भूकंप और बाढ़ जैसी घटनाओं के अलावा आज बादलों का फटना, अतिवृष्टि, हिमस्खलन, वनाग्नि जैसी घटनाएं आम हैं। इन घटनाओं के कारणों को जानने के लिए किए गए शोध कार्यों से आज ये साफ पता चलता है, कि ये घटनाएं अब प्राकृतिक न हो कर पूरी तरह से मानवजनित हो चुकी हैं
उत्तराखंड के चमोली जिले में घटी घटना ने एक बार फिर से उत्तराखंड और इससे जुड़े विकास के मॉडल के बारे में सोचने को बाधित कर दिया है । ऋषि और धौली गंगा में आई, असामान्य सी दिखने वाली बाढ़ को प्राकृतिक और हिमालय से जुड़ी भूगर्भीय घटनाओं और इस क्षेत्र मे बन रहे हाइड्रोप्रोजेक्ट निर्माण कार्य से जोड़कर देखा जा रहा है। इस घटना के पीछे के असल कारणों को जानने के लिए वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को अभी कुछ समय लगेगा, हालांकि हालिया सैटेलाइट चित्र और इस क्षेत्र में काम करने वाले भू वैज्ञानिक हिमस्खलन जैसी घटनाओं के व्यापक प्रभाव की ओर इंगित करते हैं।
यह बात बिल्कुल तथ्यात्मक और विज्ञान आधारित है कि दुनिया की सबसे नवीनतम पर्वत श्रृख्ंला हिमालय, अभी भी हर समय अपने बनने की सतत प्रक्रिया में हैं, जिसके कारण यहां भूकंप, भूस्खलन, हिमस्खलन जैसी घटनाएं होती रहती हैं। 1991 में उत्तरकाशी और फिर 1999 में चमोली क्षेत्र का आया भूकंप हो या फिर चाहे 1998 में मालपा क्षेत्र में आया भूस्खलन, उत्तराखंड के विभिन्न इलाके और यहां रहने वाले निवासी इन भूगर्भीय घटनाओं और इससे जुड़ी तबाही के साक्षी रहे हैं। टेक्टोनिक प्लेट्स के बीच होते लगातार घर्षण के कारण ऊर्जा का संचयन होते रहता है जिसे एक बड़े भूकंप के रूप में हर पांच सौ सालों में बाहर निकलना ही होता है, जिसे हिमालयी महाभूंकप के रूप में भी जाना जाता है।
भूगर्भ विज्ञानी रोजर बिल्हाम जैसे वैज्ञानिक अपने शोध और हिमालयी इतिहास को देखते हुए ये बता चुके हैं कि ये महाभूकंप जो रिक्टर स्केल मे 8 से 10 तक की तीव्रता का होगा, और ये अभी आना बाकी है ।
इसी तरह से समय-समय पर पहाड़ों की घाटियों में बाढ़ जैसी घटनाओं का होना भी एक प्रकृतिक घटना के रूप मे होता आया है, इन प्रक्रियाओं से हमारे पूर्वज भली-भांति परिचित हुआ करते थे और शायद यही कारण रहा होगा कि बाढ़ जैसी घटनाओं से बचने के लिए हमारे पूर्वजो ने गांवों को नदी-घाटियों के किनारे न बसा कर दुर्गम उच्च पहाड़ी क्षेत्रों में बसाया। इस तरह की बसावट आपदाओं से बचाव के साथ-साथ खेतों में निगरानी रखने, खाद्य पदार्थो को सूखा कर संरक्षित करने जैसे कई अन्य फायदे भी देती थी।
आसपास होने वाले बदलावों और आपदाओं से सीखते हुये, हमारे पूर्वजों ने घर बनाने की विधियों में भी ऐसी तकनीकों का विकास किया और उन्हें अपनाया जिनसे वे इन आपदाओं के दौरान अपने जीवन की रक्षा कर सकें। इन सभी बातों का निष्कर्ष यही निकलता है, कि पूर्व में हमने अपने आसपास होने वाली घटनाओं से सीखा और उसी आधार पर अपने जीवन जीने के तरीको में भी बदलाव किए थे।
औद्योगिक युग की शुरुआत के बाद से प्राकृतिक रूप से घटित होने वाली इन घटनाओं में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी हुई है और इसका एक खास और गंभीर असर हिमालय और यहां के जीवन पर पड़ा है।
भूकंप और बाढ़ जैसी घटनाओं के अलावा आज बादलों का फटना, अतिवृष्टि, हिमस्खलन, वनाग्नि जैसी घटनाएं आम हैं। इन घटनाओं के कारणों को जानने के लिए किए गए शोध कार्यों से आज ये साफ पता चलता है, कि ये घटनाएं अब प्राकृतिक न हो कर पूरी तरह से मानवजनित हो चुकी हैं ।
ग्लेशियरों के भयावह रूप से पिघलने और हिमस्खलनों की तीव्रता बढ़ने के पीछे की घटनाओं का प्रमुख कारण बढ़ते वायु, प्रदूषण और वनाग्नियों द्वारा पैदा हुआ ब्लैक कार्बन भी है। ये कार्बन इन ग्लेशियरों में जमकर इन्हें काला कर रहा है, जिससे ये ग्लेशियर सूर्य की गर्मी को अवशोषित कर अधिक तेज गति से गल रहे हैं।
देहारादून स्थिति वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिको ने भी गंगोत्री, चिरबासा और भोजबासा स्थित अपने वेदर स्टेशन द्वारा संकलित किए गए आंकड़ों के आधार पर इस बात की पुष्टि की है। बर्फ की ये चादरें पतली होती जा रही है और हिमस्खलन जैसी घटनाएं अधिक हो रही हैं। इन सब परिस्थितियों में ग्लोबल क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वार्मिंग की अपनी एक खास और अहम भूमिका है, जिन्होंने पूरे ऋतु चक्र, हवाओं की दिशाओं, वर्षा चक्र और तापमान को बदल कर रख दिया है। हालिया शोध कार्य ये भी बताते हैं, कि सम्पूर्ण हिमालय के मुक़ाबले पश्चिमी हिमालय क्षेत्र अधिक तेज गति से गर्म हो रहे हैं और उत्तराखंड के हिमालयी इलाके इसी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। तेजी से बदली हुई इन परिस्थितियों में सबसे गंभीर और विचलित करने वाली बात यह है कि बार-बार होने वाली घटनाओं और इनकी तीव्रता को देख कर भी हम कुछ नहीं सीख रहे है । ये दुर्भाग्य ही है, कि विकास के हमारे सभी मॉडल अनभिज्ञता, लालच और क्षणिक लाभ से पुते हूए हैं ।
ऊर्जा की मांग और इससे जुड़ा विकास हमारे सामने है। एक देश के रूप में उभरती हुई अर्थव्यवस्था, बढ़ती हूई जनसंख्या और इसकी जरूरतें अवश्य ही एक बड़ी चुनौती हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश ऊर्जा और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए हम नदियों का प्रवाह रोककर बांध बनाने जैसे ऐसे तरीकों का उपयोग कर रहे हैं, जो हिमालय के परिस्थिकीय तंत्र, यहां की भूसंरचना, कम होती जैव विविधता और आम जनजीवन से बिलकुल ही उलट है। ये अपने आप में हास्यपद है, कि विश्वभर मे जहां आल वेदर प्रुफ सड़कें पेड़ और वनस्पतियां लगा कर बनाई जाती है, वही उत्तराखंड में यही कार्य लाखों पेड़ों को काट कर किया गया है। जिस तरह से सड़क कटान के दौरान पैदा हुए करोड़ों टन मलबे को नदियों और पहाड़ियों के ढालों मे यों ही छोड़ दिया गया है, उससे एक और भीषण आपदा आने की आशंका बनी हुई है। उत्तराखंड के ही प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक पद्म भूषण खड़क सिंह वल्दिया, ने भी इन सड़कों को अव्ययवाहरिक और अर्थहीन बताया था । समय समय पर होने वाली ये आपदाएं, वैज्ञानिकों– पर्यावरणविदों द्वारा किए गए शोध और एक सामान्य व्यावहारिक बुद्धि हमें भी हमें यही बताती आई है कि हिमालयी क्षेत्र इस तरह के निर्माण कार्य हेतु सुरक्षित नही हैं ।
सरकारों की विकास और ऊर्जा को लेकर जो नीतियां हैं, वो भी अपने आप मे आशंका में डालने वाली हैं। आल वेदर सड़क निर्माण कार्य के दौरान स्वयं सरकार ने मानको और नियमों को ताक पर रख कर, 900 कि.मी लंबी सड़क को 53 खंडों मे दिखाया, जिससे कि पर्यावरणीय अनुमति न लेनी पड़े । इस पूरी परियोजना के बनने से पहले किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्था द्वारा पर्यावरण और स्थानीय लोगों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का आंकलन नहीं किया गया, जो कि इस तरह कि बड़ी परियोजना के लिए, तय नियमों के अनुसार किया जाना जरूरी है। छोटे बड़े बांध ऊर्जा कि जरूरतों के लिए जरूरी बताए जाते रहे हैं, हालांकि ये तरीका दुनिया के कई देशों मे अब पुराना माना जाता है, और ये देश ऊर्जा की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सौर ऊर्जा जैसे दूसरे बेहतर विकल्पों की ओर जा चुके हैं । 2017 मे दिए गए अपने बयान मे केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल भारत को ऊर्जा अधिशेष देश बता चुके हैं, इसके बावजूद ऊर्जा के सस्ते और कम नुकसानदेयक तरीको पर काम करने की जगह, हिमालय जैसे अति संवेदनशील इलाकों में नित नई जलविद्युत बांध परियोजनाओं को हरी झंडी मिल रही है। इन परियोजनाओं का निर्माण एवं रखरखाव अत्यधिक खर्चीला हैं, जिससे इनसे प्राप्त बिजली भी महंगी होती है, साथ ही साथ ये यहां के पर्यावरण और यहां रहने वाले लोगों के जीवन में भी एक गहरा नकारात्मक प्रभाव भी डालती हैं । 2013 में केदारनाथ मे आई महाविनाशकरी बाढ़ और इसके कारणों की जांच के लिए बनाई गई रवि चोपड़ा कमेटी ने भी हिमालयी क्षेत्रों मे बनाए जा रहे बांधों की भूमिका को उजागर किया था ।
यह समझना अति आवश्यक है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के चलते हम किसी भी इलाके पर अपनी आकांक्षाओं का बोझ नहीं डाल सकते । हिमालय जैसे क्षेत्र और यहां बसने वाले लोगों को बड़े-बड़े बांध और चौड़ी सड़कों की जगह सतत विकास की जरूरत है ।
(लेखक समुद्र जीव विज्ञानी, प्रकृति संरक्षण एवं सतत विकास के सलाहकार हैं)
टिप्पणियाँ