फेसबुक, व्हाट्सएप जैसी बड़ी सोशल मीडिया कंपनियां उपभोक्ताओं की निजी सूचनाएं हासिल करती हैं। इन आंकड़ों के आधार पर ये अब बाजार में मांग और आपूर्ति प्रभावित कर रही हैं
उपभोक्ताओं की निजी जानकारियों को गुपचुप हथियार बाजार के लिए उनका इस्तेमाल करने को लेकर आरोपों में घिर चुकी है फेसबुक
आज युवाओं के बीच सोशल मीडिया को लेकर जिस प्रकार का शोर है, वह एक कदम और बढ़कर हमारे व्यापार और समाज के महत्वपूर्ण पहलुओं को छूने लगा है। फेसबुक कारोबार हो या आॅनलाइन लेन-देन के लिए व्हाट्सअप, गूगल इत्यादि का उपयोग, स्पष्ट है कि तकनीक के इस दौर में ये तमाम बड़ी कंपनियां आपकी जरूरतों, इच्छाओं, गतिविधियों, पसंद-नापसंद को गहरे जान-समझ चुकी हैं और इसके आधार पर बाजार में मांग और आपूर्ति तक को प्रभावित करने लगी हैं। प्रचार-प्रसार से लेकर ‘सोशल कम्युनिटी’ के निर्माण तक में इनका बड़ा हाथ है।
कहते हैं कि अगर आपको कोई चीज मुफ्त में मिल रही है तो समझिए असली उत्पाद आप हैं! मुफ्त और सुविधासंपन्न इंटरनेट युग में सोशल मीडिया अलग तरीके से संचार क्रांति का मार्ग प्रशस्त करने में मशगूल था। वर्षों बाद जब हम उन सोशल मीडिया साइट्स को देखते हैं, तब समझ में आता है कि हमने ऐसे ‘कॉर्पोरेट दैत्य’ खड़े कर दिए हैं, जो घर से लेकर हमारे दफ्तर तक में हस्तक्षेप कर सकते हैं। विडंबना यह है कि यह सब गोपनीयता के नाम पर होता है।
फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग को जब कैपिटल हिल में पूछताछ और अपनी कंपनी के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए बुलाया गया तो अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में उनका कहना था कि बड़ी कंपनियां उस सिलिकॉन वैली से प्रभावित हैं जिसका झुकाव वामपंथ की ओर है। यानी निजता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध ये कंपनियां खुद ही एक विचारधारा के पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। ऐसे में यह सवाल आवश्यक हो जाता है कि हम इन कंपनियों को अपने जीवन में कहां तक घुसपैठ करने दें? 2,800 शब्दों के एक लेख में जुकरबर्ग ने फेसबुक के बदले नियमों को लेकर एक स्पष्टीकरण दिया है। उनका कहना है कि अब फेसबुक राजनीतिक विषयों, समूहों या अन्य पृष्ठों को अपनी न्यूज फीड से कम करेगी, ताकि लोगों को बेहतर अनुभव दिया जा सके। वह अपने बचाव में कहते हैं कि राजनीतिक विषयों को लेकर समाज में बढ़ रही कटुता को कम करने और फेसबुक उपयोगकर्ताओं को उससे दूर रखने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया है। लेकिन सवाल है कि जुकरबर्ग को ऐसा करने का अधिकार किसने दिया?
फेसबुक जब भारत में आयी थी, तब उसने कहा था कि वह अभिव्यक्ति का एक वृहद् और रचनात्मक मंच प्रदान करती है, जहां लोग अपनी पसंद-नापसंद, भावनाओं, ज्ञान या अनुभव आदि को दूसरे से साझा कर सकते हैं। लेकिन जैसे-जैसे फेसबुक का चलन बढ़ा, उसकी ‘यूजर पॉलिसी’ भी बदलती गई। आलम यह है कि अब इन सोशल साइट्स का राजनीतिक प्रयोग होने लगा है। वहीं यह भी सच है कि एक बड़ी आबादी को अपने डिजिटल मंच से जोड़े रखते हुए आपराधिक, असामाजिक और अनैतिक विषयों को दूर रखना अत्यन्त कठिन काम है। माना कि जुकरबर्ग को एक सीमा तक निर्णय लेने का अधिकार है, पर वह निर्णय किसी के मूल सिद्धांत के विपरीत नहीं हो सकता। फेसबुक यह कैसे तय कर सकती है कि किसे क्या देखना है और क्या नहीं? वीडियो का प्रसार करने के लिए यूट्यूब भी अल्गोरिथम का प्रयोग करती है, पर विचारधारा, राजनीति या अन्य विषयों को लेकर वह पूर्वाग्रह की शिकार नहीं है। सोशल मीडिया के उपयोग के मामले में इसे काफी हद तक ठीक नीति कहा जा सकता है। हालांकि यूट्यूब भी पूरी तरह से अपवाद नहीं है। लेकिन फेसबुक ने तो सभी सीमाएं लांघते हुए सीधे यह फरमान सुना दिया कि वह राजनीतिक विषयों को अपनी न्यूज फीड में कम दिखाएगी। कम से कम यह अधिकार तो उपभोक्ता का होना चाहिए कि वह क्या देखेगा और क्या नहीं?
फेसबुक जैसी बड़ी सोशल मीडिया कंपनियां भले ही यह कहें कि वे अपनी न्यूज फीड में राजनीतिक विषयों को कम परोसेंगी, लेकिन हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप के साथ जो हुआ, उससे पता चलता है कि ये किसी भी हद तक जा सकती हैं। इनकी नीति से ऐसी प्रतीत होता है कि ये केवल विरोधी विचारधारा के विरुद्ध ही कार्रवाई करती हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आगे चलकर यदि कोई इन कंपनियों के सोच के इतर अपनी बात रखता है तो ये उसे ‘शैडो बैन’ नहीं करेंगी। किसी देश की नीति किसी भी सेवा प्रदाता कंपनी से ऊपर नहीं होनी चाहिए। हमारे लिए भी यह जरूरी है कि हम इनके जाल में इतना गहरे न फंस जाएं कि उससे बाहर निकलना ही कठिन हो जाए। ट्रंप का सोशल मीडिया अकाउंट बंद कर देना और पोट्स को बिल्कुल साफ कर देना यही बताता है कि सोशल मीडिया कंपनियां चाहें तो किस स्तर तक चीजों को प्रभावित कर सकती हैं। जब इन्होंने अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति रह चुके ट्रंप तक को नहीं बख्शा जो किया है तो छोटे देशों की क्या बिसात?
हालांकि जुकरबर्ग का कहना है कि अगर कोई उपभोक्ता राजनीति से जुड़े विषय या समूह में शामिल होना चाहता है तो फेसबुक उसे नहीं रोकेगी। पर सवाल यह है कि जब विभिन्न फेसबुक पेज व अकाउंट के जरिए अश्लीलता परोसी जाती है तो राजनीतिक विषयों पर पाबंदी क्यों? क्या यह सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं है?
वैसे किसी भी देश में कंपनियां वहां लागू नियमों को ध्यान में रखते हुए काम करती हैं। अगर भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, तो फेसबुक उसका नियमन कैसे कर सकती है? कोई दर्शक क्या बोलेगा, क्या देखेगा और क्या नहीं देखेगा, यह फेसबुक कैसे तय कर सकती है? सेवा शर्तों को लेकर अपने स्वामित्व वाले व्हाट्सएप के विवाद में फंसने के बाद फेसबुक चाहे कितनी भी होशियारी दिखाने का प्रयास करे, सच यही है कि इन सोशल मीडिया कंपनियों ने डिजिटल मंच पर बड़ी ताकत हासिल कर ली है। पिछले वर्ष फेसबुक ने एडमिन को बिना कारण बताए कई पेज और समूहों को हटा दिया था। कहा जाता है कि इनमें अधिकांश भारत सरकार एवं भाजपा समर्थक पेज और समूह थे।
अपने लेख में जुकरबर्ग यह दावा करते हैं कि फेसबुक ने कई छोटे कारोबारियों को अपना कारोबार बढ़ाने में मदद की है। खासकर लॉकडाउन के दौरान फेसबुक ने छोटे व्यापारियों को बड़े बाजार तक पहुंचाने में प्रभावी भूमिका निभाई है। उपभोक्ता व विक्रेता के हितों की सुरक्षा की आड़ में इसके लिए फेसबुक ने उनसे ‘सामान्य से कुछ अधिक’ सूचनाएं भी हासिल की हैं। मान लेते हैं कि फेसबुक ने ऐसा किया, लेकिन सवाल यह है कि क्या पर्दे बेचने वाला यह बात तय कर सकता है कि आप अपने घर में कैसे पर्दे लगाएंगे? कुल मिलाकर इस डिजिटल युग में निजता को फटी चादर में अनाज रखने जैसा है। आप चाहें जितना भी झोली में भर लें, कुछ तो नीचे गिरेगा ही। इन बड़ी कंपनियों के पास आपकी लगभग हर जानकारी है, जिनका इस्तेमाल वे कब, कहां और कैसे करेंगी, यह एक बड़ा सवाल है। कुछ लोग कहते हैं कि सरकार को ‘कागज’ नहीं दिखाएंगे, लेकिन सोशल मीडिया कंपनियां उनके बैंक खाते से लेकर अन्य निजी सूचनाएं हासिल कर लेती हैं। अब यह हमको और आपको तय करना है कि हम सोशल मीडिया को अपने जीवन में क्या और कितना स्थान देना चाहते हैं। (लेखक सोशल मीडिया विशेषज्ञ हैं)
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