बंगाल में जन्मे स्वामी विवेकानंद ने अनेक अवसरों पर रामायण पर लंबे व्याख्यान दिये थे। उन्होंने राम, सीता, हनुमान आदि के चरित्र की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि राम-सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श और भारतीय भाव के प्रतिनिधि हैं, भारत की नारियों के लिए सीता ही आदर्श हैं
जनवरी की 23 तारीख। राष्ट्रनायक सुभाषचंद्र बोस की जन्मतिथि। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोलकाता में ‘पराक्रम दिवस’ कार्यक्रम का उद्घाटन किया। समारोह में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी आमंत्रित थीं। उन्हें जब संबोधन के लिए आमंत्रित किया गया तो उपस्थितजनों ने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाकर उनका स्वागत किया। लेकिन उन्होंने इसमें अपमान समझा और सुभाषचंद्र बोस पर बिना कुछ बोले, चली गर्इं। तब से यह फिर विचारणीय प्रश्न बन गया है कि जय श्रीराम का संबोधन अपमानजनक कैसे हो गया? वह भी बंगाल की उस भूमि पर, जहां अरविंद घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद जैसी विभूतियों ने रामायण, महाभारत, गीता जैसे हिन्दू धर्म के कालजयी ग्रंथों को भारतीय प्रज्ञा की मुख्यधारा के रूप में स्वीकार किया है। सुभाषचंद्र बोस की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में भगवान राम का यह अनादर किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं था।
स्वामी विवेकानंद ने इसी बंगाल में जन्म लिया था। उन्होंने रामायण तथा महाभारत पर लंबे व्याख्यान दिये थे और विभिन्न अवसरों पर अपने व्याख्यानों में रामकथा के पात्रों-राम, सीता, हनुमान आदि की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि राम-सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श और भारतीय भाव के प्रतिनिधि हैं।
स्वामी विवेकानंद के बचपन का एक रोचक प्रसंग है। उस समय उनकी किशोरावस्था थी। वे बाहर खेलकूद में रमे रहते, लेकिन जब भी पड़ोस में रामायण कथा होती तो खेलकूद छोड़कर कथा-स्थल पर पहुंच जाते और मन लगाकर सुनते। एक दिन उन्होंने रामकथा में सुना कि हनुमान जी कदलीवन में रहते हैं तो उन्हें इस पर इतना विश्वास हो गया कि वे उस दिन निकट के एक उद्यान में केले के पेड़ के नीचे रातभर हनुमानजी का दर्शन पाने की इच्छा से बैठे रहे। (विवेकानंद साहित्य, खंड 6, पृष्ठ 685)। रामकथा के प्रति उनका यह विश्वास जीवनभर बना रहा। उन्होंने वाल्मीकि की रामायण तथा तुलसीदास के रामचरितमानस का गंभीर अध्ययन किया और रामायण पर लंबा व्याख्यान दिया। उनके मन में भगवान राम, सीता तथा हनुमान आदि के प्रति भक्तिभाव ही उत्पन्न नहीं हुआ, बल्कि वे इन्हें भारतीय आदर्शों का प्रतिरूप मानने लगे। उनका यह विश्वास बन गया कि राम-सीता आदि ने देश में आदर्श समाज की संरचना की है और वह भारत राष्ट्र की उज्जवलतम उपलब्धि है।
स्वामी विवेकानंद ने मद्रास में दिये अपने व्याख्यान में राम और सीता के संबंध में जो कहा वह सैकड़ों वर्ष से भारतीय मन में विद्यमान रहा है। स्वामीजी कहते हैं, ‘प्राचीन वीर युगों के आदर्श स्वरूप, सत्य परायणता और समग्र नैतिकता के आधार मूर्तिस्वरूप, आदर्शतनय, आदर्शपति, आदर्श पिता और सर्वोपरि आदर्श राजा राम का चरित्र हमारे सम्मुख ऋषि वाल्मीकि के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। महाकवि ने जिस भाषा में रामचरित का वर्णन किया है, उससे अधिक पावन, प्रांजल, मधुर तथा सरल भाषा में यह हो ही नहीं सकता, और सीता के विषय में क्या कहा जाये? तुम संसार के समस्त प्राचीन साहित्य को छान डालो, मैं तुमसे नि:संकोच कहता हूं कि तुम संसार के भावी साहित्य का भी मंथन कर सकते हो, किंतु उसमें से तुम सीता के समान दूसरा चरित्र नहीं निकाल सकोगे। सीता का चरित्र अद्वितीय है। यह चरित्र सदा के लिए एक ही बार चित्रित हुआ है। राम तो कदाचित अनेक हो गये हैं, किंतु सीता और नहीं हुर्इं। भारतीय स्त्रियों को जैसा होना चाहिए, सीता उनके लिए आदर्श हैं। स्त्री चरित्र के जितने भारतीय आदर्श हैं, वे सब सीता के चरित्र से ही उत्पन्न हुए हैं और समस्त आर्यावर्तभूमि में सहस्रों वर्षों से वे स्त्री-पुरुष-बालक सभी की पूज्य हैं। महामहिमामयी सीता स्वयं शुद्धता से भी शुद्ध हैं, धैर्य तथा सहिष्णुता का सर्वोच्च आदर्श सीता सदा इसी भाव से पूजी जायेंगी। सीता ने अविचल भाव से महादु:ख का जीवन व्यतीत किया। वही नित्य साध्वी, सदा शुद्ध स्वभाव सीता, आदर्श पत्नी सीता, मनुष्य लोक की आदर्श, देवलोक की भी आदर्श नारी, पुण्य-चरित्र सीता सदा हमारी राष्टÑीय देवी बनी रहेगी। भारतीय स्त्रियों से सीता के चरण-चिन्हों का अनुसरण कराकर अपनी उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र उपाय है।’ (विवेकानंद साहित्य, खंड 5, पृष्ठ 149-50)।
स्वामी विवेकानंद के मत में राजा जनक संन्यासियों से श्रेष्ठतर थे और हनुमान ने तो राम की एकनिष्ठ सेवा में ब्रह्मत्व तथा शिवत्व प्राप्ति तक की उपेक्षा कर दी। उनकी राम नाम तथा रामकथा के प्रति गहरी आस्था थी। स्वामी जी ने कहा कि जहां भी राम कथा होती है, वही पर मैं विद्यमान रहता हूं, क्योंकि आत्मा तो सर्वव्यापी है न? (वही, खंड 6, पृष्ठ 196, 323 तथा खंड 1, पृष्ठ 303)।
स्वामी विवेकानंद के जीवन से राम नाम के भजन का एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग मिलता है। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे। उनके एक जन्मोत्सव पर उन्होंने भव्य आयोजन किया। स्वमीजी ने स्वयं को काल भैरव के रूप में सजाया और पद्मासन में बैठकर ‘कूजन्तं रामरामेति…’ स्रोत का धीरे-धीरे उच्चारण करने लगे और अंत में बारंबार राम राम श्री राम राम कहने लगे। ऐसा मालूम होता था मानो प्रत्येक अक्षर में अमृतधारा बह रही है। स्वामीजी के नेत्र आधे बंद थे और वे हाथ से तानपूरे को स्वर दे रहे थे। कुछ देर तक मठ में राम राम श्री राम राम की ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। रामनाम कीर्तन के अंत में स्वामी विवेकानंद उसी मतवाली अवस्था में गाने लगे- सीतापति रामचंद्र रघुपति रघुराई। (विवेकानंद साहित्य, खंड 6, पृष्ठ 74)।
स्वामी विवेकानंद की इस आनंदानुभूति से रामनाम की अद्भुत दैवीय शक्ति की प्रतीति हो सकती है और हम जब जय श्रीराम बोलते हैं तो हमारी आत्मा यही आनंदानुभूति करती है। स्वामी विवेकानंद को राम नाम के उच्चारण से जो अनुभूति हुई थी, वही हम सबको हो सकती है। इसी कारण स्वामी विवेकानंद ने राम, रामनाम, जप, कीर्तन तथा तुलसीदास के कुछ काव्यांशों की यत्र-तत्र चर्चा की है और माना है कि भारतीय आदर्शों की स्थापना में राम, रामकथा तथा उसके पात्रों का बहुत बड़ा योगदान है। भारत के जनमानस में राम और रामकथा आज तक इसी रूप में विद्यमान हैं और भविष्य में भी बनी रहेगी।
(लेखक केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष रहे हैं)
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