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हजारों चेहरे हैं इस ‘आंदोलनजीवी एक्टिविस्ट’ गैंग के

by WEB DESK
Feb 20, 2021, 03:58 am IST
in भारत, दिल्ली
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‘आंदोलनजीवी एक्टिविस्ट’ गैंग के कई चेहरे हैं. मंजिल एक ही है. हिंदू समाज को बदनाम करना, नीचा दिखाना. इस्लाम का महिमामंडन

सनातन धर्म के सामने बहुत सी चुनौतियां प्राचीन काल से रही हैं. लेकिन हर चुनौती का सामना हमने कर लिया क्योंकि हमारा सामाजिक ताना-बाना हमारी ताकत है. हमारी आस्था, आस्था बिंदु अखंड हैं. वामपंथी गैंग को ये बखूबी पता है कि हमारे आस्था एवं मान बिंदुओं पर चोट करना उनके एजेंडा के लिए जरूरी है. वे हमारे गौरवशाली इतिहास को हमसे छिपाना चाहते हैं, हमसे अलग करना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि हम अपना गर्व भूल जाएं. हमारा समाज बंटे और हम कमजोर हो जाएं. ये काम करने के लिए वामपंथी गैंग इतिहासकार का रूप लेता है, साहित्यकार का रूप लेता है, समाजसेवी का रूप लेता है, कानूनविद् का रूप लेता है, पत्रकार का रूप धर लेता है, मानवाधिकार और पर्यावरण का स्वांग रचता है. मैकाले ने अगर हमारी शिक्षा का अंग्रेजीकरण किया, तो इन वामपंथियों ने शिक्षा का इस्लामीकरण कर डाला. मुगलों ने अगर हिंदुओं को कन्वर्जन करने की कोशिश की, तो वामपंथियों ने हिंदू समाज को बांटने के लिए हर पैंतरा चला. ये आंदोलनजीवी एक्टिविस्ट किताबों में भी मौजूद हैं और आंदोलनों में भी.

25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुआ डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि ‘वामपंथी इसलिए इस संविधान को नही मानेंगे क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नही हैं. वर्ष 1956 में नेपाल में काठमांडू में आयोजित बौद्ध विश्व फेलोशिप के चौथे सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर एक निबंध प्रस्तुत किया था जिसका शीर्षक था— ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’। इसमें उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘साम्यवाद लाने के लिए कार्ल मार्क्स और कम्युनिस्ट किन तौर तरीकों को अपनाते हैं, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है. साम्यवाद लाने के लिए कम्युनिस्ट जो जरिया अपनाएंगे…वह हिंसा और विरोधियों की हत्या है. निस्संदेह कम्युनिस्टों को तुरंत परिणाम प्राप्त हो जाते थे क्योंकि जब आप मनुष्यों के संहार का तरीका अपनाएंगे तो आपका विरोध करने के लिए लोग बचेंगे ही नहीं.’ क्या आज भी ये एक्टिविस्ट गैंग यही नहीं कर रहा है. वह हत्या भी कर रहा है और वैचारिक हत्या भी.

भारतीय इतिहास के हिंदू-द्रोही

आजादी के बाद का इतिहास लेखन सुपर-फोर यानी रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, आरएस शर्मा और डीएन झा की बपौती रही. भारत में पाठ्य पुस्तकों के कंटेंट्स से लेकर इतिहास से जुड़े नैरेटिव तैयार करने तक, इन सबमें वामपंथियों का ही रोल रहा है. इतिहासकारों ने वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होकर भारतीय इतिहास से छेड़छाड़ किया और हिन्दू धर्म व हिन्दू राजाओं को नीचा दिखा कर मुगलों को महान बताया. उन्हीं में से एक थे द्विजेन्द्र नारायण झा. राम मंदिर से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय को इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा नेस्तानाबूद करने के मसले पर इस कथित इतिहासकार ने झूठ और सिर्फ झूठ फैलाया. अब झा साहब का देहांत हुआ, तो इस बात का पर्दाफाश हुआ कि कि वो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) के सदस्य थे. भाकपा ने उनके निधन पर शोक सभा की. बताया कि झा के शरीर को सम्मान स्वरूप लाल ध्वज ये ढका गया. यानी ये वामपंथी कैडर के सक्रिय सदस्य जीवन भर एक इतिहासकार के रूप में वामपंथी झूठ परोसते रहे और इससे दुखद क्या होगा कि इनके परोसे झूठ अध्ययन प्रणाली तक में रचे-बसे हैं. 4 फरवरी 2021 को जब झा का निधन हुआ, तो तमाम वामपंथी घर पर जुटे. इतिहास वैसे तो इतिहास होता है, लेकिन वामपंथी जिस इतिहास को लिखते हैं, वो वैज्ञानिक इतिहास होता है. सीपीआई का भी कहना है कि उनके निधन से इतिहास के वैज्ञानिक लेखन को बहुत नुकसान पहुंचा. वामपंथियों की नजर में झा सांप्रदायिक इतिहास के खिलाफ लड़ने वाला योद्धा थे. अब इन दो जुमलों से आप समझ सकते हैं कि इनके इतिहास लेखन का उद्देश्य कभी इतिहास लिखना था ही नहीं. अपने जीवन काल में भी झा ने ऐसे नैरिटव गढ़ने की कोशिश की, जिन पर सिर्फ हंसा जा सकता है. ये झा जैसे ही इतिहासकार हैं, जिनकी वजह से हम आज भी ललितादित्य या चंद्रगुप्त के स्थान पर अकबर को महान पढ़ रहे हैं. झा ऐसे इतिहासकारों के गैंग के सरगना थे, जिनकी वजह से देश में स्थापत्य का अकेला नमूना सिर्फ ताजमहल बनकर रह गया. ये झा, रोमिला आदि का गैंग न होता, तो राम मंदिर का विवाद इतने दिन चलता ही नहीं. असल में विवादित स्थल पर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, यह तथ्य कभी भी ऐतिहासिक रूप से विवादास्पद नहीं था. इस बारे में प्रोफेसर लाल की खुदाई के निष्कर्ष ही अदालत को किसी भी फैसले पर पहुंचने के लिए काफी थे. सुन्नी वक्फ बोर्ड को उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिटायर प्रोफेसर आर. एस. शर्मा, इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च के पहले चेयरमैन एम. अतहर अली, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर व इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डी. एन. झा और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सूरजभान ने आनन-फानन में तमाम फर्जी सुबूतों और दावों के साथ एक रिपोर्ट तैयार कर डाली. सुन्नी वक्फ बोर्ड इसी रिपोर्ट को लेकर मुकदमा लड़ता रहा. हाईकोर्ट जब सूरजभान को क्रास एक्जामिनेशन के लिए बुलाया, तो पता चला कि तमाम फर्जी किस्म के दावे इस रिपोर्ट में किए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट में अपील पर सुनवाई के दौरान भी अदालत ने इसे सिर्फ एक राय माना, सुबूत नहीं.
डीएन झा साल 2006 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष थे. नालंदा विश्वविद्यालय के विषय में यह स्थापित तथ्य है कि कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय धावा बोला और आग लगा दी. लेकिन झा तो इन मुस्लिम हत्यारे आक्रांताओं के हर कलंक को मिटाने की कसम खाकर बैठे थे. उन्होंने 2006 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर एक भाषण दिया. कहा-एक तिब्बती परंपरा के मुताबिक 11 वीं सदी में कलचुरी के राजा कर्ण ने मगध में बौद्ध मंदिरों और मठों को तबाह कर दिया था. तिब्बती किताब पग सैम जोन जांग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय में आग हिंदू चरमपंथियों ने लगाई. अब जरा शब्दों पर गौर कीजिए. वह दौर यूपीए का शासनकाल नहीं था. न ही कहीं हिंदू चरमपंथी शब्द यूपीए से पहले देखा-सुना गया. लेकिन झा के लिए तो यह शब्द प्रातः स्मरणीय रहा था. झा के ये भाषण वामपंथी इतिहासकार बीएनएस यादव के हवाले से इस आरोप को लगा रहा था. लेकिन यादव तक ने लिखा था कि ये पुस्तक तिब्बत की डाउटफुल (यानी संदिग्ध) ट्रेडिशन है. झा डाउटफुल ट्रेडिशन को भी खा गए. जिस किताब का हवाला दिया जा रहा है वह सुंपा पो येके पाल जोर ने लिखी थी. जो कि 17वीं सदी के मध्य में लिखी गई. यानी नालंदा के विध्वंस के पांच सौ साल बाद. जबकि नालंदा विश्वविद्यालय की घटना के समकालीन मौलाना मिनहाजुद्दीन की किताब तबकत ई नसीरी में इस घटना का विस्तार से वर्णन है. इसमें लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने दो सौ घुड़सवारों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय पर हमला किया. यहां रहने वाले ब्राह्मणों की हत्या कर दी. बख्तियार खिलजी लूट के माल के साथ जब कुतुबुद्दीन ऐबक के पास पहुंचा, तो उसने खिलजी का बहुत सम्मान किया. अब झा को उस दौर के एक दस्तावेज पर भरोसा नहीं है. वह हिंदुओं को बदनाम करने के लिए पांच सौ साल बाद एक संदिग्ध दस्तावेज उठा लाते हैं. यही इस ‘एक्टिविस्ट गैंग’ की महानता है. ये जब तब अपने पसंद के निष्कर्ष नहीं निकाल लेते, झूठ गढ़ते रहते हैं.

अरुण फरेरियाः ड्रग्स से लेकर माओवाद
अरुण फरेरिया भी एक ‘आंदोलनजीवी एक्टिविस्ट’ है. मुखौटा समाजसेवा का है, लेकिन चेहरा नक्सली ही है. अरुण फरेरिया के मामले में हम आज खासतौर पर इसलिए चर्चा कर रहे हैं क्योंकि यह दर्शाता है कि कैसे ‘माओवादी एक्टिविस्ट’ को बचाने के लिए एक पूरा ‘इको-सिस्टम’ काम करता है. कैसे गंभीर माओवादी घटनाओं में शामिल होने के बावजूद, पुख्ता सुबूत होने के बावजूद अरुण फरेरिया 2013 में रिहा हुआ. और फिर आखिरकार वह भीमा कोरेगांव मामले के बाद दोबारा उन्हीं गतिविधियों में लिप्त होने के कारण गिरफ्तार हुआ. मायने ये कि इन ‘एक्टिविस्टों’ को बचाने के लिए पूरी फौज मौजूद हैं. इनका बुद्धिजीवी का चोला बना रहता है. ये जेल जाते हैं. फिर जेल में बंद अपराधियों के हक की लड़ाई का नाटक शुरू कर देते हैं. जेल में बैठकर ये किताब जरूर लिखते हैं. और फिर बाहर इनका नेटवर्क ऐसी ‘मार्केटिंग’ करता है कि शोषक व्यवस्था किसी शोषित समर्थक की आवाज को कुचलने की कोशिश करती है. चंद्रनगर पुलिस की डायरियों में सेंट जेवियर में पढ़े फरेरिया का पूरा कच्चा चिट्ठा दर्ज है. यह विद्यार्थी प्रगति संगठन नाम से एक संस्था चलाता था. इस संस्था पर माओवादी गतिविधियों में शामिल होने के कारण पहले से सरकार नि प्रतिबंध लगा रखा था. इस संगठन के माओवादियों के साथ मिलकर उसने देश और समाज को तोड़ने वाली अपनी गतिविधियां जारी रखीं. फिर इसने अरुण भेल्के के साथ मिलकर देशभक्ति युवा मंच बना लिया. देशभक्ति शब्द झांसा देने के लिए इस्तेमाल किया गया था. इस संगठन का असल काम भाकपा (माओवादी) के लिए युवाओं की भर्ती करना था. 2006 में भंडारा जिले में दलित परिवार के चार सदस्यों की रहस्यमयी तरीके से हत्या हुई. इस हत्या को लेकर फरेरिया ने पूरे इलाके में आग लगाने का प्रयास किया. उसकी मॉड्स आपरेंडी (कार्य प्रणाली) तमाम मामलों में यही थी. माओवादियों का सपना हिंदू समाज को बांटना है. वही काम फरेरिया करता था. नाम से ही समझ सकते हैं कि इसकी आस्था कहां है, लेकिन यह दलित बनाम सवर्ण जंग का सपना देखता रहा है. मई 2007 में उसे गिरफ्तार करना पड़ा. पड़ा इसलिए लिख रहे हैं कि तमाम मामलों के बावजूद महाराष्ट्र सरकार ने पुलिस को फरेरिया की गिरफ्तारी की छूट नहीं दी थी. उसे यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया. देशद्रोह के आरोप में फरेरिया चार साल जेल में रहा. इस दौरान उसकी रिहाई के लिए पूरा एक्टिविस्ट गैंग सक्रिय रहा. आखिरकार 2011 में उसे बरी कर दिया गया. जेल से रिहा होने के बाद उसने वकालत की. ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लायर्स’ और ‘कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स’ में शामिल होकर उसने अपनी गतिविधियां जारी रखीं. मानवाधिकारों के नाम पर माओवादियों को बचाने वाले गैंग का वह सक्रिय सदस्य बन गया. वह नौजवान भारत सभा में शामिल हो गया. यह संगठन माओवादी गतिविधियों को चलाने का मुखौटा है. मायने ये कि जिन आरोपों से उसे बरी किया गया, उन गतिविधियों में वह रिहाई के बाद भी सक्रिय था. यही इको-सिस्टम है. केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद तो मानो वह जुनूनी हो गया. हर मंच और हर स्तर पर उसने अपने साथियों के साथ ये दुष्प्रचार शुरू कर दिया कि केंद्र में मोदी सरकार के आते ही मुस्लिम और ईसाई खतरे में आ गए हैं. फरेरिया एक प्रशिक्षण प्राप्त माओवादी है. आंध्र प्रदेश पुलिस, ‘एंटी टेरेरिस्ट स्कवॉड’, ‘एंटी नक्सल टीम’ ने उससे दस दिन से अधिक पूछताछ की. कोई कुछ नहीं उगलवा पाया. आखिरकार ‘नार्को टेस्ट’ के बाद ये खुलासा हुआ कि वह माओवादी आंदोलन का बड़ा ओहदेदार है. लेकिन इस सबका भी कोई फायदा हुआ नहीं. इको-सिस्टम अपना काम कर रहा था और एक बार फरेरिया 2014 में पुलिस को ठेंगा दिखाकर अपनी गतिविधियों में लग गया. 2007 से 2014 तक गिरफ्तारियों, पूछताछ, नार्को टेस्ट…. सब कुछ के बीच उसके खिलाफ लगे आरोप रहस्यमयी तरीके से ध्वस्त हो जाते थे. फिर वर्ष 2018 आया. अगस्त 2018 में भीमा कोरेगांव साजिश के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया. एक बार फिर पूरा ‘इको-सिस्टम’ वरवर राव से लेकर फरेरिया तक खूंखार माओवादियों को निर्दोष साबित करने में जुटा है.

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