विदेशी पैसे पर गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) चलाने वालों से सरकार ने पारदर्शिता की अपेक्षा की तो वे नाना प्रकार के बहाने बनाने लगे। आखिर में सरकार ने सख्ती दिखाई और उनकी ‘दुकान’ बंद हो गई। अब काम का ढर्रा बदलने वाले शातिरों की छटपटाहट को कथित आंदोलनों में विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से ही देश में राजनीतिक हालात लगातार तनावपूर्ण बने हुए हैं। 2014 में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही देश में एक वर्ग ऐसा था, जो मोदी सरकार को मात्र पांच साल की सरकार मान कर ही चल रहा था और जिसे आशा थी कि अपने पांच साल पूरे करने के बाद 2019 के आम चुनाव में मोदी सरकार का वही हाल होगा, जो 2004 में वाजपेयी सरकार का हुआ था, पर ऐसा हुआ नहीं। जो लोग सरकार को चुनाव के मंच पर नहीं हरा पाए, वे सीधे-सीधे सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने और लोगों को उकसाने का वातावरण बना रहे हैं। कभी मानवाधिकारवादी, जलवायु कार्यकर्ता, महिला अधिकारवादी, ‘फ्री प्रेस’ समर्थकों का चोला ओढ़े अलग-अलग तरह के एनजीओ और संगठन इन के समर्थन में सामने आ जाते हैं।
हिंसा ही सहारा
किसी सरकार की नीतियों से सहमत न होने पर विपक्ष और विरोधी वर्ग दोनों के पास न्यायालय से लेकर आंदोलन करने का लोकत्रांतिक अधिकार है। लेकिन विरोध के नाम पर देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति बना देना, यह पिछले दो साल में इस देश ने देखा है और अभी भी देख रहा है। फरवरी, 2020 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान गुजरात से लेकर दिल्ली तक हुई हिंसा से लेकर इस वर्ष 26 जनवरी को लालकिले पर हुई हिंसा तक सरकार विरोध के नाम पर सड़क पर हिंसा करना, इस तरह के विरोध के कुछ उदाहरण हैं।
बेबस कानून
जब भी ऐसे हिंसक तत्वों पर भारत सरकार भारतीय कानून के हिसाब से कार्रवाई करती है तो भारतीय ही नहीं, कुछ विदेशी भी ऐसे अराजक और हिंसक तत्वों के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को देखते हुए भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में विदेश से पैसा लेने वाले एनजीओ के कामकाज को पारदर्शी बनाने के लिए एफसीआरए कानून में संशोधन किया है। इसके चलते अब तक ऐसे 33,000 फर्जी एनजीओ बंद हो चुके हैं, जो विदेश से मोटी रकम पाकर भारत में अलग-अलग तरह के देश-विरोधी दुष्प्रचार करते हैं। ऐसे ही दो बड़े एनजीओ जाकिर नाइक का ‘इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन’ और ‘एमनेस्टी इंडिया’ है। जहां एक तरफ जाकिर नाइक की संस्था पर देश में अल्पसंख्यक सशक्तिकरण के नाम पर कन्वर्जन कराने और आतंकवाद तक को पोषित करने का आरोप है, वहीं एमनेस्टी इंडिया पर देश में मानवाधिकार के नाम पर एक खास तरह की हिंदू व राष्ट्र विरोधी सोच को आगे बढ़ाने का आरोप है। लेकिन दोनों ही संस्थाओं पर सरकार ने कार्रवाई की तो ये दोनों ही जांच का सामना नहीं कर पार्इं और उन्हें भारत में अपनी ‘दुकान’ बंद करनी पड़ी।
कांग्रेस से संबंध
कमाल की बात यह है कि इन दोनों ही संस्थाओं के कांग्रेस सरकार और कांग्रेस नेताओं से करीबी संबंध रहे हैं। जहां जाकिर नाइक के मंच पर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह दिखाई देते हैं, वहीं 2016 में एमनेस्टी इंडिया के निदेशक बने अमिताभ बेहर कांग्रेस समर्थक थिंकटैंक ‘नेशनल फाउंडेशन आॅफ इंडिया’ के भी उच्च पदों पर रहे हैं। पिछले कुछ समय में सरकार को धोखा देने और पैसे का स्रोत न दिखाने के लिए एमनेस्टी ने बड़ी चालाकी से रास्ते निकाले हैं। एमनेस्टी ने चार नामों से कामकाज चलाया- एमनेस्टी इंटरनेशनल फाउंडेशन, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, इंडियंस फॉर एमनेस्टी इंटरनेशनल ट्रस्ट और एमनेस्टी इंटरनेशनल साउथ एशिया फाउंडेशन। लेकिन जब मोदी सरकार ने और सख्ती दिखाई तो एमनेस्टी अपनी ‘दुकान’ बचा नहीं पाई और आखिरकार ईडी ने मनी लॉड्रिंग कानून के तहत 7.66 करोड़ की एमनेस्टी की संपत्ति जब्त कर ली। विदेश से प्राप्त होने वाले पैसे का इस्तेमाल एमनेस्टी किस प्रकार करती थी इसका अंदाजा हमें एक न्यूज चैनल द्वारा एमनेस्टी पर किए गए स्टिंग आॅपरेशन से मिलता है। इसमें कश्मीर में भारत विरोधी दुष्प्रचार फैलाने के लिए एमनेस्टी कैसे विदेश से करोड़ों रुपए कानून का उल्लंघन करके कमा रही थी, यह बात खुलकर सामने आई है। अगर इन सारे सिरों को मिलाएं तो कांग्रेस समर्थक लोग ही अलग-अलग विदेशों से पैसा लेने वाले एनजीओ के उच्च पदों पर दिखाई देते हैं, जहां से वे कांग्रेस समर्थित एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं और जब कानून का उल्लंघन करने पर सरकार सख्ती करती है तो अपने विदेशी प्रभाव के बल पर भारत विरोधी दुष्प्रचार करते हैं।
छवि खराब करने का लक्ष्य
कोई भी सरकार सड़क पर हिंसा की खुली छूट नहीं दे सकती, किसी भी देश में बेनामी विदेशी पैसे को छूट नहीं मिल सकती। लेकिन जब भी सरकार ऐसे तत्वों पर कार्रवाई करती है तो कभी एनजीओ, कभी छात्र, कभी ‘एक्टिविस्ट’ की खाल ओढ़ कर ये लोग अपने आपको छिपाने का प्रयास करते हैं और विदेशी मीडिया में भारत की छवि खराब करने की कोशिश करते हैं। ऐसे समय में जब पूरा विश्व चीन के विकल्प के तौर पर भारत को देख रहा है तब भारत की छवि खराब करके या भारत में हिंसायुक्त वातावरण बना कर ये लोग और संस्थाएं किसे लाभ पहुंचा रही हैं, इसका अनुमान लगाना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। 33,000 एनजीओ के बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों पर जब मोदी सरकार ने कानूनी कार्रवाई की तो ये लोग नक्सली, मिशनरी और जिहादियों का गठजोड़ बनाकर सरकार विरोधी आंदोलन चलाने लगे हैं। अब देश का भी विरोध करने लगे हैं। ऐसे लोगों की असलियत को आम लोगों तक ले जाने का यही सही समय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
दुनिया को भ्रमित किया जा रहा है
पता नहीं फिलहाल कांग्रेस के स्टार शशि थरूर किस पद और देश में थे, लेकिन इंदिरा गांधी के सत्ता काल में हिंदी की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ (7 नवंबर, 1982) के अंक में प्रकाशित करीब दो पृष्ठ की मेरी एक विशेष रिपोर्ट का शीर्षक था- ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल क्या गुप्तचर संस्था है?’ इस रिपोर्ट में भी भारत तथा रूस (उस समय सोवियत संघ) की सरकारों द्वारा इस संगठन की संदिग्ध गतिविधियों एवं फंडिंग के गंभीर आरोपों का उल्लेख था। भारत के भोले-भाले लोगों और दुनिया को भ्रमित क्यों किया जा रहा है? केंद्र सरकार ने किसी आतंकवादी संस्था की तरह एमनेस्टी इंटरनेशनल पर प्रतिबंध की घोषणा तो नहीं की है। फिर भारत दुनिया में अकेला तो नहीं है। रूस, इज्राएल और कांगो ने उस पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं, तो चीन, अमेरिका और वियतनाम जैसे अनेक देश एमनेस्टी इंटरनेशनल की पूर्वाग्रही गतिविधियों पर कार्रवाई करते रहे हैं। आज एमनेस्टी के लिए आंसू बहा रही कांग्रेस पार्टी या अन्य दलों के प्रभावशाली नेताओं की याददाश्त क्या इतनी कमजोर हो गई है कि 2009 में उनके सत्ता काल में सरकारी कार्रवाई पर भी संस्था ने कुछ महीने अपनी ‘दुकान’ बंद करने का नाटक किया था।
-आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार (एक लेख में)
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