पर्दे पर आया दिल्ली दंगे का सच
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पर्दे पर आया दिल्ली दंगे का सच

by WEB DESK
Mar 1, 2021, 10:17 am IST
in भारत
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ठीक साल भर पहले उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जिहादी उन्मादियों ने जो उत्पात मचाया, वह रूह कंपा देता है। इस हिंसा में जिन लोगों ने अपने परिजनों को खो दिया, जिनके घर और दुकानें जला दी गर्इं, उनके मन में जिन्दगी भर इसकी टीस रहेगी। हाल ही में दिल्ली दंगों की भयावहता को बेबाकी से सामने लाने वाला एक वृत्तचित्र प्रदर्शित हुआ है जो बगैर लाग-लपेट के दंगा पीड़ितों की तकलीफ और भय को उजागर कर इसके पीछे के षड्यंत्र का पर्दाफाश करता है

 आज से ठीक एक साल पहले फरवरी 2020 के तीसरे हफ्ते में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों ने दिल्ली को एक ऐसा जख्म दिया, जिसे भुला पाना बहुत मुश्किल है। खासकर, उन परिवारों के लिए तो यह ऐसा नासूर है, जिसका दर्द उन्हें ताउम्र टीस देता रहेगा। 53 लोग इस दंगे की भेंट चढ़ गए। इसमें ज्यादातर हिन्दू ही थे। सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुए। कितने ही लोगों के घर और दुकानें जला दी गर्इं। किसी तरह उनकी जान तो बच गई, लेकिन वे आर्थिक रूप से तबाह हो गए। इन दंगों को भड़काने में आम आदमी पार्टी (आआपा) के तत्कालीन निगम पार्षद ताहिर हुसैन की संलिप्तता का स्पष्ट प्रमाण मिलने के बावजूद मीडिया के एक वर्ग, वामपंथियों, कथित बुद्धिजीवियों व छद्म सेकुलरों ने भाजपा नेता कपिल मिश्रा को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की। लेकिन सच यह है कि दिल्ली का दंगा नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) विरोधी हिंसक प्रदर्शनों की परिणति था। यह सब रणनीति बनाकर और पूरी तैयारी के साथ किया गया था। इसके लिए जान-बूझकर एक ऐसे समय को चुना गया था, जब 24-25 फरवरी, 2020 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दो दिवसीय दौरे पर भारत आए हुए थे। उसी समय षड्यंत्रकारियों ने देश की राजधानी के उत्तर-पूर्वी इलाके को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की नकारात्मक छवि बनाई जा सके।

उन्मादी मुस्लिम दंगाइयों द्वारा आईबी अधिकारी अंकित शर्मा, पुलिस कांस्टेबल रतन लाल और ढाबे पर काम करने वाले दिलबर नेगी की नृशंस हत्या के बावजूद इसी जमात ने इन दंगों को ‘मुसलमानों का नरसंहार’ करार दिया। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत जैसे सहिष्णु देश को मुस्लिम-विरोधी साबित करने की कोशिश की। कुछ कथित बुद्धिजीवी पत्रकारों ने तो बाकायदा ताहिर हुसैन को अपने चैनल पर मंच मुहैया कराया ताकि वह खुद को लोगों के सामने पीड़ित के रूप में पेश कर सके। कुछ मीडियाकर्मियों, मीडिया संस्थानों और कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा इस बेहद दुर्भाग्यपूर्ण घटना का ऐसा एकतरफा और पूर्वाग्रहपूर्ण चित्रण बहुत व्यथित करने वाला था। विकीपीडिया पर इस घटना के बारे में ऐसी सूचनाएं दी गर्इं मानो इस दंगे के लिए हिन्दू जिम्मेदार थे। हालांकि समय के साथ टुकड़ों में इसका सच लोगों के सामने आता गया। कुछ लोगों ने इस घटना पर गहन शोध कर, दंगा प्रभावित इलाकों में जाकर, पीड़ितों से बातचीत कर सच्चाई को लोगों के सामने लाने का काम किया है। इस काम में उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितालकर और प्रेरणा मल्होत्रा की पुस्तक ‘दिल्ली रायट्स- द अनटोल्ड स्टोरी’ (दिल्ली दंगे-अनकही कहानी) इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। 

इसी कड़ी में इन दंगों के पीछे के सच को लोगों के सामने लाने की दिशा में एक बेहद सार्थक प्रयास है नवीन बंसल द्वारा निर्मित और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित कमलेश कुमार मिश्र द्वारा निर्देशित वृत्तचित्र ‘दिल्ली रॉयट्स- अ टेल आॅफ बर्न एंड ब्लेम’, जो आॅनलाइन मनोरंजन प्लेटफॉर्म (ओटीटी) वूट पर 23 फरवरी को रिलीज हुआ। यह वृत्तचित्र 23 से 26 फरवरी, 2020 की उस भयावहता को सामने लाता है, जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली के ब्रह्मपुरी, जाफराबाद, चांदबाग, मौजपुर, करावल नगर, गोकुलपुरी, कर्दमपुरी, भजनपुरा, सीलमपुर, बाबरपुर, शिवपुरी इलाकों में हिन्दुओं ने झेली थी। इस वृत्तचित्र की खासियत यह है कि इसके निर्माता-निर्देशक ने इसमें अपनी तरफ से कोई विचार ठूंसने की कोशिश नहीं की है, बल्कि ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ की तर्ज पर असलियत को दर्शकों के सामने रखा है, ताकि वे खुद किसी नतीजे पर पहुंच सकें। इस वृत्तचित्र के माध्यम से बंसल मिश्र और उनकी टीम ने सच के सबसे अहम पहलू को पेश किया है। उन्होंने इस तथ्य को तलाशने की कोशिश की है कि इन दंगों की शुरुआत कैसे हुई? दंगा पीड़ितों के दुख और उनके डर को सामने लाने के लिए निर्माता-निर्देशक ने पहले से लिखी गई पटकथा का सहारा नहीं लिया, बल्कि पीड़ितों की कहानी को उन्हीं की जुबानी प्रस्तुत किया है।

इस वृत्तचित्र में किसी भी दृश्य का नाट्य रूपांतरण नहीं किया गया है, न किसी दृश्य को स्टुडियो में फिल्माया गया है, बल्कि दंगा प्रभावित इलाकों में जाकर स्थानीय लोगों की हताशा और तकलीफ को कैमरे में कैद किया गया है। साथ ही, इसमें दंगों के दौरान लोगों द्वारा मोबाइल से बनाए गए वीडियो का इस्तेमाल किया गया है। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ दंगों में बुरी तरह से घायल पुलिस वालों और कई अन्य पुलिस अधिकारियों से बात की गई है। वृत्तचित्र में दर्शाई गई घटनाओं और दंगा पीड़ित हिन्दू परिवारों की व्यथा सुनकर मन बुरी तरह उद्वेलित ही नहीं होता, बल्कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस वृत्तचित्र में पीड़ित बताते हैं कि उन चार-पांच दिनों में उनके मन में यह डर समा गया था कि कहीं उनका हाल भी कश्मीरी पंडितों जैसा न हो, वे भी बेघर न हो जाएं। किसी ने अपनी बेटी की शादी के लिए सामान इकट््ठा कर रखा था, जिसे मजहबी उन्मादी तत्वों ने जलाकर खाक कर दिया। दंगाइयों ने किसी के जवान बेटे को गोली मार दी, किसी के शरीर को चाकुओं से गोद कर नाले में फेंक दिया तो किसी की बेरहमी से हाथ-पैर काट कर हत्या कर दी। कहीं गाड़ियों सहित पूरी पार्किंग ही जला दी गई। ऐसी पाशविकता देखकर यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि यह सब उन इनसानों ने किया था, जो पड़ोसी थे।

पीड़ित बताते हैं कि यह दंगा किसी बात की त्वरित प्रतिक्रिया नहीं था, जैसा कि इसके बारे में वाम बुद्धिजीवियों और तथाकथित सेकुलरों ने दुष्प्रचार किया। वास्तव में, इसकी तैयारी बहुत पहले से चल रही थी। अगर यह किसी के कुछ कहने की त्वरित प्रतिक्रिया होती, तो थोड़ी ही देर में पेट्रोल बम, कट्टे, टनों ईंट-पत्थर, तलवार और चेहरा छिपाने के लिए एक ही रंग के हेलमेट कहां से आ गए? कुछ ही मिनट में गलियों से हजारों की संख्या में उन्मादी भीड़ कहां से प्रकट हो गई? पत्थर और पेट्रोल बम को दूर तक और तेज गति से फेंकने के लिए बड़ी-बड़ी गुलेल कहां से तैयार हो गर्इं? स्पष्ट है कि इतनी तैयारी एक घंटे या एक दिन में नहीं हो सकती। इसके लिए बाकायदा योजना बनाई गई थी, बाहर से पैसा इकट्ठा किया गया था, हथियार मंगाए गए थे और उन्हें दंगाइयों तक पहुंचाया गया था। यह वृत्तचित्र वाम बुद्धिजीवियों और तथाकथित सेकुलरों के नैरेटिव को ध्वस्त करता है।
अगर दिल्ली दंगों का पूरा सच और उसकी भयावहता को जानना है, तो इस वृत्तचित्र को अवश्य देखना चाहिए। खासकर, गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकारों को तो इसे निश्चित रूप से देखना चाहिए। इन दंगों ने पड़ोसियों के बीच अविश्वास की ऐसी लकीर खींच दी है, जिसे मिटा पाना बहुत मुश्किल है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगा पीड़ित हिन्दू अब शायद ही अपने ‘पड़ोसियों’ पर भरोसा कर पाएं। यह एक कटु सत्य है।

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