मातृभाषा केवल ज्ञान प्राप्ति ही नहीं बल्कि मानवाधिकार संरक्षण, सुशासन, शांति-निर्माण, सामंजस्य और सतत विकास के हेतु एक आधारभूत अर्हता है
21 फरवरी 1952 के दिन बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में बांग्ला भाषा को पाकिस्तान की अधिकारिक भाषा बनाने हेतु वहां के छात्रों ने ढाका विश्वविद्यालय में बड़ा प्रदर्शन किया और बाद में विधानसभा के समक्ष आन्दोलन किया जिसके दौरान पुलिस की गोलियों से कई छात्रों की मृत्यु हुई। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप 29 फरवरी 1956 को पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) की अधिकारिक भाषा उर्दू के साथ बांग्ला घोषित की गई। इसकी अन्तिम परिणति 1971 में पाकिस्तान के विभाजन के बाद बांग्लादेश के रूप में हुई। मातृभाषा के लिए छात्रों द्वारा दिए गए बलिदान की स्मृति में तब से बांग्लादेश में 21 फरवरी को “भाषा आन्दोलन दिवस” के रूप में मनाया जाता है। यूनेस्को के द्वारा वर्ष 1999 से इस दिवस को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की गई जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2008 में स्वीकृति दी।
यूनेस्को के अनुसार भाषा केवल संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है, उसकी संस्कृति, परम्परा एवं इतिहास का कोष है। भाषा के इसी महत्व को दर्शाने के लिए वर्ष 2021 को शिक्षा एवं समाज में समावेश हेतु बहुभाषिकता को प्रोत्साहन देने वाले वर्ष के रूप में मनाना तय किया है यह इस बात पर बल देती हैं कि भाषाएं एवं बहुभाषिकता, समावेश और धारणीय विकास को आगे बढ़ा सकती हैं। यूनेस्को का यह भी मानना है कि मातृभाषा आधारित शिक्षा की शुरुआत आरंभिक बाल्यवस्था (Early Childhood) से होती है और यही शिक्षा का आधार है।
शिक्षा में समावेश
विश्व में आज भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा में विकास के समान अवसर प्रदान करना एक चुनौती है । धारणीय विकास के लक्ष्य (SDG-4) एवं यूनेस्को का “एजुकेशन-2030 फ्रेमवर्क फॉर एक्शन”दोनों ही शिक्षा के सभी स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण समावेशी एवं न्याय संगत शिक्षा को सुनिश्चित करना तथा जीवनभर सीखने के अवसर सभी के लिए उपलब्ध कराने को आधारभूत बात मानते हैं। यूनेस्को के द्वारा 1960 में शिक्षा में भेदभाव के विरूद्ध हुए सम्मेलन एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाअधिकार संधियां सीखने वालों की शिक्षा में प्रतिभागिता एवं उपलब्धियों को प्राप्त करने में आनेवाली कठिनाइयों को दूर करने एवं उनकी आवश्यकताओं, विशेषताओं एवं क्षमताओं की विविधता का सम्मान करने वाली शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देने पर बल देते हैं।
वर्तमान में प्रस्तुत राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भी शिक्षा और समाज में समावेश हेतु बहुभाषिकता और अध्ययन-अध्यापन के कार्य में भाषा की शक्ति को बढ़ावा देता है। शिक्षा नीति में कक्षा पांच तक और संभव है तो कक्षा आठ तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा, क्षेत्रीय एवं घर की भाषा में शिक्षा की वकालत की है साथ ही भारतीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन एवं विकास पर भी इस नीति में बल दिया गया है। इसी प्रकार उच्च शिक्षा के स्तर पर भी बहुभाषिकता को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्वीकार किया गया है, परंतु चुनौती है इसके क्रियान्वयन की।हमारे देश में भाषा के प्रति अनेक प्रकार के भ्रम फैले हैं, जिनमें एक भ्रम है कि अंग्रेजी विकास और ज्ञान की भाषा है। इस बात से यूनेस्को सहित अनेक संस्थानों के अनुसंधान यह सिद्ध कर चुके हैं कि अपनी भाषा में शिक्षा से ही बच्चे का सही मायने में विकास हो पाता है। इस हेतु मातृभाषा में शिक्षा पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टि है। इसी मत को भारत के राष्ट्रीय मस्तिष्कअनुसंधान केंद्र तथा शिक्षासंबंधित सभी आयोगों आदि ने भी माना है। भारतीय वैज्ञानिक सी.वी.श्रीनाथ शास्त्री के अनुभव के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र, अधिक उत्तम वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था, “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वह सृजन के लायक नहीं रहे…..विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है। “इसी संदर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम के शब्दों का यहां उल्लेख आवश्यक हो जाता है, “मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की।’’ इसी प्रकार माइक्रो सॉफ्ट के सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक संक्रात सानू ने अपनी पुस्तक में दिए गए तथ्यों में यह कहा है कि विश्व में सकल घरेलू उत्पाद में प्रथम पंक्ति के 20 देश में सारा कार्य अपनी भाषा में ही कर रहे हैं, जिनमें केवल चार देश, अंग्रेजी भाषी हैं, क्योंकि उनकी मातृभाषा अंग्रेजी है। वे आगे लिखते हैं कि विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे पिछड़े हुए 20 देशों में विदेशी भाषा में या अपनी और विदेशी दोनों भाषा में उच्च शिक्षा दी जा रही हैं तथा शासन-प्रशासन का कार्य भी इसी प्रकार किया जा रहा है। उपर्युक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित करने की दृष्टि से भारतीयों को प्राप्त नोबल पुरस्कार और अपनी भाषा में शिक्षा देने वाले देश इजरायल, जापान, जर्मनी आदि के विद्वानों द्वारा प्राप्त नोबेल पुरस्कारों की तुलना करने से स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है।
बहुभाषिकता के महत्व के उपरांतराष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन में पिछड़ रहे हैं। यूनेस्को के अनुसार विश्व में बोली जाने वाली लगभग छः हजार भाषाओं में से 43% भाषाएं धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर है । पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे के अनुसार भारत में 780 भाषाएं है तथा पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएं लुप्त हो गई है तथा 197 भाषाएं लुप्तप्राय होने के कगार पर है। आधुनिक, दिची, घल्लू, हेल्गो तथा बो कुछ ऐसी भाषाएं है जो देश में विलुप्त हो चुकी हैं।
भारत सरकार की 2011 की जनगणना के अनुसार 121 अधिकारिक भाषाएं है। महाराष्ट्र की वदारी एवं कोल्हाटी, कर्नाटक-तेलंगाना की गोल्ला, गोसारी ऐसी भारतीय भाषाओं के उदाहरण है जिनके बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम होने के कारण से वे भारत सरकार की सूची से बाहर हैं। भारत जैसे देश में जहां ज्ञान परंपरागत रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ही चलता आया है, ऐसे में लेखन प्रणाली के अभाव में किसी भाषा को भाषा के रूप में गणना नहीं करना देश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक वास्तविकताओं से परे है। इस प्रकार के नियमों से भी अनेक भाषाएं लुप्त हो रही हैं।भारत सरकार को अविलम्ब ऐसे नियमों पर पुनर्विचार कर समीक्षा करनी चाहिए ताकि 2021 की जनगणना के नियमों में सुधार कर वास्तविक जनगणना हो सके।
मातृभाषा केवल ज्ञान प्राप्ति ही नहीं बल्कि मानवाधिकार संरक्षण, सुशासन, शांति-निर्माण, सामंजस्य और सतत विकास के हेतु एक आधारभूत अर्हता है। इसी प्रकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और समाज में समावेश के लिए बहुभाषिकता महत्व रखती हैं। विविधता में हमारे विश्वास के उपरांत, हम, विशेष रूप से बहुभाषिकता को सभी स्तरों पर विशेष कर शिक्षा के स्तर पर स्थापित करने में सफल नहीं हो पाएं हैं। इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 2021 को“शिक्षा एवं समाज में समावेश हेतु बहुभाषिकता को प्रोत्साहन” वर्ष घोषित किया, ताकि उन्हें बढ़ावा देने के लिए तत्काल कार्रवाई को प्रोत्साहित किया जा सके।
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव हैं )
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