कैलाश पर्वत से एशिया, यूरोप, दोनों अमेरिकी महाद्वीपों, अफ्रीका, ध्रुव प्रदेशों व आस्ट्रेलिया आदि सभी महाद्वीपों के पिरामिडों, मंदिरों, नगरों एवं अन्य स्मारकों के स्थान चयन की भू-ज्यामितीय सापेक्षता विलक्षण संयोग है
मेक्सिको में 600 ईसा पूर्व के अति विशाल सूर्य व चंद्र के पिरामिड उसी देशांतर रेखा पर स्थित हैं, जिस पर पिरामिडाकार कैलाश पर्वत स्थित है
हिमालय स्थित कैलाश पर्वत की विश्व के कई पुरावशेषों व स्मारकों से ज्यामितीय सापेक्षता व दूरियों में समानुपातिकता कोई संयोग मात्र न होकर किसी सुनियोजित प्ररचना (डिजाइन) का अंग प्रतीत होती है। कैलाश पर्वत की इस विशिष्ट भू-ज्यामितीय स्थिति के आधार पर कई विद्वान इसे ‘भू-नाभिक’ अथवा ‘एक्सिस-मुंडी’ कहते हैं। इनमें से कई पुरावशेषों की सुनियोजित सूर्याभिमुखी खगोलसिद्धता भी गहन अध्ययन का विषय है। इन स्मारकों की परिधि में प्राचीन वैदिक देवता सूर्य अर्थात् मित्र देवता के पुरावशेषों की प्रचुरता भी ईसा पूर्व की कालावधि में एक सभ्यतागत एकता का संकेत करती है।
हिमालय के उद्भव के समय से अर्थात् पांच करोड़ वर्ष से भी प्राचीन इस पिरामिडाकार कैलाश पर्वत से सुनियोजित दिशाओं व दूरियों पर एशिया, यूरोप, दोनों अमेरिकी महाद्वीपों, अफ्रीका, ध्रुव प्रदेशों व आॅस्ट्रेलिया आदि सभी महाद्वीपों में पिछली कई सहस्राब्दियों में विकसित अनेक पिरामिडों, मंदिरों, नगरों एवं अन्य स्मारकों के स्थान चयन की भू-ज्यामितीय सापेक्षता एक विलक्षण संयोग है। हजारों किलोमीटर की दूरी में फैले इन स्मारकों का कैलाश पर्वत-केंद्रित समबाहु त्रिभुज बनाना या कैलाश केंद्रित दूरियों में समानुपातिकता किसी विलक्षण व सुनियोजित प्ररचना का अंग ही कही जा सकती है।
आज के उपग्रह कैमरों के युग में भी किसी देश, प्रदेश या नगर के नियोजन में ऐसी समानुपातिकतापूर्ण भू-ज्यामितीय सापेक्षता नहीं दिखती, जैसी विशाल क्षेत्र में कैलाश केंद्रित सापेक्षता विविध महाद्वीपों में फैले पचासों पुरास्मारकों के बीच है। हजारों किलोमीटर की दूरी के बावजूद कैलाश केंद्रित दूरियों या ज्यामितीय सापेक्षता में 40-50 कि.मी. का अंतर नहीं होना भू-चुम्बकीय प्रवाहों या अन्य ऊर्जा प्रवाहों के आकलन के आधार पर ही संभव है। पृथ्वी के उत्तरी व दक्षिणी सिरों पर क्रमश: उत्तरी व दक्षिणी धु्रव स्थित हैं और वृहत्तर भारत का अंग रहा एशिया स्थित कैलाश पर्वत करोड़ों वर्षों से सुस्थिर है। शेष सभी विगत सहस्राब्दियों में योजनापूर्वक निर्मित किए गए हैं। मोहनजोदड़ो एवं अंकोरवाट (कंबोडिया) भी वृहत्तर भारत का अंग रहे हैं। मिस्र स्थित गीजा के पिरामिड और लेबनान स्थित बालबेक, एशिया के प्राचीन व संप्रदायों अर्थात् सूर्य आराधक संप्रदायों के प्राचीन केंद्र हैं। चीन के पिरामिड भी एशिया में ही हैं। रूसी नगर पर्म, वेरा द्वीप, पोर बाजिन आदि रूस में हैं। टियाटिहुआकान के सूर्य-चंद्र आदि के पिरामिड व वहां के नाग मंदिर उत्तरी अमेरिका के मेक्सिको में हैं। उलुरू की तप:स्थली आॅस्ट्रेलिया है। पेरू की ‘नाज्का लाइन्स’ बोलिविया का ‘टिवान्कु’ व ‘समयपत’ दक्षिणी अमेरिका में हैं। ‘लालीबेला’ व ग्रेट जिम्बाब्वे के पुरावशेष अफ्रीका, जबकि ‘नान मेडोल’ प्रशांत महासागर में स्थित है। इन विविध स्थलों की ईसा पूर्व काल की उस काल की प्राचीन सभ्यताओं में समरूपता भी गहन अन्वेषण व अध्ययन का विषय है।
मेक्सिको में 600 ईसा पूर्व के अति विशाल सूर्य व चंद्र के पिरामिड उसी देशांतर रेखा पर स्थित हैं, जिस पर पिरामिडाकार कैलाश पर्वत स्थित है (देखें-चित्र क्रमांक-1)। इनमें मात्र 10 किमी का अंतर है। यहां स्थित शेषनाग तुल्य क्वेट्जालकोटल नामक नाग मंदिर, सूर्य व चंद्र के पिरामिड, एक देवी मंदिर, गृह देवता तूफान के नियामक देवता आदि कई मंदिरों से युक्त 30 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस नगर की आबादी 1.5-2.5 लाख रही होगी। वस्तुत: टिआॅटिहुआकान के मंदिरों-पिरामिडों की सभ्यता का विवेचन अलग लेख की विषयवस्तु है। दूसरी ओर, मिस्र स्थित प्राचीन गीजा के पिरामिड भी कैलाश पर्वत की देशांतर रेखा के सम्मुख सापेक्ष रेखा पर स्थित है। यह कैलाश पर्वत के सम्मुख 50 डिग्री पश्चिम में देशांतर रेखा पर स्थित है, जिसके अक्षांश व कैलाश के अक्षांश में भी मात्र 1 डिग्री का ही अंतर है। इसी तरह, रूस के शहर पर्म को शीर्ष मान कर मोहनजोदड़ो व कैलाश पर्वत तक सीधी रेखाएं खींचने पर (चित्र-2) एक समबाहु त्रिभुज बनता है। उसी प्रकार, पर्म से गीजा के पिरामिड व मोहनजोदड़ो तक सीधी रेखाएं खींचने पर दूसरा समबाहु त्रिभुज बनता है। पर्म से कैलाश व मोहनजोदड़ो के बीच बनने वाले समबाहु त्रिभुज के आधार की लंबाई 1340 किमी या 12 डिग्री है, जो पृथ्वी की परिधि की ठीक 1/30 है। यह भी एक विलक्षण संयोजन है कि रूसी द्वीप वेरा को केंद्र मानकर कैलाश व मोहनजोदड़ो तक रेखा विस्तार करने पर भी समबाहु त्रिभुज बनता है (देखें चित्र 3)।
हजारों किलोमीटर में फैले ध्रुव प्रदेशों से लेकर विविध महाद्वीपों में फैले अनेक पुरास्मारकों के साथ कैलाश पर्वत की भू-ज्यामितीय सापेक्षता इन स्थलों के कैलाश सापेक्ष भू-चुम्बकीय विकीरणों के अध्ययन की आवश्यकता को भी रेखांकित करती है। इन स्थलों की सौर ज्यामिति का अध्ययन भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों, वैज्ञानिक विवेचनों एवं लोक मान्यताओं में कैलाश को भू-नाभिक कहे जाने के संदर्भ में कैलाश केंद्रित ऊर्जा प्रवाहों व कैलाश क्षेत्र के चुम्बकीय विकिरणों के अध्ययन की भी महती आवश्यकता है। यहां दिखाई पड़ने वाली प्रकाश तरंगों के पीछे नासा के वैज्ञानिकों का भी यही अनुमान है कि ये प्रकाश तरंगें वहां के आकाश में किन्हीं चुम्बकीय विकिरणों के कारण हो सकती हैं। कैलाश पर चढ़ाई का प्रयास करने वालों में तेजी से वृद्धावस्था के लक्षण दिखने के पीछे भी यहां के विशिष्ट विकिरणों का कारण हो सकता है। ऐसे अनेक रहस्य हैं, जिनके कारण या अन्य अनेक कारणों से भी कैलाश मानसरोवर को हमारे वाङ्मय में सर्वाधिक पवित्र तीर्थ कहा गया है।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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