अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस पर जानिए कैसे उर्दू भाषा 30 लाख बंगाली लोगों की मौत का आधार बनी और आज वोट बैंक के चक्कर में उसी उर्दू को ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल पर थोप रही हैं
एक भाषा कितने लाख लोगों की जान ले सकती है उर्दू भाषा इसका सबसे सटीक उदाहरण है। साल 1999 में युनस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी क्योंकि इसी दिन साल 1952 में उर्दू भाषा के पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश पर थोपने के विरोध में ढाका विश्वविद्यालय की छात्र रैली पर हुई पुलिस फायरिंग में कई छात्रों की जान चली गई थी। इस प्रकार जिस तरह पाकिस्तान की बुनियाद मजहब के आधार पर रखी गई थी उसी तरह बांग्लादेश बनने का आधार एक भाषा का जबरदस्ती थोपना बना।
जब भारत से कटकर पाकिस्तान बना उस समय वहां की मात्र 3% आबादी की पहली भाषा उर्दू थी और करीब 50% जनता बंगाली बोलती थी इसके बावजूद बंगाल की राष्ट्रभाषा उर्दू रखी गई और 50 प्रतिशत बंगाली आबादी को उर्दू सीखने के लिये कहा गया। उर्दू का ये दबाव इस हद तक बढ़ा कि पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और जिसे रोकने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान ये अपनी ही देश में क्रूरता की सारी हदें पार कर दी। साल 1950 में नेहरू-लियाकत पैक्ट ने वैसे भी पाकिस्तान के हिन्दुओं का असहाए उनके हाल पर छोड़ दिया था जिसका परिणाम में 50 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान में दर्जनों दंगे हुए और पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं का बढ़े पैमाने पर नरसंहार हुआ। लेकिन जब बांग्लादेश आंदोलन को दबाने के लिए पाकिस्तान की सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया तो इसके बाद हुई भीषण रक्तपात का दूसरा उदाहरण विश्व के इतिहास में भी खोजना मुश्किल है। पाकिस्तानी सेना ने बंगाली मुस्लिमों को तो बड़े पैमाने पर प्रताड़ित किया ही लेकिन बंग्लादेशी हिन्दुओं को तो खुला दुश्मन घोषित कर दिया गया और इस पूरे घटनाक्रम में करीब 30 लाख लोगों के नरसंहार का बात सामने आती है। इसका परिणाम ये हुआ कि बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से भागकर कर हिन्दुस्तान आ गए और आज तक एनआरसी इन लोगों की वजह से भारतीय राजनीति में एक मुद्दा है।
अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस को हमें बंगाली भाषा से ज्यादा उर्दू के वर्चस्व की सोच को तौर पर देखना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में उर्दू ने सिर्फ बांग्ला बोलने वाली पूर्व पाकिस्तानी लोगों के ही नरसंहार का आधार रखा बल्कि पाकिस्तान की अपनी भाषाएं जैसे मुल्तानी, सिंधी, पंजाबी, पश्तो के को भी उर्दू ने उन्हीं के प्रदेशों में दोयम दर्जें की भाषा बनाकर रख दिया। एक चर्चा में कराची के पूर्व मेयर अरीब अजाकिया बताते हैं कि आजादी के समय कराची में सिंधी के बाद सबसे कॉमन भाषा गुजराती थी लेकिन आज कराची में गुजराती किसी को नहीं आती और उर्दू जिसका नाम पूरे सिंध में कोई नहीं जानता था वो कराची की पहली भाषा बन गई।
एक भाषा का अतिक्रमण दूसरी भाषाओं को कैसे खाता है इसके लिए हमें भाषा के आधार पर एक बार भारत को भी देखना चाहिए। आंध्र प्रदेश या अब तेलंगाना की राजधानी से हैदराबाद से चुनकर लोकसभा आने वाले सांसद असदुद्दीन ओवैसी कभी तेलुगु बोलते नहीं दिखाई देते। वो उर्दू को ही अपनी पहली भाषा मानते हैं जबकि आंध्र प्रदेश पूरी तरह से एक तेलुगु भाषी क्षेत्र है। ये मजहब और भाषा की खिचड़ी की सबसे भारी कीमत कश्मीर में शारदा लिपि ने चुकाई है। मध्य काल में कन्वर्जन होकर मुस्लिम बने कश्मीरी मुसलमानों ने अपने ही पूर्वजों की भाषा से ऐसी दूरी बनाई कि आज कश्मीर की पहली भाषा उर्दू बन चुकी है और सैकड़ों सालों से कश्मीर की जड़ों से जुड़ी रही शारदा लिपि आज कश्मीर में ही लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है।
पाकिस्तान के चर्चित शो ‘लूज टॉक’ के एंकर अनवर मकसूद बीबीसी हिंदी को दिए अपने साक्षात्कार में बताते हैं कि वो हैदराबाद में जन्मे थे और आठ साल की उम्र में पाकिस्तान चले गये और साक्षात्कार के अंत में भारतीयों के लिये पैगाम देते हैं,”उर्दू आपका पीछा छोड़ दें आप उर्दू का पीछा न छोड़ें, बहुत बड़ी ज़ुबान है”
हैदराबादी होने के चलते तो अनवर मकसूद की पहली भाषा तेलुगु होनी चाहिए लेकिन क्योंकि वो मुसलमान है और बांग्ला, तेलुगु बोलने वाला तो मुसलमान हो ही नहीं सकता मुसलमान तो वो है जो उर्दू बोले तो इसलिए वो उर्दू को बड़ी जुबान बताते चलते हैं।
दूसरी भाषाओं को खाने की उर्दू की प्यास अभी खत्म नहीं हो हुई है। जिस उर्दू की वजह से इंटरनेशनल मातृभाषा दिवस बन गया। पाकिस्तान से कटकर पूर्वी पाकिस्तान बन गया वो ही उर्दू भारत के पश्चिम बंगाल में सेक्युलर राजनीति और वोटबैंक के लालच में सत्ता से आश्रय पाकर अपनी जगह बनाती जा रही है। पाकिस्तान के सैद्धांतिक पिता माने जाने वाले उर्दू के मशहूर शायर इकबाल के सम्मान में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री कोलकाता में इकबाल डे मनाती हैं। पूर्वी बंगाल जिस उर्दू की गुलामी से आजाद होकर बांग्लादेश बना ममता बनर्जी उसी उर्दू को 2012 में बंगाल के दूसरे हिस्से पश्चिम बंगाल में दूसरी राजभाषा का दर्जा भी दे चुकी हैं। हिन्दी विरोधी राजनीति करने वाली ममता बनर्जी शौक से पासबान-ए-उर्दू की उपाधि से सम्मानित होती हैं लेकिन श्री राम को बंगाल से बाहरी बताती हैं।
भारत की करीब 50 प्रतिशत लोगों की पहली भाषा हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा बोल देने भर से तलावरें खींच देने वाले नेता उर्दू को इस बढ़ते सांस्कृति अतिक्रमण पर कुछ नहीं बोलते क्योंकि उर्दू के पीछे मुस्लिम वोटबैंक की एक सामूहिक शक्ति जुड़ी है जिसके आगे ममता से लेकर दक्षिण की पार्टियां भी नतमस्तक हैं।
अगर आज हम भारत की स्थिति देखें तो आज भारत में करीब 50 प्रतिशत लोगों की भाषा हिन्दी बिल्कुल उसी प्रकार सात—आठ प्रतिशत लोगों की भाषा अंग्रेजी के सामने दोयम दर्जे की बनी हुई है जिस प्रकार पाकिस्तान में 3 प्रतिशत लोगों की भाषा उर्दू के सामने 50 प्रतिशत लोगों की भाषा बांग्ला बनी हुई थी।
टिप्पणियाँ