विशेषज्ञ कह रहे हैं कि पिछले 10-15 साल में देश की लगभग 4,500 छोटी-बड़ी नदियां सूख चुकी हैं। नदियों के सूखने से देश में पेयजल का संकट गहराता जा रहा है और भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है
भारत भीषण जल संकट के कगार पर है। इसकी अपनी पेय जल व्यवस्था, सिंचाई व्यवस्था आदि सभी चरमरा रही हैं। एशियाई विकास बैंक के अनुसार 2030 तक भारत में जल आपूर्ति में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है तथा नीति आयोग के अनुसार उस वर्ष तक लगभग 40 प्रतिशत भारतीयों को प्यास बुझाने के लिए भी भगीरथ प्रयत्न करना पड़ेगा। ‘वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर’ के अनुसार इस समय भारत के 31 नगरों के लिए निकट भविष्य में ही जल संकट सम्पूर्ण अफ्रीका और यूरोप की अपेक्षा सबसे अधिक हो सकता है। इनमें भी जयपुर तथा इंदौर का नाम सबसे ऊपर है। यह सब तब जब भारत की धरती को प्रतिवर्ष 4,000 घनमीटर वर्षा जल प्राप्त होता है और इसकी गोद में हजारों नदियां बहती हैं।
आइए सर्वप्रथम प्यास बुझाने के स्रोत के रूप में मीठे जल की उपलब्धता का आकलन करें। मीठे जल का स्रोत मुख्यत: नदियां, झीलें और तालाब हैं। मैगसेसे पुरस्कार विजेता जोहड़ बाबा राजेन्द्र सिंह के अनुसार पिछले 10-15 वर्ष में 15,000 में से लगभग 4,500 छोटी-बड़ी नदियां सूख चुकी हैं। शेष में भी जल की उपलब्धता कम ही होती जा रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि गंगा आदि उत्तर भारत की अधिकांश नदियों के स्रोत वे ग्लेशियर हैं, जो हिमालय में स्थित हैं और ये ग्लेशियर वर्तमान में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण हिम के तीव्र गति से पिघलने से निरंतर सिकुड़ते जा रहे हैं। लद्दाख के सार्सपुकत्सो ग्लेशियर को तो पिघलते हुए देखा भी जा सकता है।
माउंट एवरेस्ट और लोअर हिमालय क्षेत्र में इस सिकुड़न के कारण ग्लेशियरों के क्षेत्र में झाड़ियां और घास तक उगने लगी है। नासा द्वारा उपलब्ध कराई गई सैटेलाइट तस्वीरें गवाह हैं कि 1993 से 2018 के मध्य इनका क्षेत्र 15 गुना बढ़ गया है। वस्तुत: 2000 से ग्लेशियरों की हिम आठ करोड़ टन वार्षिक की दर से पिघल रही है। अनुमान है कि 2100 तक हिमालय के एक तिहाई से अधिक ग्लेशियर पूरी तरह पिघल जाएंगे। हिंदूकुश की तमाम चोटियां हिम से रहित हो जाएंगी और नदियों का जल इसी कारण तेजी से घटेगा। सच तो यह है कि 2015-2019 की अवधि में किसी अन्य पांच वर्ष की अवधि की अपेक्षा ग्लेशियरों के हिम का पिघलना सर्वाधिक पाया गया। पिछले 25 वर्ष से सतलुज, व्यास, पार्वती और रावी नदियों के ग्लेशियर 21-28 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। हिमालय के गंगोत्री, कुनकुन, ड्रांग डुंग, पिन पार्वती, माणी महेश आदि ग्लेशियरों का आकार बराबर घटता जा रहा है।
नदियों में जल के घटने का एक दूसरा कारण उनमें जबरदस्त प्रदूषण है। नदियों के प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं नगरों का मल, जल एवं कारखानों से निकला अपशिष्ट। 2510 किलोमीटर लंबी गंगा भारत की लगभग 45 करोड़ जनता के लिए जीवनदायिनी है, परंतु कुछ समय पूर्व तक इसकी गणना विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में की जाती थी। कारण कि इसके तट पर अनेक बड़े नगर, प्रयागराज, वाराणसी, कानपुर, पटना, कोलकाता आदि बसे हुए हैं और इनमें औद्योगिक सक्रियता भी यथेष्ट है। केंद्र सरकार के प्रयत्नों से स्थिति में सुधार तो हुआ है परंतु गंगा अभी तक निर्मल नहीं हो पाई है।
भारतवर्ष में भूजल पेयजल एवं सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ा स्रोत है। वस्तुत: भारत भूजल का सबसे बड़ा ग्राहक है और यहां की बहुत बड़ी जनसंख्या अपनी आवश्यकताओं के लिए भूजल पर ही निर्भर है। परंतु पिछले कुछ काल में इस स्रोत का निर्लज्ज दोहन हुआ है। इसी कारण देश के 70 प्रतिशत भूजल स्रोत पूरी तरह सूख चुके हैं और केवल 59 जिलों में ये जल भंडार सुरक्षित रह गए हैं।यमुना का हाल भी कुछ ऐसा ही है। नवंबर, 2020 में दिल्ली में यमुना के 9 घाटों में से 7 में घुलित आॅक्सीजन स्तर शून्य पाया गया। केरल की पेरियार नदी भी औद्योगिक अपशिष्ट से बुरी तरह प्रदूषित है। यही हाल लखनऊ की गोमती, झारखंड की दामोदर आदि का है। हिंडन तो धात्विक प्रदूषण के कारण जलचर-विहीन हो चुकी है। वस्तुत: धातुएं जल से प्रोटीनों और एन्जाइमों को ध्वस्त कर देती हैं और उसमें किसी भी प्रकार का जीवन असंभव हो जाता है। भारत की अधिकांश नदियों में पारा, लेड, आर्सेनिक, कैडमियम आदि विषाक्त धातुओं की उपस्थिति के निश्चित संकेत मिले हैं। इसी प्रकार, किनारों के पास नदी पर बहुधा देखा जाने वाला खूबसूरत सफेद झाग वस्तुत: जल में डिटरजेंट की उपस्थिति के कारण होता है। जो जल की गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।
यदि हम वर्षा जल का संग्रहण प्रारंभ कर दें तो भारत की पेय जल समस्या बड़ी सरलता से हल हो सकती है। वृहत्तर भारत में ऐसी कोई परम्परा न होने से समस्त वर्षा जल अंतत: समुद्रों में जाकर मिल जाता है। केवल केरल तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में ही इसका संग्रहण किया जाता है। इसीलिए हम अपने कुल वर्षा जल का केवल मात्र 8 प्रतिशत संग्रह कर पाते हैं, जबकि इज्राएल 94 प्रतिशत का संग्रहण एवं पुनर्शोधन कर उसे उपयोगी बना लेता है।
भारतवर्ष में भूजल पेयजल एवं सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ा स्रोत है। वस्तुत: भारत भूजल का सबसे बड़ा ग्राहक है और यहां की बहुत बड़ी जनसंख्या अपनी आवश्यकताओं के लिए भूजल पर ही निर्भर है। परंतु पिछले कुछ काल में इस स्रोत का निर्लज्ज दोहन हुआ है। इसी कारण देश के 70 प्रतिशत भूजल स्रोत पूरी तरह सूख चुके हैं और केवल 59 जिलों में ये जल भंडार सुरक्षित रह गए हैं। 21 बड़े नगरों, जिनमें बेंगलुरू आदि भी सम्मिलित हैं, में भूजल लगभग समाप्ति की ओर है। अमेरिकन ज्योग्राफिकल एसोसिएशन के अनुसार 2050 तक अपर गंगा बेसिन में ऐसे जल स्रोत पूरी तरह सूख सकते हैं।
वहीं बढ़ते शहरीकरण के कारण भूमि पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो जाने से वर्षा जल द्वारा भूजल स्रोतों को पुन: पूरा करने पर बड़े स्तर पर दुष्प्रभाव पड़ा और भूजल स्तर गिरता चला गया। फलस्वरूप, सिंचाई के अभाव में उपज प्रभावित हुई। दूसरी ओर, औद्योगिक अपशिष्ट तथा मल-जल के माध्यम से धीरे-धीरे विषैले तत्वों के रिस-रिस कर मिट्टी के नीचे पहुंचते रहने के कारण यह स्रोत बुरी तरह प्रदूषित हुआ है। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की 2014 की रपट के अनुसार दस राज्यों के 86 जिलों का भूजल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है। प्रदूषक तत्वों में आर्सेनिक, फ्लुओराइड, लेड, पारा, कैडमियम और क्रोमियम जैसे स्वास्थ्य के लिए नितांत हानिकारक तत्व हैं। जैसा कि सभी जानते हैं आर्सेनिक एक भयंकर विष है और फ्लुओराइड विकलांगता उत्पन्न करता है। बंगाल में आर्सेनिक की समस्या गंभीर है और अब वह हरियाणा में भी सिर उठा रही है। फ्लुओराइड से हरियाणा और राजस्थान त्रस्त हैं। अन्य तत्व भी किसी न किसी रूप में शरीर को हानि ही पहुंचाते हैं।
आर्सेनिक सामान्यत: ट्राइआक्साइड (संखिया) के रूप में होता है। वह रक्त के हीमोग्लोबिन को घटा सकता है और हृदय की गति को मंद कर सकता है। यह डायरिया का भी जनक हो सकता है। क्रोमियम दमा उत्पन्न कर देता है। पारे का प्रभाव तो सभी को ज्ञात है। लेड और कैडमियम भी अत्यंत हानिकारक धातुएं हैं। दोनों ही कैंसरकारी हैं और अनेक प्रकार से शरीर की जैविक क्रियाओं को बाधित करती हैं।
इन तत्वों के अतिरिक्त भूजल में महीन रेत तथा हानिकारक बैक्टीरिया भी उपस्थित होते ही हैं। हरियाणा जैसे छोटे राज्यों में, जो लगभग पूरी तरह भूजल पर निर्भर हैं, विषाक्तता तथा भंडारों के अत्यंत कम हो जाने जैसी दोनों ही समस्याएं अत्यंत गंभीर स्तर तक पहुंच चुकी हैं। उल्लेखनीय है कि भारत के लवणीय मिट्टी क्षेत्र का 15 प्रतिशत हरियाणा में ही है।
विश्व की सभी प्रारंभिक सभ्यताएं नदी के तटों पर ही पनपीं और समृद्धशाली नगरों की स्थापना भी वहीं पर हुई। आज भी जल, जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कहा भी जाता है ‘जल है तो कल है’ तथा यह भी कि ‘मिट्टी, पानी और बयार, ये हैं जीवन के आधार।’ इसीलिए भारत का जल संकट निश्चित रूप से चिंतनीय है और इसका शीघ्र निदान अत्यावश्यक है।
(लेखक महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक में रसायन विज्ञान विभाग के अध्यक्ष रहे हैं)
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