दिल्ली की सीमाओं पर जमे इन मुट्ठीभर एजेंडाबाज बहरूपियों के अलावा कहीं देश में किसान कोई आंदोलन कर रहा है. नहीं. इसलिए कि ये न तो किसानों का आंदोलन कभी था, न ही इस देश का किसान कभी इसके साथ आंदोलित हुआ
पहचानिए किसान कौन हैं जो खेत में मेहनत कर रहा है या जो पुलिस पर हमला कर रहा है ।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह से मुखातिब हुए. उन्होंने याद दिलाया कि मनमोहन सिंह के कृषि सुधारों के बारे में क्या विचार थे. लेकिन उनका इशारा कुछ और था. आर्थिक सुधारों की शुरुआत का श्रेय लेने वाले मनमोहन सिंह बतौर वित्त मंत्री जब इस रास्ते पर चले थे, तो उनके सामने भी लगभग वैसी ही चुनौतियां थीं, जैसी आज एक तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर नरेंद्र मोदी सरकार के समक्ष हैं. तब मनमोहन सिंह ने कहा था- जिस विचार का वक्त आ गया है, उसे कोई रोक नहीं सकता. आर्थिक सुधारों के लगभग तीन दशक बाद एक बार फिर देश कृषि सुधारों के मुहाने पर खड़ा है. जैसे समाजवादी सोच के साथ बेडियों में जकड़ी अर्थव्यवस्था का फायदा उठाने वाला तंत्र तब बौखला गया था. वैसे ही मंडियों और बिचौलियों में जकड़े कृषि क्षेत्र और किसान की मुक्ति का समय आया है, तो एक तबका बेचैन है. इन्होंने किसान के मुखौटे लगाए. विदेश से फंडिंग हुई. दिल्ली को घेरकर किसान आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की गई. लेकिन आज आंदोलन है कहां ? दिल्ली की सीमाओं पर जमे इन मुट्ठीभर एजेंडाबाज बहरूपियों के अलावा कहीं देश में किसान कोई आंदोलन कर रहा है. नहीं. इसलिए कि ये न तो किसानों का आंदोलन कभी था, न ही इस देश का किसान कभी इसके साथ आंदोलित हुआ.
आंदोलनजीवियों के रूप में प्रधानमंत्री मोदी ने एक नया शब्द दिया है. जी हां, वे लोग, जो आंदोलनों पर जिंदा हैं. खुद मोदी के शब्दों में, मजदूरों का आंदोलन हो, छात्रों का आंदोलन हो, किसानों का आंदोलन हो, ये सब में शामिल हो जाते हैं. ये खुद का आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते. इसलिए दूसरों के आंदोलन में जाकर खड़े हो जाते हैं. ये लोग परजीवी हैं. उन्होंने इशारों में अंतरराष्ट्रीय साजिश का भी इशारा किया. हम आपको पहले ही विस्तार से बता चुके हैं कि किस तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान-कम्युनिस्ट-खालिस्तान लॉबी इस आंदोलन को विश्व भर में भारत को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल कर रही है. इसके लिए चीन के पे-रोल पर जिंदा पॉप सिंगर रिहाना से ट्विट कराया गया. रिहान वही, जो स्वयं को प्रिंसेस ऑफ चाइना बताती है. चीन के दबाव में उसे तमाम ब्रांड्स के एंडोर्समेंट मिलते हैं. वह दुनिया भर में चीन के प्रोपेगेंडा का चेहरा है. ग्रेटा थनबर्ग भी इस लॉबी की इजाद है. उसने अपने मूल स्वभाव और मानसिक स्तर का परिचय देते हुए वह आनलाइन टूल किट ही शेयर कर डाली, जिसमें भारत को बदनाम करने, उसकी चाय-योग की छवि को ध्वस्त कर देने का एजेंडा था. मिया खलीफा जैसी पोर्न स्टार के वैचारिक समर्थन से ही आप इस आंदोलन का स्तर समझ सकते हैं. ये हस्तियां जो भी भारत विरोधी गतिविधियां कर रही हैं, उनके खिलाफ हमारे सेलिब्रिटी मैदान में उतरते हैं, तो कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना उनकी आवाज को खामोश कर देना चाहती हैं. सचिन तेंदुलकर ने भारत के साथ खड़े होने का संकल्प दर्शाते हुए ट्वीट किया, जो इनकी नजर में महापाप है. लता मंगेशकर भी इनकी नजर में गुनहगार हैं. बेशर्मी और तानाशाही की इससे बड़ी मिसाल नहीं हो सकती कि महाराष्ट्र की सरकार भारत का मान रहे इन महापुरुषों के ट्वीट की जांच करा रही है. यही इस किसान आंदोलन का सच है.
इस पूरे आंदोलन रूपी फर्जीवाड़े की गतिविधियों पर जरा गौर कीजिए. पहले ये दिल्ली घेरते हैं. फिर खालिस्तान समर्थक नारे लगते हैं. भिंडरावाला के पोस्टर-बैनर टंग जाते हैं. मोदी की इंदिरा की तरह हत्या की धमकी देते हैं. आगे चलकर ये राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस को भारत को शर्मसार करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. हमारा विजयी विश्व तिरंगा लाल किले से फेंक दिया जाता है. वहां कुछ संदिग्ध से धार्मिक चिह्न फहराए जाते हैं. सैंकड़ों पुलिसकर्मियों पर हमले होते हैं, वे जख्मी होते हैं. और दिल्ली को रौंदने के बाद निहायत बेशर्मी से ये तथाकथित किसान नेता वापस धरने पर आ बैठते हैं. इसे आंदोलन को बदनाम करने की सरकारी साजिश बताते हैं. लेकिन जैसे दिल्ली पुलिस इस हिंसा में शामिल लोगों की गिफ्तारी शुरू करती है, तो पंजाब सरकार 70 वकीलों की टीम उतार देती है. ये एक प्रकार की स्वीकारोक्ति नहीं तो क्या है कि जिन लोगों ने हिंसा की थी, उनके पैरोकार ये लोग हैं. यह कभी किसानों का आंदोलन था ही नहीं. अगर ये किसानों का आंदोलन होता, तो अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग का इससे क्या लेना-देना है. नागरिकता संशोधन कानून का किसानों के मसले से क्या लेना देना है. आंदोलन की विफलता पर टपके राकेश टिकैत के आंसुओं ने फौरी तौर पर पश्चिम यूपी के एक हिस्से में सहानुभूति पैदा की. लेकिन जैसे ही पंचायतों में अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगे, ये सहानुभूति भी जाती रही. आंदोलन विफल होता देख, डॉ. दर्शन पाल और उन जैसे नक्सली किसान भेसधारियों ने राकेश टिकैत के चेहरे को आगे कर दिया है. टिकैत इतने ‘एक्सपोजर’ से बौरा गए हैं. कभी कहते हैं कि गेहूं का रेट 1600 रुपये प्रति किलो हो. कभी उनके विचार सामने आते हैं कि सांसदों और विधायकों की पेंशन बंद करो. खुद उनके धरने में शामिल होने आए लोग अचंभे में है.
आपको याद होगा कि शाहीन बाग के धरने के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ये संयोग नहीं प्रयोग है. दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा धरना इस प्रयोग का विस्तार है. एक पूर्ण बहुमत से निर्वाचित सरकार द्वारा संसद के रास्ते बनाए गए कानून को सड़क पर हराने की लड़ाई चल रही है. 2014 के बाद से जिहादी, अर्बन नक्सली, तथाकथित बुद्धिजीवी, वकील, पत्रकारों के इस गैंग ने अपना काम शुरू कर दिया था. कांग्रेस भी पाकिस्तान और नक्सलियों की तरह इस बात पर विश्वास कर चुकी है कि वह केंद्र की राष्ट्रवादी सरकार का मुकाबला नहीं कर सकती. इसलिए 2014 के बाद से ही बहुमत को सड़क पर हराने की रणनीति पर काम शुरू हो गया था. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में या फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, आजादी के नारों के साथ वही लोग खड़े थे, जो आज आपको दिल्ली की घेराबंदी में नजर आते हैं. ये लोग भीमा कोरेगांव में भी थे. यही चेहरे सीएए विरोधी हिंसा और शाहीन बाग में थे. फिर ये चेहरे हाथरस गैंग रेप के खिलाफ दलितों के आंदोलन को भड़काने जा पहुंचे.
भारत के किसान का मूल चरित्र परिश्रमी और देशभक्त है. अब किसान इतना भोला नहीं है कि इन साजिशों को न समझ सके. वह अगर खेत में काम करता है, तो उसका बेटा देश की सीमा पर हिफाजत कर रहा होता है. दिल्ली में चल रहा आंदोलन देश विरोधियों का प्लेटफार्म है. ये भारत की विकास की रफ्तार में ब्रेक लगाने की कोशिश है. यह एकजुट होकर भी मोदी को न हरा पाने की खीझ है. यह कोरोना पर ब्रेक लगाने की अभूतपूर्व उपलब्धि से ध्यान बांटने की कोशिश है. यह कोरोना की वैक्सीन जन-जन तक पहुंचने के कल्याणकारी प्रयासों से को नारों के बीच दबाने का प्रयास है. यह एक मीडिया इवेंट भी है. चंद हजार लोग दिल्ली की जगह कहीं और धरने पर बैठे होते तो क्या इन्हें इतना ही एक्पोजर मिलता. लेकिन अगर ये आंदोलन है, तो बस दिल्ली या पंजाब के कुछ इलाकों में क्यूं है. किसान ये सब जानता है. तभी तो इस आंदोलन की तपिश किसी गांव में महसूस नहीं होती. जो नेता दिल्ली की राजनीति करते हैं, जो मीडिया हाउस दिल्ली को ही देश मानते हैं, उन्हें गांव तक पहुंच रखने वाले मोदी के बारे में अभी बहुत रिसर्च करनी होगी. फिलहाल टिकैत कह रहे हैं कि 2 अक्टूबर तक का टाइम सरकार को दिया है. मायने ये कि धरना 2 अक्टूबर तक खींचने की तैयारी है. इस दौरान कई राज्यों में चुनाव होने हैं. अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं. लेकिन एक बात इस कथित आंदोलन के रणनीतिकारों को समझनी होगी. देश का आमजन, किसान हर साजिश को समझता है
टिप्पणियाँ