कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मानसिक दिवालियापान पर अब दया भर ही आती है। उन्हें भाषाई संस्कार की तनिक भी समझ नहीं है। वे किसी को भी कुछ भी कह सकते हैं या कोई भी घटिया आरोप लगा सकते हैं। वे देश की 135 करोड़ जनता के प्रधानमंत्री को बेशर्मी से ‘‘गद्दार’’ और ‘‘कायर’’ कह रहे हैं। इस तरह के आरोप तो कोई निरक्षर भी अपने किसी शत्रु पर भी नहीं लगाता
राहुल गांधी का हिन्दी ज्ञान तो मिडिल क्लास से भी कम का लगता है क्योंकि, मिडिल क्लास के भी बच्चे जानते हैं कि ‘‘गद्दार’’ कौन होता है और ‘‘कायर’’ का मतलब क्या होता है। बेहतर तो यह होगा कि वे इतिहास की कुछ पुस्तकों को पढ़कर जान लें कि देश के साथ गद्दारी किसने की और कायरता का व्यवहार किसने किया।
राहुल गांधी को पता होना चाहिए कि पहली गद्दारी देश के साथ तब हुई जब आजादी के तुरंत बाद ही जब कश्मीर के राजा हरि सिंह ने कश्मीर को भारत के साथ पूर्ण विलय का प्रस्ताव रखा, उसे अनावश्यक शर्तें रखकर राहुल के परनाना पंडित नेहरू द्वारा ठुकराया गया। एक व्यक्ति शेख अब्दुल्ला और उनके परिवार को संतुष्ट करने के चक्कर में यह सारा काम हुआ था। आधा कश्मीर कबाइलियों के नाम पर पाकिस्तान सेना द्वारा कब्जा होने दिया गया, इसे देश के साथ पहली बड़ी गद्दारी न कहें तो और क्या कहें।
राहुल गांधी की जानकारी के लिए देश के साथ दूसरी गद्दारी और कायरतापूर्ण व्यवहार तब हुआ, जब तिब्बत को चीन ने जबरदस्ती हड़पा और हम तिब्बत को बचाने की जगह ‘‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’’ का नारा लगवाते रहे । तीसरी गद्दारी तब हुई जब 1962 में पंडित नेहरू की नीतियों के कारण भारतीय सेना को सही ढंग से लड़ने की छूट नहीं दी गई और पूरा अक्साईचीन सहित हजारों वर्ग किलोमीटर से ज्यादा भूमि चीन के कब्जे में जाने दी गई जो आज भी चीन के ही कब्जे में ही है। भारत की चीन नीति पर सरकार को कोसने वाले राहुल गांधी यह भी जानना चाहिए कि चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनवाने में अहम रोल अदा किया था पंडित जवाहर लाल नेहरू ने। उनका चीन प्रेम जगजाहिर था। ” पंडित नेहरू ने सोवियत संघ द्वारा भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के छठे स्थायी सदस्य के रूप में शामिल करने की पेशकश को खारिज करते हुए कहा था कि “भारत के स्थान पर चीन को जगह मिलनी चाहिए।” (एस. गोपाल-सेलेक्टड वर्क्स आफ नेहरु। खंड 11,पेज 248।)
थरूर को ही पढ़ लिया होता
काश राहुल गांधी को पता होता कि भारत को 1953 में ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनाने की पेशकश हुई थी। पंडित नेहरू ने उस पेशकश को अस्वीकार कर दिया था। यह जानकारी पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर ने ही आधिकारिक रूप से तब दी थी जब वे संयुक्त राष्ट्र के ‘अंडर सेक्रेटरी जनरल’ थे। भारत को तो बीती सदी के पांचवें दशक में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने ही अलग-अलग समय में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलवाने की पेशकश की थी। तब ये दोनों देश ही संसार के सबसे शक्तिशाली देश थे। इनके पास शक्ति थी कि वे किसी अन्य देश को सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में जगह दिलवा सकते थे। लेकिन नेहरू ने इन दोनों देशों की पेशकश को ठुकराकर चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जगह देने की वकालत की।” इससे बड़ी गद्दारी की मिसाल कोई ढूंढ़कर बता दे।
थरूर अपनी पुस्तक ‘ नेहरू-दि इनवेंशन आफ इंडिया’ में दावा करते हैं कि जिन भारतीय राजनयिकों ने उस दौर की विदेश मंत्रालय की फाइलों को देखा है, वे मानेंगे कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा था कि भारत की जगह चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले लिया जाए। तब तक ताइवान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य था।” नेहरू जी का अमेरिकी पेशकश को अस्वीकार करने से बढ़कर देश के साथ गद्दारी का कोई उदाहरण नहीं हो सकता, जो यह सिद्ध करता है कि वे देश के सामरिक हितों को ताक पर रखकर अपने व्यक्तित्व को चमकाने में लगे थे।
नेहरू का चीन प्रेम
चूंकि राहुल गांधी का इतिहास बोध शून्य है तो शायद उन्हें मालूम भी न हो कि नेहरू जी के चीन प्रेम के चलते ही भारत को 1962 के युद्ध में मुंह की खानी पड़ी थी। क्या राहुल गांधी को मालूम है कि चीन की तरफ से कब्जाए हुए इलाके का क्षेत्रफल कितना है ? यह 37,244 वर्ग किलोमीटर है। जितना क्षेत्रफल पूरी कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्साईचिन। राहुल गांधी इसे ही कहते हैं गद्दारी और कायरता।
दरअसल आज तक हमारे देश के गद्दारी करने वाले मौज ही करते रहे हैं। अब देखिए पंडित नेहरू के खासमखास वामपंथी कृष्ण मेनन को 1962 के युद्ध काखलनायक माना जाता है उन्हीं के नाम पर राजधानी की एक महत्वपूर्ण इलाके की सड़क भी है।
जी हां, हम बात कर रहे हैं कृष्ण मेनन मार्ग की। यहां उनकी एक मूर्ति भी लगी है। वे भारत के पूर्व रक्षा मंत्री थे। क्या इस सड़क का नाम कृष्ण मेनन मार्ग होना चाहिए, यह सवाल तो नई पीढ़ी पूछेगी ही। जब भारत-चीन की सेनाएं आमने- सामने होती हैं तो कृष्ण मेनन और पंडित नेहरू याद तो आएंगे ही। चीन से 1962 के युद्ध के दौरान भारतीय सेना की कमजोर तैयारियों के लिए कृष्ण मेनन को खलनायक माना जाता है। उस जंग में हमारे सैनिक कड़ाके की ठंड में पर्याप्त गर्म कपड़े पहने बिना ही लड़े थे। उनके पास दुश्मन से लड़ने के लिए आवश्यक शस्त्र भी नहीं थे। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने “दि मैनी लाइव्स ऑफ वी.के.कृष्ण मेनन” में लिखा है कि मेनन जब 1957 में रक्षा मंत्री बने तो देश में उनकी नियुक्ति का स्वागत हुआ था। उम्मीद बंधी थी कि मेनन और सेना प्रमुख कोडन्डेरा सुबय्या थिमय्या की जोड़ी रक्षा क्षेत्र को मजबूती देगी। पर मेनन के घमंडी और जिद्दी व्यवहार के कारण यह हो न सका। लेकिन, चीन युद्ध में शर्मनाक हार के आठ सालों के बाद कृष्ण मेनन के 10 अक्तूबर, 1974 को निधन होने के तुरंत बाद इंदिरा गांधी ने उनके नाम पर एक अति विशिष्ट क्षेत्र की सड़क समर्पित कर दी ।
इंदिरा गांधी ने। 25 जून, 1975 को राजधानी के रामलीला मैदान में हुई लाखों लोगों की रैली के बाद आधी रात को लोकतंत्र और स्वतंत्र मीडिया को ताक पर रखकर आपातकाल लगा दिया था। उस रैली में शामिल जयप्रकाश नारायण जी, आचार्य कृपलानी जी, विजय लक्ष्मी पंडित, अटल बिहारी वाजपेयी, मोरारजी देसाई वगैरह को गिरफ्तार कर लिया गया था। क्या इसे कायरता नहीं कहा जाएगा कि वे विपक्ष के शांतिपूर्ण विरोध को भी बर्दाशत नहीं कर सकीं।
राहुल जी हो सके तो गद्दारी और कायरता का मतलब किसी शिक्षित इंसान से जान लेना चाहिए इसके बाद ऐसे शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)
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