माध्यम से झारखंड में राजनीतिक शक्ति हासिल करना भी है। पंचायत से लेकर जिला परिषद तक के चुनावों में आरक्षित सीटों पर इस तरह वे जनजातीय लड़कियों को आगे करके अपने मोहरे तय करते हैं। वास्तव में जनजातीय समाज की लड़कियों का इस तरह शोषण जनजातीय समाज के खिलाफ अन्याय है। अशोक भगत बताते हैं- रांची के मांडर से लेकर लोहरदग्गा तक और बांग्लादेशी घुसपैठियों ने पाकुड़ और साहेब गंज में बड़ी संख्या में इस तरह की शादियां की हैं।
श्री भगत इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जब इतनी बड़ी संख्या में ईसाई जनजातीय समाज की लड़कियां दूसरी और तीसरी पत्नी बनकर गैर जनजातीय लोगों के पास गई हैं लेकिन कभी चर्च ने या फिर कॉर्डिनल ने इस तरह की नाजायज शादी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। श्री भगत उम्मीद जताते हुए कहते हैं- जनजातीय समाज बेगम-जमात की चालाकियों को समझ रहा है। मुझे विश्वास है कि जनजातीय समाज इन मुद्दों पर जागेगा। आने वाले दिनों में विरोध का स्वर उनके बीच से ही मुखर होगा।
मुसलमान पति के नाम को छुपाने का मामला भी झारखंड में छुप नहीं सका है। ऐसी जनजातीय महिलाएं जिनका इस्तेमाल आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ाने में मुसलमान करते हैं, अच्छी संख्या में हैं। इन महिलाओं से चुनाव का फॉर्म भरवाते समय इस बात का विशेष ख्याल रखा जाता है कि वह अपने पति का नाम फॉर्म में न भरें। इस तरह पिता का नाम आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने वाली यह आदिवासी महिलाएं लिखती हैं। पति का नाम फॉर्म में नहीं लिखा जाता है। ऐसा एक मामला कुछ दिनों पहले रांची में चर्चा में आया था। जिसमें एक विधायक प्रत्याशी ने आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ा जबकि उसका पति मुस्लिम समाज से आता था।
खूंटी यौन शोषण मामले में पीड़ित लड़कियों में जनजातीय समाज की ईसाई लड़कियां भी शामिल हैं लेकिन चर्च पूरी तरह खामोश है। अब लड़कियों पर दबाव बनाने की बात सामने आ रही है। उन्हें अपना बयान वापस लेने को कहा जा रहा है। यदि आरोपी परवेज आलम की जगह कोई बबलू पासवान या बबलू मिश्रा होता तो इस वक्त यह झारखंड की प्रमुख खबर होती जैसे कुछ दिनों पहले झारखंड में एक चोरी के अरोपी के साथ हुई ‘लिंचिंग’ राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन गई थी क्योंकि आरोपी का नाम तबरेज अंसारी था। उसके बाद ‘लिंचिंग’ की कई घटनाएं झारखंड में ही हुई लेकिन उसकी चर्चा आवश्यक नहीं समझी गई।
पिछले दिनों इटकी के कैसर आलम ने कांके रोड़ पर रहने वाली जनजातीय समाज की लड़की को जबरन मुसलमान बनाने की कोशिश की। इस संबंध में गोंदा थाने में मामला दर्ज है। आरोप है कि कैसर आलम ने पहले जनजातीय लड़की का बलात्कार किया और शादी के लिए लड़की के सामने उसने मुसलमान बनने की शर्त रख दी।
झारखंड में जनजातीय समाज के हक की लड़ाई लड़ने वाली दर्जनों चर्च प्रेरित एनजीओ काम करती हैं लेकिन आरोपी जब मुसलमान होता है, वे सब की सब न जाने क्यों खामोश हो जाती हैं? ऐसे मामलों में चर्च भी खामोश रहता है। बहरहाल इन खामोश संस्थाओं को देखकर जनजातीय समाज को विचार करना चाहिए कि क्या चर्च के इशारे पर काम करने वाली ये एनजीओ क्या वास्तव में जनजातीय समाज के अधिकारों और आत्मसम्मान के लिए काम कर रही हैं ?
टिप्पणियाँ