आजकल ‘दलित-मुस्लिम’ एकता का नारा कुछ ज्यादा ही सुनाई देता है। ऐसा ही नारा आजादी से पहले मुस्लिम लीग ने भी दिया था। इससे प्रभावित होकर कुछ दलित नेताओं ने पाकिस्तान बनाने की मांग का समर्थन किया। बाद में उन्हें इस छलावे का पता चला और पाकिस्तान से पलायन कर भारत आ गए। आज जो दलित नेता ऐसे नारे लगा रहे हैं, वे इतिहास से सबक लें
गत 11 फरवरी को राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बताया, ‘‘इस्लाम और ईसाई मत में शामिल होने वाले दलितों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।’’ उन्होंने यह भी साफ किया है कि ऐसे लोग अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से संसदीय या विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ सकेंगे। कानून मंत्री ने संविधान के पैरा 3 का हवाला देते हुए कहा कि इसके तहत कोई भी व्यक्ति, जो हिंदू, सिख या बौद्ध के अलावा किसी अन्य पंथ का दावा करता है, तो उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा।
उनके इस बयान के बाद देश में एक नई बहस शुरू हो गई है। ईसाई या मुसलमान बन चुके दलित इसे गलत मान रहे हैं, तो हिंदू दलित इसे बिल्कुल सही मान रहे हैं। इस संबंध में संवैधानिक व्यवस्था को देखने की जरूरत है। लोक प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा-4 (क) के अनुसार, ‘‘राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित स्थान की दशा में संसद का चुनाव लड़ने के लिए वह उस राज्य की या किसी अन्य राज्य की अनुसूचित जातियों में से किसी का सदस्य होगा।’’ वहीं धारा-5 (क) के अनुसार, ‘‘राज्य में आरक्षित सीट से विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए उस राज्य की किसी अनुसूचित जाति का सदस्य होना अनिवार्य है।’’
अनेक सवाल
कानून मंत्री के स्पष्टीकरण के बाद जागरूक लोगों के मन में अनेक तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या कानूनी अस्पष्टता का लाभ लेकर मुस्लिम और ईसाई अनुसूचित जाति का आरक्षण चुरा रहे हैं? क्या मुसलमान और ईसाई स्वयं को दलित में शामिल करके दलितों को समाप्त कर देना चाहते हैं? क्या उनकी योजना दलितों के आरक्षण में शामिल होकर उन्हें हड़पने की है? क्या इसकी आड़ में कन्वर्जन तेज किया जा रहा है? या ‘जय भीम, जय मीम’ का नारा भ्रमित दलितों को हिंदू समाज से काट कर उन्हें समाप्त करने की एक कोशिश है? क्या सचमुच मुस्लिम और ईसाई दलितों के हितचिंतक हैं या छलपूर्वक उनकी पहचान समाप्त कर देना चाहते हैं? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं, क्योंकि आजादी के समय से ही दलित एवं जनजातियों को मिटाने की कोशिश स्पष्ट दिखाई देती है। पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल का प्रकरण इस कोशिश का एक बड़ा उदाहरण है।
उल्लेखनीय है कि हिंदू अनुसूचित जाति (हिंदू दलितों) के नेता के रूप में जोगेंद्र नाथ मंडल ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया था। जब पाकिस्तान बन गया तो वे वहां गए भी और मंत्री भी बने। दो-तीन साल में ही उन्हें पाकिस्तान की असलियत पता चल गई। वहां दलितों का कन्वर्जन शुरू कर दिया गया। यही नहीं, दलितों को हर क्षेत्र में दबाया जाने लगा। खुद मंडल के साथ ऐसा व्यवहार किया गया कि ‘पाकिस्तान का भूत’ उनके मन से उतर गया।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति
अपने कुछ समर्थकों के साथ गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी (बीच में)। ये दलित-मुस्लिम एकता का नारा लगाते समय भाषा की मर्यादा भी भूल जाते हैं।
आज एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी कई मंचों पर अनुसूचित जाति व वंचित वर्ग के समर्थन का दावा करते हैं। ओवैसी जैसे नेता ‘जय भीम, जय मीम’ के नारे लगाकर दलितों को अपने पाले में खींचने का प्रयास करते हैं। दुर्भाग्य यह है कि मंडल प्रकरण को भूलकर कुछ दलित नेता भी ‘जय भीम, जय मीम’ का नारा लगाकर अपने समाज के लोगों को मुसलमानों का समर्थन करने के लिए उकसा रहे हैं। स्वतंत्रता से पहले जोगेंद्र नाथ मंडल भी यही काम कर रहे थे। इसी बदौलत वे पाकिस्तान में मंत्री भी बने, लेकिन उनके इस रवैये से दलितों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो सकती है। पाकिस्तान में अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग की ओर से मंडल को मंत्री बनाया गया। इस संबंध में पत्रकारों के सवाल का उत्तर देते हुए लीग के नेता लियाकत अली खान ने कहा था, ‘‘मुस्लिम लीग केवल मुसलमानों के अधिकारों के लिए ही संघर्ष नहीं करती, बल्कि हिंदुस्थान के समस्त पददलितों के हितों के लिए भी कार्य करती है।’’
संवैधानिक व्यवस्था
भारतीय संविधान निर्माताओं ने सामाजिक कुरीतियों के शिकार शोषित और वंचित वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार पंथ, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर राष्टÑ किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात्दा नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी है। संविधान के तीसरे अनुच्छेद अनुसूचित जाति आदेश 1950, जिसे ‘प्रेसिडेंशियल आर्डर’ के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। यानी इस जाति के जो लोग ईसाई या मुसलमान बन गए हैं, उन्हें इस श्रेणी को मिलने वालीं सरकारी सुविधाएं नहीं मिलेंगी। स्पष्ट शब्दों में कहें तो इन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण नहीं मिल सकता है, लेकिन ईसाई बन गए दलित या मुसलमान आरक्षण की मांग बरसों से कर रहे हैं। स्वाभाविक है कि हिंदू दलित उनकी इस मांग का विरोध कर रहे हैं।
जबकि सच तो यह है कि मुस्लिम लीग ने अपने हितों के लिए मंडल का अनेक बार दुरुपयोग किया। जैसे असम के सिलहट जिले को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के लिए जनमत कराया गया। उन दिनों सिलहट जिले में हिंदू और मुसलमानों की जनसंख्या बराबर भी। यदि हिंदू एक रहते तो सिलहट आज भी भारत का ही हिस्सा रहता। मुस्लिम लीग इसे अच्छी तरह जानती थी। इसलिए उसने यहां मंडल का सहारा लिया। इसके बाद मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर मंडल ने अनुसूचित जाति के मतदाताओं को पाकिस्तान के पक्ष में मतदान करने को कहा। परिणामस्वरूप सिलहट तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बना। मंडल को उम्मीद थी कि जब पाकिस्तान बनेगा तब लाखों दलितों का पाकिस्तानी मुसलमान साथ देंगे, पर उनका भ्रम पाकिस्तान बनने के कुछ समय बाद ही टूट गया। वे पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को 8 अक्तूबर, 1950 को अपना इस्तीफा देकर भारत चले आए। लेकिन मंडल के कारण ही जसमोर, खुलना, बारिसाल, फरीदपुर आदि तब के पाकिस्तान का हिस्सा बन गए।
सिलहट में रह गए हिंदू दलितों को पाकिस्तान के समर्थन और ‘दलित-मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा लगाने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। 1946 में पाकिस्तान के निर्माण के लिए मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ मनाया। नोआखाली में हजारों निर्दोष और असावधान हिंदुओं की हत्या कर दी गई, जिनमें 90 प्रतिशत दलित थे। इसके बावजूद मंडल जैसे नेताओं के कारण दलितों का मुस्लिम लीग से मोहभंग नहीं हुआ। बाद में भी उन्हें इसका भयंकर दुष्परिणाम सहना पड़ा। 14 अगस्त, 1947 के बाद दंगों की पहली किस्त में ही सिलहट में 300 दलित हिंदू काट डाले गए। असंख्य महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। हिंदू घरों को आग लगा दी गई। यह सिलसिला तीन साल तक जारी रहा। पाकिस्तानी फौज ने केवल हिंदू दलितों का ही दमन नहीं किया, बल्कि उनकी महिलाओं को सैन्य शिविरों मे जाने के लिए मजबूर किया, ताकि वे सेना की कामुक इच्छाओं को पूरी कर सकें। 1950 आते-आते सिलहट में लगभग 10,000 दलितों की हत्या कर दी गई। शेष को जबरन इस्लाम स्वीकार करवाया गया। इन सबके लिए मंडल ही जिम्मेदार थे, जिन्होंने सिलहट के दलितों को ‘दलित-मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा सिखाया था।
मंडल की इस नीति और सिलहट को लेकर जवाहर लाल नेहरू की उदासीनता का खामियाजा वहां के दलितों ने भुगता। पाकिस्तान का हिस्सा बनने के बाद सिलहट के 90 प्रतिशत दलित मारे गए या कन्वर्ट कर दिए गए।
रंगनाथ आयोग की खतरनाक बातें
चूंकि दलित आबादी इस्लामी-ईसाई विस्तारवाद में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए समय-समय पर दलितों को भ्रमित करके कन्वर्ट करने और शेष हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की सुनियोजित कोशिश जारी है। यद्यपि यह भी सही है कि इस्लामी अतिक्रमणवाद का सबसे ज्यादा शिकार हमारे अनुसूचित जाति के बंधु ही हुए हैं। बंगाल के कलियाचक, बसीरहाट, मुर्शिदाबाद, हावड़ा या धूलागढ़ या फिर हरियाणा के मेवात में अनुसूचित जातियों की बेटियों को अगवा करके जबरन शादी करना, दलित परिवारों को डराकर जबरन मुसलमान बनाना और उनके मकान जलाना, जमीन पर कब्जा कर लेना आम बात है। इसके बावजूद कुछ लोग दलित-मुस्लिम एकता का दावा करते नहीं थकते।
1,300 साल से चले आ रहे इन परम्परागत तरीकों से ही नहीं, बल्कि संवैधानिक तरीकों से भी दलितों को मिलकर या मिलाकर खत्म कर देने की कोशिशें भी कम घातक नहीं हैं। दलितों को हिंदू रूप में खत्म करने और मुस्लिम कन्वर्जन में तेजी लाने के लिए सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी ‘राष्ट्रीय सलाहकार समिति’ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में एक आयोग बनाने का निर्देश दिया। आयोग को बनाने में बड़ी तेजी दिखाई गई। यह तेजी किसलिए थी, इसका अंदाजा आयोग की रपट आने के बाद देश के लोगों को हुआ। रंगनाथ मिश्र आयोग ने 2007 में अपनी रपट प्रधानमंत्री को दी। कहने को तो इस आयोग का नाम ‘नेशनल कमिशन फॉर रिलीजन एंड माइनॉरिटी’ दिया गया, लेकिन इसका मूल उद्देश्य अनुसूचित जाति व जनजाति की कन्वर्जन और अन्य माध्यमों से पहचान खत्म करना था। रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने लोकसभा में प्रस्तुत की। यह कहने में कोई परहेज नहीं है कि इस रपट में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों (स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय आदि) को समाप्त करने का प्रयास किया गया था। डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति को जो सुविधाएं दी थीं, उन्हें संवैधानिक तरीके से ही समाप्त करने का षड्यंत्र किया गया था।
सच तो यह है कि रंगनाथ मिश्र आयोग अनुसूचित जाति व जनजाति को मुस्लिमों व ईसाइयों में समायोजित करने की सशक्त और सोची-समझी कोशिश थी। आयोग के उपबंध यही बताते हैं। रपट में सिफारिश की गई थी कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए और अन्य अल्पसंख्यकों जैसे सिख, जैन, पारसी आदि को पांच प्रतिशत अलग से आरक्षण दिया जाए। यदि इस पांच प्रतिशत की सीट खाली रहती है तो केवल और केवल मुसलमानों से ही भरी जाए। सबसे खतरनाक बात तो यह थी कि आयोग ने यह सिफारिश की थी कि यदि कोई मुसलमान दावा करता है कि 50 साल पहले उसका परिवार दलित था, तो उसे अनुसूचित जाति का आरक्षण दिया जाए। यदि यह सिफारिश लागू हो जाती तो कोई भी मुसलमान अपना मजहब न छोड़ते हुए भी अनुसूचित जाति का आरक्षण ले सकता था। दुष्परिणाम यह होता कि करोड़ों मुसलमान वास्तविक दलितों का हक खा जाते। आयोग ने 1950 के उस अनुसूचित जाति क्रम को भी खत्म करने को कहा था जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति को हिंदू धर्म तक सीमित रखा गया था। बाद में बौद्धों और सिखों को भी इसमें शामिल किया गया।
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