विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आंगन में किसान आंदोलन की आड़ में रखी गई उत्पात की चिंगारी कैसे दावानल का रूप ले सकती है, यह गणतंत्र दिवस पर हम सबने देखा।
यह कोई सीधा साधा आंदोलन नहीं बल्कि इसमें भारत की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा सबको तार-तार करने वाले उपद्रवी तत्व शामिल हैं। ये उपद्रवी आंदोलन की आड़ में, आजादी की आड़ में और हक की आवाज बुलंद करने की आड़ में किसी भी हद तक जा सकते है, हम सब इसके साक्षी हैं। शुरू में लगा था कि शायद ऐसा कोई मुद्दा है, जो ठीक से कुछ किसान समझ नहीं पाए और उन्हें समझाने से बात बन जाएगी। कम से कम केंद्र सरकार इसी मानस से चल रही थी, लेकिन एक, दो, तीन और दस दौर की वार्ता के बाद भी जो कानून रद्द कराने से कम किसी कीमत पर राजी नहीं है, उससे समझ में आता है कि उनकी मंशा सुधार या वार्ता नहीं बल्कि सरकार और इस देश की संसद को नीचा दिखाने की है।
कृषि कानून 2020 में प्रावधानित कानूनों में किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान नेता 10 दौर की वार्ता में उस बिंदु को इंगित नहीं कर सके, जहां पर उनके अनुसार कोई खामी है, खोट है, आशंका है, भय है या कोई भी ऐसी बात है, जिसका निस्तारण नहीं किया जा सकता। ऐसे में बाकी बचती है-हठधर्मिता!
इस हठ के साथ कुछ और तत्व आ जुड़े हैं। कह सकते हैं कि एक जिद की राई पर अव्यवस्था का पहाड़ खड़ा कर दिया गया है। अच्छा यह है कि लोकतंत्र के विरुद्ध उत्पात की ‘इंजीनियरिंग’ करने वाले चेहरों की शिनाख्त हो चुकी है।
कृषि कानून 2020 के खिलाफ सरकार से बातचीत को पहुंचे कुछ वातार्कार थे, जिनके पास वार्ता के मुद्दे नहीं है। वहीं, धरना स्थल पर कुछ प्रांतीय पट्टियों से अलग-अलग तरीके से उकसाकर लाए गए लोग पहुंचे थे। किसी को जाति के आधार पर उकसाया गया, तो किसी को क्षेत्र के आधार पर उकसाया गया है। कुछ लोगों को उनके कल्पित नुकसान के आशंका से उकसाया गया, लेकिन इस सबके बीच आगे जो चीजें उजागर हुईं, वो ज्यादा चिंताजनक है।
भारत भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में सतत सक्रिय रहने वाली छोलदारियां, कठपुतली की तरह इस्तेमाल होने वाली तथाकथित नामचीन हस्तियां इस प्रपंच तंत्र में वामपंथी-घृणापंथी ब्रिगेड का प्यादा बनी हैं। उदाहरण के लिए तथाकथित पर्यावरण चिंतक एक बच्ची (जिस पर पहले भी आरोप लगे हैं कि वो जिन मुद्दों पर बोलती हैं, उसमें कुछ गुटों और वर्गोें के राजनीतिक हित निहित होते हैं), या फिर सामाजिक मुद्दों पर पॉप स्टार रिहाना की राय! इस सबका क्या महत्व है?
यानी जिन्हें भारत के भूगोल का, इस देश की विविधता का, संसदीय प्रक्रियाओं का, और तो और इन कानूनों तक का कुछ अता-पता नहीं है ऐसे लोग आज सोशल मीडिया पर ‘रायबहादुर’ बने हुए हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर मुद्दा बड़ा नहीं था, तो इतना बड़ा बना क्यूं?
फिर समझ में आता है कि दुनिया में बेहतर और मजबूत होती छवि के साथ, अपनी चिंताओं की प्रति सतर्क- सजग होता भारतवर्ष कुछ भारत विद्वेषी, राष्ट्रीय तत्वों की आंखों में खटक रहा है। पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में भारत और चीन के बीच जारी गतिरोध के बीच जैसे ही हमने स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बात की तो ड्रेगन के भारतीय पिछलग्गू -लाल-‘पीले’ होने लगे! विस्तारवाद और बाजारवाद पर चोट हुई तो वामपंथ की आड़ में छिपा दामपंथ फुफकारने लगा। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवारवाद और क्षेत्रवाद को पोषने वाले तत्वों के हितों पर चोट की गई, तो भारत का बुरा चाहने वाले की चूलें हिल गईं।
नए भारत की दुनिया में उभरती बेहतर छवि और प्रतिष्ठा से जिन्हें समस्या है, उन लोगों पर बड़ा आघात तब और लगा जब कोरोनावायरस से पीड़ित पूरी दुनिया में हाहाकार मचा था और इसबीच भारत न केवल महामारी के खिलाफ लड़ाई में संक्रमण की रफ्तार थामे मजबूती से डटा रहा, बल्कि अपनी घरेलू वैक्सीन के जरिए उसने दूसरों देशों को भी महामारी से निपटने में मदद की।
भारत की छवि धूमिल करने की कोशिश एक साल पहले दिल्ली में हुए दंगों की साजिश से समझी जा सकती है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वी दिल्ली के सीबीडी ग्राउंड में इसका उल्लेख करते हुए कहना पड़ा था, ‘यह सिर्फ संयोग नहीं, प्रयोग है’।
कृषि कानून को लेकर लालकिले पर दंगे की इच्छा लेकर तिरंगे का अपमान करने किसान भेष में पहुंचे उपद्रवी एक बार फिर राजधानी दिल्ली को दंगों की आग में झोंकना चाहते थे ताकि भारत की प्रतिष्ठा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तार-तार किया जा सके, लेकिन भारत सरकार और दिल्ली पुलिस के संयमित रवैये ने जब इनके मंसूबों को फलीभूत नहीं होने दिया तो आंदोलनरत किसानों के पक्ष में ‘नामी प्यादों’ के जरिए ट्वीट करवाए। हालांकि इसमें भी वो अपनी भद पिटवा चुके है। ग्रेटा थनबर्ग के हाथों ट्वीट हुई propaganda exercise की प्रति ने इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की पोल खोलकर रख दी है।
दरअसल देश की राजधानी को भारत में अराजकता की प्रयोगशाला बनाने के लिए लगातार अराजक तत्व सक्रिय हैं। इसे नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक वर्ष पूर्व दिल्ली के शाहीन बाग में हुए धरने, महामारी के दौरान या फिर महामारी के दौरान आनंद विहार पर अफरातफरी मचाने की कोशिश से समझा जा सकता है। साथ ही हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज दिल्ली की कुर्सी पर बैठा मुख्यमंत्री खुद को न केवल अराजक बताता रहा है, बल्कि उसने ही गणतंत्र दिवस पर धरने देने की शुरुआत कर राजधानी में अराजकता का बीज बोया था।
बहरहाल, भारत आपसी लड़ाई में उलझा रहे, न उठे न बढ़े-ईस्टइंडिया कम्पनी के जाने के बाद अंग्रेजियत की चिलम भरने वाली राजनीति यही तो करती रही! सो, भारत को झुकाने की जिद पालने वालों का हुक्का-पानी बंद करना अब वक्त की जरूरत है।@hiteshshankar
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