कल 12 मार्च को क्वाड का वर्चुअल शिखर सम्मेलन होगा। इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जापान के प्रधानमंत्री योशिनिदे सुगा और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन इंटरनेट द्वारा एक दूसरे से सीधे वार्तालाप करेंगे। जिस गति से इस समूह ने संरचनात्मक प्रगति की है, वह असाधारण है। अब देखना यह है कि यह बैठक क्या ठोस परिणाम लाती है
भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार चारो नेता कई विषयों पर अपने विचार साझा करेंगे और भविष्य के लिए योजनाओं की रूपरेखा पर मंथन करेंगे। विज्ञप्ति के अनुसार इस चर्चा का क्षेत्र बहुत विस्तृत होगा जिसमें कोरोना के वैक्सीन की आपूर्ति, साझा हितों से सम्बंधित क्षेत्रीय और भूमंडलीय मामले, शांति कायम रखते हुए इंडोपेसेफिक क्षेत्र को व्यापार के लिए निर्बाध खुला रखना, सामुद्रिक (मेरीटाइम) सुरक्षा, पर्यावरण परिवर्तन और क्रिटिकल तकनीक आदि होंगे। स्पष्ट है कि यह मुलाकात बहुत ही महत्वपूर्ण होगी और सारी दुनिया की निगाहें इस प्रथम शिखर सम्मेलन के परिणामों पर होगी।
इस सन्दर्भ में अमेरिकी विदेश विभाग का बयान बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसके अनुसार ” राष्ट्रपति और वर्तमान प्रशासन इंडोपेसेफिक क्षेत्र के अपने संधिबद्ध मित्रों और सहयोगियों के साथ क्षेत्र में शांति स्थापना, साझा हितों की सुरक्षा तथा अपनी समृद्धि के लिए प्रतिबद्ध हैं।” शांति प्राप्ति का उद्देश्य जहां दक्षिण चीन सागर में चीनी कार्यवाहियों द्वारा उत्पन्न अस्थिरता को रोकने की ओर इंगित करता है, वहीं “साझा” हितों की सुरक्षा की बात करके यह बताया गया है कि इस क्षेत्र को चीन की जागीर बनने से रोका जाना है और क्षेत्र को सबके लिए खुला छोड़ना है। भले ही इसमें यह निहितार्थ छिपा हो कि अमेरिका अब इस समुद्री क्षेत्र की, जो सामुद्रिक परिवहन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, बन्दर बांट में अपना भी हिस्सा चाहता है। लेकिन इससे किसी एक शक्ति का यहां प्रभुत्व होने की सम्भावना तो नहीं बचेगी। वैसे भी चीन की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं और उसकी बीआरआई योजना पर एक लगाम तो लग ही सकती है।
क्वाड के इस चतुर्वर्ग की परिकल्पना 2004 में सुनामी कोर ग्रुप बनने के बाद हुई थी। 2007 में जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने अमेरिकी उपराष्ट्रपति और भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्रियों के सामने ऐसे एक सुरक्षा समूह का प्रस्ताव रखा था, लेकिन थोड़ी भारतीय उदासीनता और फिर ऑस्ट्रेलिया की चीन को नाराज़ करने में हिचकिचाहट के कारण यह प्रस्ताव लम्बे समय तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा। आखिर 2017 में मनीला में आयोजित आसिआन शिखर सम्मेलन के समय इसे पुनर्जीवन मिला और तबसे इसने आश्चर्यजनक प्रगति की है। पिछले दो वर्षों में कई बार इसके वरिष्ठ अधिकारियों और विदेश तहत रक्षा मंत्रियों के सम्मेलन हो चुके हैं। कई नौसैनिक अभ्यास भी हो चुके हैं और सम्बद्ध देशों के बीच हुए द्विपक्षीय रक्षा और व्यापार समझौतों ने अल्पावधि में ही क्वाड को चीन और उसके कुप्रसिद्ध मित्रों का सिरदर्द काफी बढ़ा दिया है।
यह विचारणीय है कि इस समूह क़े साझा हित और आकांक्षाएं क्या हैं। हालांकि इस समूह ने अपने लक्ष्यों में कभी भी खुलकर चीन का नाम नहीं लिया है फिर भी इशारा उसी ओर है। जापान और ऑस्ट्रेलिया की समुद्री सीमाएं चीन से सटी हुई हैं। इसलिए चीन की दक्षिण चीन सागर में विस्तारवादी नीति दोनों क़े लिए परेशानी का सवब है। साथ ही जापान का चीन से सेनाकू द्वीपों क़े स्वामित्व को लेकर विवाद है, वहीं यूरोप, अफ्रीका और खाड़ी क़े देशों से होने वाला सारा व्यापार इसी क्षेत्र से होता है। अपने बगल में सोलोमन द्वीपसमूह में चीन की नौसैनिक उपस्थिति अमेरिका से ऑस्ट्रेलियाई व्यापार को खतरे में डाल सकती है। चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीपों क़े निर्माण से अमेरिका असहज ही नहीं, चिंतित भी है कि उसके जापान और ताइवान में स्थित अड्डे चीनी नौसेना की ज़द में आ जाएंगे। भारत हालांकि प्रशांत महासागर को सीधे नहीं स्पर्श करता और चीन की समुद्री सीमा से भी दूर है, लेकिन चीनी विस्तारवाद को यदि न रोका गया तो आसिआन देशों क़े साथ व्यापारिक समुद्री मार्ग और परिणामतः व्यापार भी प्रभावित होगा। साथ ही श्रीलंका तथा पाकिस्तान क़े ग्वादर में बीआरआई क़े बहाने चीनी सेना की उपस्थिति हिन्द महासागर में तनाव को जन्म दे रही है। चीन द्वारा लद्दाख में किए गए सीमातिक्रमण की वजह से भारत की पास चीन की खिलाफ चुप रहने का कोई कारण नहीं रह जाता। इस प्रकार क्वाड की चारों देशों के पास ऐसा समूह बनाने की लिए पर्याप्त साझा हित मौजूद हैं। मानवाधिकारों का हनन, कोरोना की जानकारी न देना, चीनी क़र्ज़ का मकड़जाल और व्यापार संचालन की ग़लत तरीके आदि दूसरे कारण तो हैं ही।
लेकिन क्वाड के उद्देश्यों को पूरा करने में ऐसी कई वास्तविकताएं हैं, जहां चारों देशों की सोच एक सामान नहीं है। खतरे का आकलन, सैन्य क्षमता, रणनीतिक प्राथमिकताएं, चीन के प्रतिशोध की क़ीमत सहने की क्षमता, रणनीतिक संस्कृति ( या उसका अभाव) आदि ऐसे मानक हैं, जो हर सदस्य देश में अलग होने के कारण क्वाड की गति धीमी कर सकते हैं। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए ये क्वाड को ठप कर देंगे। जिस गति से इस समूह ने संरचनात्मक प्रगति की है, वह असाधारण है। अब देखना यह है कि शुक्रवार की यह बैठक क्या ठोस परिणाम लाती है।
(लेखक पूर्व राजदूत हैं।)
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