पाकिस्तान की इमरान खान सरकार अभी तक महंगाईऔर आर्थिक बदहाली से ही जूझ रही थी। लेकिन अब 11 विपक्षी दलों का गठबंधन भी उसके लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया है। विपक्ष के लगातार बढ़ते विरोध के कारण पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थितरता की ओर बढ़ता दिख रहा
पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में फंसता दिख रहा है। 2018 में इमरान खान के सत्ता में आने के बाद से सरकार में पाकिस्तानी सेना की लगातार बढ़ती दखलंदाजी और पाकिस्तान की लगातार बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण जहा एक ओर देश की संप्रभुता खतरे में है, वहीं साधनहीन जनसाधारण के समक्ष अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है।
विपक्ष लगातार इमरान खान पर हमलावर रहा है और उन्हें ‘निर्वाचित’ के बजाय ‘चयनित’ प्रधानमंत्री ही मानता है। विरोध के स्वर अब लगातार तीव्र होते जा रहे हैं। पाकिस्तान के मुख्य विपक्षी दलों के गठबंधन ‘पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ (पीडीएम) के प्रमुख मौलाना फजल-उर-रहमान ने कहा है कि विपक्ष अगले महीने प्रस्तावित ‘लॉन्ग मार्च’ के द्वारा देश में नए सिरे से चुनाव कराने का दबाव बनाएगा। इमरान खान सरकार देश के लिए ‘स्वीकार्य नहीं’ है। गौरतलब है कि पीडीएम ने 26 मार्च को इमरान खान सरकार के खिलाफ एक लॉन्ग मार्च की घोषणा की है। इस्लामाबाद तक होने वाले इस मार्च में देशभर से लोगों के शामिल होने का आह्वान किया गया है। रहमान ने स्पष्ट किया है कि यह आंदोलन पहले की तरह ‘आने और जाने’ जैसा नहीं होगा, बल्कि हम वहां डेरा जमा कर बैठेंगे और इमरान खान को जनता के दबाव में लाया जाएगा। इसे लोगों का युद्ध बताते हुए उन्होंने कहा कि इसे जन अदालत में लड़ा जाएगा। साथ ही, रहमान ने विपक्ष की रणनीति के बारे में बताया कि पीडीएम सम्मिलित रूप से सीनेट के चुनाव लड़ेगा। पीडीएम का गठन सितंबर 2020 में हुआ था। यह 11 विपक्षी दलों का एक गठबंधन है, जिसे सत्ता में रह चुके दो दलों पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) का समर्थन हासिल है। पीडीएम का मानना है कि 2018 में हुए आम चुनावों में पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान ने धांधली की थी।
पाकिस्तान में गठबंधन
पाकिस्तान जैसे लड़खड़ाते लोकतंत्र में कभी भी स्वस्थ लोकतांत्रिक संस्थान और प्रक्रियाएं अपनी पैठ नहीं जमा सकीं और बीते सात दशक में किसी विशेष अवसर के लिए राजनीतिक दलों के अल्पकालिक गठबंधन बनते और टूटते रहे हैं। जनरल अयूब खान की सैन्य तानाशाही के विरोध में और राष्ट्रपति चुनाव में विरोधी उम्मीदवार फातिमा जिन्ना को समर्थन देने के लिए 1964 में कॉमन अपोजिशन पार्टीज (सीओपी) के नाम से एक गठबंधन बना था। 1965 में भारत के साथ युद्ध में पाकिस्तान की करारी हार ने अयूब खान के विरोधियों को नई ऊर्जा दी। उनके विरोधियों ने 1968 में डेमोक्रेटिक एक्शन कमेटी (डीएसी) नामक एक गठबंधन बनाया, जिसमें जुल्फिकार अली भुट्टो भी शामिल थे। बाद में 1971 में भुट्टो सत्ता में आए, लेकिन पूर्व के तानाशाह शासकों के मुकाबले उम्मीद से अधिक अलोकप्रिय साबित हुए। 1977 में भुट्टो के खिलाफ भी विपक्षी दलों ने पाकिस्तान नेशनल अलायंस (पीएनए) नाम से एक संयुक्त गठबंधन बनाया और इसी साल आम चुनाव में भुट्टो को इस गठबंधन से जूझना भी पड़ा। हालांकि चुनाव में धांधली करके वे सत्ता पर काबिज तो हो गए, लेकिन इस पर बने नहीं रह सके। जनरल जिया उल हक रचित षड्यंत्र ‘आॅपरेशन फेयर प्ले’ में भुट्टो पहले सत्ता और फिर अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। इसी तरह, पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए 1983 में जनरल जिया उल हक के सैन्य शासन के विरुद्ध मूवमेंट फॉर रेस्टोरेशन आॅफ डेमोक्रेसी (एमआरडी) नाम से एक गठबंधन बना, जो विमान दुर्घटना में जिया उल हक की मौत के बाद एक हफ्ते में ही खत्म हो गया।
जब नवाज शरीफ की सरकार का तख्तापलट कर जनरल परवेज मुशर्रफ सत्ता में आए तब भी सैन्य शासन के विरुद्ध एक गठबंधन बना। 2002 में गठित इस गठबंधन का उद्देश्य भी पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली करना था। अलायंस फॉर रेस्टोरेशन आॅफ डेमोके्रेसी (एआरडी) नामक इस गठबंधन में परस्पर धुर विरोधी राजनीतिक दल पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) शामिल थे। कुछ साल बाद मई 2006 में इन्हीं दो प्रमुख दलों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को तेज करने के लिए ‘चार्टर आॅफ डेमोक्रेसी’ पर हस्ताक्षर किए थे और आज एक बार फिर ये एक ही पाले में खड़े नजर आ रहे हैं।
बनते-बिगड़ते समीकरण
पाकिस्तान में विपक्षी दलों के गठबंधन का एक स्वरूप रहा है। 1964 से लेकर परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में जो गठबंधन बने, उसका मुख्य कारण यह था कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों को विधान निर्माण के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला और तानाशाही पूर्ण तरीके से लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध काम करने की कोशिश की गई। लिहाजा, इसके विरुद्ध गठबंधन के रूप में विपक्षी दल एक मंच पर आए और तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष किया। लेकिन उद्देश्य की प्राप्ति के बाद ये गठबंधन स्वत: ही टूटते गए और घटक दल अपनी पुरानी प्रतिद्वंद्विता में लौट तथा राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए आपस में ही संघर्ष करने लगे। लेकिन इस बार इमरान खान सरकार के विरुद्ध बने गठबंधन की परिस्थितियां कुछ अलग हैं। इस समय विपक्षी दलों को केंद्रीय एवं प्रांतीय विधानसभाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल है और कुछ हद तक सत्ता में भी उनकी भागीदारी है।
पिछले गठबंधन के निशाने पर जहां सैन्य सरकारें थीं, वहीं इस बार विपक्षी दलों के निशाने पर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है। गठबंधन का आरोप है कि तहरीक-ए-इन्साफ और इमरान खान फौज के इशारे पर चल रहे हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं खत्म होती जा रही हैं। यही कारण है कि पीडीएम ने पिछले साल सितंबर में इमरान खान सरकार के विरुद्ध जब अपना अभियान शुरू किया तो सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा को खुले तौर पर सबसे बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया।
सरकार के बचाव में सेना
तमाम विरोधों के बावजूद फौज अपने रटे-रटाए बयान पर कायम है। इस सप्ताह की शुरुआत में पाकिस्तानी फौज के प्रवक्ता और अंतर सेवा सार्वजनिक संबंध (आईएसपीआर) के महानिदेशक मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार ने घोषणा की कि सेना न तो राजनीति में शामिल है और न ही विपक्ष के संपर्क में है। यह तथ्य है कि लंबे समय तक फौज में रहने के बावजूद जनरल बाजवा अपनी सैन्य कुशलता का प्रमाण नहीं दिखा सके, लेकिन राजनीतिक परिदृश्य में वे एक कुशल कूटनीतिज्ञ के रूप में भूमिका निभा रहे हैं। वे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लगातार यह संकेत देते रहे हैं कि इमरान खान के नेतृत्व वाली सरकार सक्षम एवं समर्थ है। उस पर सेना के नियंत्रण जैसी बातें बेमानी हैं। हालांकि सच्चाई इससे कहीं अलग है।
आजकल आईएसआई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद चौधरी संकट से घिरी इमरान खान सरकार के लिए संकटमोचन की भूमिका में हैं। हमीद चौधरी ने लगातार ऐसे कई मंचों से इमरान खान और उनकी सरकार का बचाव किया है, जिसे लोकतांत्रिक देश में सैन्य प्रतिष्ठान के लिए उपयुक्त मंच नहीं कहा जा सकता। लेकिन इन मंचों का सामरिक और राजनीतिक प्रभाव कहीं अधिक है। इन्हें जिस ओर लक्षित किया जाता है, वहां ये कुशलतापूर्वक अपने काम को अंजाम देते हैं। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि अपनी स्थापना के समय से भले ही आईएसआई का काम प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करना रहा हो, परन्तु इसने हमेशा सेनाध्यक्ष के प्रति ही अपनी वफादारी दिखाई है। पाकिस्तान में पूर्व में तख्तापलट की तीनों घटनाओं से यह स्पष्ट है। इसलिए पाकिस्तान के राजनीतिक मामलों में जनरल बाजवा की कथित निरपेक्षता और अरुचि को उनके कुशल अभिनय का प्रमाण ही माना जा सकता है। दूसरी ओर, पाकिस्तान का सत्ताधारी दल विपक्ष के आंदोलन को देश के विरुद्ध एक वृहत षड्यंत्र का हिस्सा बता रहा है। इमरान खान सरकार में मंत्री शेख राशिद कहते हैं कि ‘‘पाकिस्तान में जो लोग सेना के खिलाफ बोलते हैं, उनकी जीभ गले से खींच ली जानी चाहिए। पाकिस्तान विरोधी लोग इस तरह की अराजकता फैला रहे हैं।’’ जब भविष्य का प्रश्न साथ जुड़ा हो तो ऐसे समान हित के प्रश्नों पर समान प्रतिक्रियाएं आना स्वाभाविक ही है।
लोकतंत्र नहीं,दुर्दशा तंत्र
इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) ने 2020 के लिए प्रजातांत्रिक देशों की एक सूची जारी की है। 167 देशों की इस सूची में पाकिस्तान का स्थान 105वां है। यही नहीं, पाकिस्तान को ‘हाइब्रिड शासन’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह न केवल पाकिस्तान में लोकतंत्र की दुर्दशा को दर्शाता है, बल्कि सत्ता लोलुप नेताओं की सैन्य प्रतिष्ठानों से की गई दुरभिसंधियों की ओर भी इंगित करता है। इमरान खान के सत्ता में आने के बाद से ‘हाइब्रिड शासन’ शब्द पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों और विश्लेषकों के बीच लोकप्रिय हो गया है। उल्लेखनीय है कि पर्यवेक्षक और विश्लेषक, जो पाकिस्तान के परिप्रेक्ष्य में ‘हाइब्रिड शासन’ की व्याख्या करते हैं, वे मुख्यत: नकारात्मक ही हैं।
हालांकि विपक्ष ने बड़े पैमाने पर सिलसिलेवार रैलियां आयोजित की हैं, फिर भी सेना समर्थित सरकार को उखाड़ फेंकने के अपने उद्देश्य में उसे वांछित गति नहीं मिली है। विपक्षी गठबंधन में भी आपसी खींचतान है। इस गठबंधन में शामिल घटक दलों के बीच न तो आपसी सहमति है और न ही लक्ष्य व रणनीति को लेकर एकजुटता है। यही आपसी खींचतान विपक्षी दलों के गठबंधन को कमजोर बना रही है। आपसी कटुता भूलकर भले ही पीएमएल-एन और पीपीपी एक साथ आए हों, लेकिन पाकिस्तान की राजनीति लगातार बदल रही है। पूर्व में सत्ता में रह चुके इन दलों की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं। इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि विपक्षी दलों का यह गठबंधन महज एक राजनीतिक अभियान भर हो, जिसने सत्ता प्राप्ति के लिए असमान और परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों को एक साथ आने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन यह गठबंधन अभी इतना भी ताकतवर नहीं दिखता कि सरकार और सैन्य गठजोड़ को कमजोर कर सके।
इसके बावजूद विपक्षी दलों के आंदोलन से पाकिस्तान की इमरान खान सरकार दबाव में है। आंतरिक और बाह्य राजनीतिक-आर्थिक मुश्किलों से जूझ रही सरकार के लिए परिस्थितियां प्रतिकूल और पहले से अधिक मुश्किल हो चुकी हैं। सेना और शासन के विरुद्ध इस तरह का विरोध आज से पहले पाकिस्तान में कभी नहीं देखा गया।
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