‘आंदोलनजीवी एक्टिविस्टों’ के कितने रूप हो सकते हैं. ये किन संगठनों के रूप में काम कर रहे हो सकते हैं. इनके मुखौटे कुछ और हैं और उद्देश्य कुछ और. आज फिर हम ऐसे चार ‘एक्टिविस्ट’ चेहरों का नकाब नोचेंगे, जो असल में नक्सलियों की शहरी योजना का हिस्सा हैं
वर्ष 2000 का अंत आते-आते माओवादियों को इस बात पर यकीन हो गया था कि वह जंगलों में सुरक्षा बलों से लड़ते हुए अपने मकसद को हासिल नहीं कर सकते. उनका ‘ओवरग्राउंड कैडर’ (परदे के बाहर के कार्यकर्ता ) हर जगह था. मसलन साहित्यकार, शिक्षक, पर्यावरणविद्, कानूनविद्, सांस्कृतिक कर्मी… सब जगह. नक्सल नेतृत्व इस बात को महसूस करने लगा था कि उसका विस्तार जंगलों से बाहर नहीं हो पा रहा है. वह जंगलों में कितनी भी बड़ी हिंसा कर लें, उसे वह तवज्जो नहीं मिलती, जो शहरों में उसके ओवरग्राउंड वर्कर की बात को मिलती है. नक्सली नेतृत्व ने जंगलों से अपनी लड़ाई शहरों की गली-गली तक पहुंचाने के लिए दो दस्तावेज तैयार किए. 21 सितंबर 2004 को ‘स्ट्रेटजी एंड टेक्टिक्स ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन’ (स्टियर) और 2007 में ‘अर्बन पर्सपेक्टिवः अवर वर्क इन अर्बन एरिया’ (यूपीयूए). स्टियर को उस समय तैयार किया गया, जब दो बड़े नक्सल संगठनों का विलय हुआ. यूएपीए इसी का विस्तार है. यूएपीए कोबाद गांधी के दिमाग की उपज बताया जाता है. इस दस्तावेज के इस अंश पर गौर कीजिए, तो आप समझ पाएंगे कि इस रक्तबीज के कितने रूप है-
इस तरह का काम (नक्सली विस्तार) विभिन्न तरह के संगठनों के जरिये किया जा सकता है. सबसे उचित वे संगठन होंगे, जो संघर्षशील हों. जैसे ट्रेड यूनियन, मलिन बस्ती और अन्य स्थानीय आबादी आधारित सगठन, युवा संगठन, बेरोजगारों के संगठन, छात्र संगठन व यूनियनें, महिला संगठन, दैनिकों यात्रियों के संगठन आदि. इनके अलावा कुछ और संगठन भी हैं, जो लोक कल्याण, समुदाय आधारित या फिर स्वयं सहायता संगठन हैं. जैसे कर्मचारियों की सहकारी संस्थाएं, सांस्कृतिक संगठन, खेल क्लब, जिमनेजियम, लाइब्रेरी, भजन मंडलियां, गैर सरकारी कल्याण संगठन, महिला कल्याण संगठन, जाति आधारित संगठन, राष्ट्रीयता आधारित वेलफेयर संगठन, अल्पसंख्यक संगठन आदि. इसके अलावा ऐसे संगठन भी हैं, जिनका उदय किसी विशेष मुद्दे के लिए विशेष काल में या फिर किसी विशेष त्योहार पर होता है.
अब आप समझ सकते हैं कि इन ‘आंदोलनजीवी एक्टिविस्टों’ के कितने रूप हो सकते हैं. ये किन संगठनों के रूप में काम कर रहे हो सकते हैं. इनके मुखौटे कुछ और हैं और उद्देश्य कुछ और. आज फिर हम ऐसे चार ‘एक्टिविस्ट’ चेहरों का नकाब नोचेंगे, जो असल में नक्सलियों की शहरी योजना का हिस्सा हैं.
गौतम नवलखाः एक्टिविस्ट के भेस में आईएसआई का एजेंट
‘एक्टिविस्टों’ की माओवादी फसल की एक और पैदावार है गौतम नवलखा. जैसी की इन एक्टिविस्टों की कार्यशैली है, मुखौटा लगाने के लिए ये बड़े सजते से लोकतांत्रिक नामों वाले संगठन खड़े करते हैं. वैसे ही नवलखा पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) का सचिव था. वह ‘इंटरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल ऑन ह्यूमन राइट्स एंड जस्टिस इन कश्मीर’ का संयोजक भी रहा. गौतम नवलखा उस दोधारी तलवार का नाम है, जो माओवादियों का तो दुलारा है ही, साथ ही पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का भी मोहरा है. नवलखा जैसे ‘एक्टिविस्ट’ ही इस कड़ी को स्थापित करते हैं कि माओवादी और आईएसआई भारत को अस्थिर करने के लिए एकजुट होकर काम कर रहे हैं. नवलखा कश्मीर में बहुत घूमा. पाकिस्तान के एजेंडा को बल देता रहा. पाकिस्तान, प्रशांत भूषण की तरह उसकी भी यही राय है कि कश्मीर में जनमत संग्रह हो. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में ‘एक्टिविस्टों’ की चांदी थी, नवलखा भी कश्मीर का कर्ता-धर्ता बना बैठा था. इसका आईएसआई से गठजोड़ कोई छिपी बात नहीं थी. लेकिन कांग्रेस सरकार को तो ऐसे लोग प्यारे थे.
आईएसआई का एक मोहरा है गुलाम नबी फई. अमेरिका की नागरिकता ले चुका है. उसने आईएसआई के पैसे से कश्मीर अमेरिकन काउंसिल (केएससी) खड़ी की. फई बाद में पाकिस्तान के पक्ष में अमेरिका में लॉबिंग के दौरान मनीलांड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार हुआ. करोड़ों डॉलर आईएसआई ने फई और केएसी पर खर्चे किए. केएसी का सुपरस्टार वक्ता और कोई नहीं गौतम नवलखा ही था. तो ये है आईएसआई के साथ नवलखा का सीधा कनेक्शन. 2009 में केएसी की कान्फ्रेंस में नवलखा ने कहा, अगर शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से बात नहीं बनी तो, आगे क्या. इस देशद्रोही के शब्द सुनिए- अगर कश्मीरियों की इच्छा के अनुसार समाधान नहीं निकलता है, तो सशस्त्र संघर्ष शुरू हो जाएगा, जिसका समूचे दक्षिण एशिया पर असर पड़ेगा. नवलखा इस कदर पाकिस्तान की बोली बोल रहा था कि फारुख अब्दुल्ला तक बौखला गए. उन्होंने कहा कि ये तथाकथित लेखक चाहता क्या है, क्या ये कश्मीर में आग लगाना चाहता है. मई 2011 में जब नवलखा जम्मू-कश्मीर पहुंचा, तो उमर अब्दुल्ला सरकार ने उसे श्रीनगर हवाई अड्डे पर ही रोक दिया. पुलिस ने धारा 144 के तहत उसके कश्मीर में घुसने पर रोक लगा दी. लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने नवलखा की देशद्रोही गतिविधियों से आंखें मूंदे रखीं. आईएसआई की कठपुतली बने नवलखा ने दिसंबर 2011 में एक भारतीय सेना के खिलाफ एक रिपोर्ट बनाई. इस रिपोर्ट में डेढ़ सौ से अधिक सेना के आला अफसरों पर अवैध गिरफ्तारी और हत्या जैसे संगीन आरोप लगाए. मजेदार बात देखिए. यह अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपता है और तत्कालीन कांग्रेस सरकार कहती है, ‘थैंक्यू वैरी मच’. नवलखा तीन दशकों तक आईएसआई के इशारे पर अपना एजेंडा चलाता रहा. आखिरकार वह अपनी साजिशों के चरम पर पहुंचा. 2018 की भीमा कोरेगांव हिंसा से जुड़े मामले में वह सुप्रीम कोर्ट से जमानत याचिका खारिज होने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया. उसके खिलाफ दाखिल आरोपपत्र में एनआईए ने कहा कि उसने भारत सरकार का तख्ता पलट करने की योजना बनाने के लिए कई बार फई से मुलाकात की. पुणे पुलिस के मुताबिक उन्हें जांच के दौरान कई सीडी, ईमेल और पेन ड्राइव मिलीं. इसमें रूसी ग्रेनेड लांचर, जर्मन आटोमेटिक ग्रेनेड लांचर, नाइट्रेट से तैयार किए जाने वाले बम, एम-4 राइफलें और चार लाख कारतूस हासिल करने की योजना का विस्तृत विवरण था. ये हथियार और गोला-बारूद नेपाल या मणिपुर के रास्ते देश के अंदर लाया जाना था. इस सारे सामान को खरीदने में आठ करोड़ रुपये खर्च करने की योजना थी. नवलखा ये सारा इंतजाम किस लिए कर रहा था. 2019 में पुणे पुलिस ने आरोपों का प्रारूप जमा किया. इसके मुताबिक इस सारे गोला-बारूद का इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या और देश में तख्ता पलट के लिए किया जाना था. पुलिस का दावा है कि रोड शो के दौरान उसी तरह नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रची गई थी, जैसे राजीव गांधी की हत्या हुई थी. जांच में ये भी पता चला कि कश्मीर में सक्रियता के दौरान आईएसआई से नवलखा के करीबी रिश्ते बन गए थे. आईएसआई के साथ ही वह हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडरों से भी इन हथियारों को जुटाने के लिए संपर्क में था. इसके लिए उसने कई बार घाटी का दौरा भी किया. नवलखा की गिरफ्तारी का सफर भी कम बड़ा उदाहरण नहीं है कि इस एक्टिविस्ट गैंग का इको-सिस्टम कैसे काम करता है. जब भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तारियां शुरू हुई, तो नवलखा हाईकोर्ट पहुंच गया. चार बजे उसने ट्रांजिट रिमांड को लेकर राहत मांगी, छह बजे उसे राहत मिल गई. है न सुपरफास्ट ज्यूडिशरी. अदालत में दांव-पेच चले. वकील पता है कौन थे. कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी. ये देश के सबसे महंगे वकील हैं. इस तरह के ‘एक्टिविस्टों को बचाने में इनको महारथ हासिल है। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने उसे कोई राहत देने से इंकार कर दिया और गिरफ्तारी हुई. आईएसआई और माओवादियों से मिलकर इतनी खतरनाक साजिश रचने वाला नवलखा आज भी गैंग की नजर में एक ‘एक्टिविस्ट’ है. वायर, प्रिंट और इसी तरह की कम्युनिस्टों के भाड़े पर चलने वाली एजेंडा वेबसाइट, बेरोजगार पत्रकार, वामपंथी, जिहादी, ‘एक्टिविस्ट नवलखा’ को संत साबित करने में जुटे हैं. ये गैंग इसी तरह से काम करता है.
कबीर कला मंचः सांस्कृतिक गतिविधियों की आड़ में छिपे कई चेहरे
माओवादी नए-नए अवतार लेते हैं. ‘अर्बन नक्सल’ के चार्टर के विषय में हमने आपको प्रस्तावना में बताया था. साथ ही ये भी कि ये किसी भी रूप में हो सकते हैं. सबसे बेहतरीन टेस्ट केस कबीर कला मंच के नाम पर चलने वाले एक सांस्कृतिक संगठन को मान सकते हैं. नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि कला के लिए समर्पित एक संस्था है, जिसे कलाकार चलाते होंगे. इसके गठन के कालखंड को देखिए, खुद समझ जाएंगे कि ये कौन हैं और कैसे अस्तित्व में आए. 2002 के गुजरात दंगे के बाद सांस्कृतिक सौहार्द बढ़ाने के लिए कबीर कला मंच की स्थापना हुई. लेकिन ये कभी कलाकार या सांस्कृतिक संगठन था ही नहीं. कला और संस्कृति तो नक्सली गतिविधियों का मुखौटा थी. इन माओवादी इच्छाधारियों का असली रूप लाने में भीमा कोरोगांव साजिश ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई. माओवादियों का इरादा महाराष्ट्र में जातीय आग लगाना था. उनकी साजिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करके देश में तख्ता पलट की थी. लेकिन इस साजिश में वे अपने ही घर को आग लगा बैठे. इस मामले की जांच शुरू हुई, तो पुलिस ने तमाम ऐसे पंपलेट, किताबें और आपत्तिजनक दस्तावेज बरामद किए, जो देश में सशस्त्र विद्रोह फैलाना चाहते थे. ये साहित्य कबीर कला मंच से जुड़ा था. कबीर कला मंच के सागर गोरखे, रमेश गायचोर और ज्योति राघोवा जगतपा को गिरफ्तार किया गया. नाम तो संस्था का कबीर कला मंच है, लेकिन एनआईए के मुताबिक इन्होंने जंगल में नक्सली शिविर में हथियार और गोला-बारूद का प्रशिक्षण लिया था. कबीर कला मंच के लिए कोई नई बात नहीं है. मई 2011 में महाराष्ट्र सरकार ने इस संस्था पर कार्रवाई की. तब माओवादी एक्टिविस्ट शीतल साठे और तमाम कार्यकर्ता भूमिगत हो गए. शीतल साठे को 2013 में गिरफ्तार किया गया. बाद में उसे पति के साथ बांबे उच्च न्यायालय से जमानत मिल गई. पता है जमानत का आधार क्या था. शीतल साठे गर्भवती थी. ‘एक्टिविस्टों’ के गैंग ने दिशा रवि जोसफ की तरह ही तब भी शीतल को साठे को लेकर बहुत शोर मचाया था कि एक गर्भवती महिला को गिरफ्तार कर लिया गया है. जबकि शीतल साठे भाकपा (माओवादी) की गतिविधियों को अंजाम दे रही थी. उसे हिदायतें मिल रही थीं एंजेला सोनटके और उसके पति मिलिंद तेलतुम्बडे से. इन गिरफ्तारियों के बाद ठीक माओवादी संगठन की अंदाज में कबीर कला मंच रक्षा समिति का गठन किया गया. कांग्रेस और उस जैसी पार्टियों की सरकारों के कार्यकाल में अपनी डॉक्यूमेंट्री पर कई पुरस्कार झटक चुका आनंद पटवर्धन जैसा फिल्मकार भी इस समिति से जुड़ा. कबीर कला मंच इस पूरे एक्टिविस्ट गैंग और अर्बन नक्सलियों से कैसे जुड़ा है, जरा गौर कीजिए. 2014 में सचिन माली की एक किताब का विमोचन था. इसमें गिरिश कर्नाड, प्रकाश अंबेडकर, मिहिर देसाई, सतीश कलसेकर, जे.वी. पवार, रतना पाठक शाह, रतनाकर महात्कारी, संभाजी भगत के रूप में पूरी मंडली मौजूद थी. ये दरअसल एक संदेश देने की कोशिश थी. सचिन माली की हाईकोर्ट में जमानत याचिका खारिज होने के बाद ये जलसा रखा गया था. इससे पहले भी इस बात का खुलासा पुलिस कर चुकी थी कि कबीर कला मंच से जुड़े युवा गड़चिरोली के जंगल में नक्सली प्रशिक्षण ले चुके हैं. तत्कालीन विशेष पुलिस महानिरीक्षक (नागपुर रेंज) रविंद्र कदम ने खुलासा किया था कि सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने के लिए ली गई इस ट्रेनिंग के सुबूत पुलिस के पास हैं. दरअसल कबीर कला मंच जैसे संगठनों का गठन माओवादी करते ही इसलिए हैं कि अधिक से अधिक युवाओं कला और संस्कृति के नाम पर जोड़ा जाए. फिर इनका ब्रेन वॉश करके माओवाद की ओर लाया जाए.
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