सजी नारायणन सी.के.
परमेश्वरन जी अपनी सादगी और उच्चस्तरीय व्यवहार से वह कितनी जल्दी उन लोगों के मस्तिष्क पर विजय प्राप्त कर लेते थे। संगठनात्मक जीवन में मेरे जैसे लोगों के लिए परमेश्वरनजी गुरु, आदर्श, उन्नायक, मार्गदर्शक…सब कुछ थे
परमेश्वरनजी की जीवन यात्रा राष्ट्रीय जीवन के कई पक्षों से होकर गुजरी थी। उनका शैक्षिक जीवन अनूठा था, आजन्म संघ प्रचारक रहे, कई पत्रिकाओं के संपादक रहे, जनसंघ के साथ लंबा राजनीतिक जुड़ाव रहा, कई बौद्धिक संस्थानों का उन्होंने नेतृत्व किया, केरल में हिंदू पुनर्जागरण आंदोलन की अगुआई की और अनुभवी विचारक के रूप में संघ की सेवा करने जैसे उनके जीवन के अनेक पक्ष थे।
परमेश्वरनजी का जन्म केरल के अलप्पुझा जिले में मुहम्मा में हुआ था। मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने तिरुअनंतपुरम में शिक्षा ग्रहण की जहां उन्होंने बीए (आनर्स) की परीक्षा स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की थी। उसी समय वे संघ से जुड़कर इसके सक्रिय कार्यकर्ता बने। 1948 में जब श्री गुरुजी तिरुअनंतपुरम आए, तो वह एक सांख्यिक के प्रभारी थे, जिस पर कम्युनिस्टों ने हमला किया था। परमेश्वरनजी ने 1949 में रा.स्व.संघ पर प्रतिबंध के खिलाफ सत्याग्रह किया और कुछ समय के लिए जेल में रहे। पढ़ाई के बाद उन्होंने 1950 में पूरा जीवन संघ प्रचारक के रूप में बिताने का फैसला किया। प्रचारक के रूप में उन्होंने केरल के विभिन्न हिस्सों में संघ कार्य को विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लंबे समय तक उन्होंने केसरी साप्ताहिक के संपादक का कार्यभार संभाला। श्री गुरुजी, पं. दीनदयाल उपाध्याय और श्री दत्तोपंत ठेंगडी जैसे विचारकों के साथ लंबे जुड़ाव से उनकी बौद्धिक प्रवृत्तियों का पोषण हुआ था। उन्होंने लगभग 20 पुस्तकों का लेखन किया जिनमें से दो पुस्तकें मुख्यधारा के साहित्य में हमेशा महत्वपूर्ण बनी रहेंगी। इनमें से पहली है ‘श्री नारायणगुरु-द प्रॉफेट आॅफ रेनेसां’ जिसमें केरल के हिंदू विमर्श को बदलने में हिंदू संन्यासी श्री नारायणगुरु के कार्यों का वर्णन है। यह अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। दूसरी पुस्तक है ‘अरविंदो: द फिलॉसफर आफ द फ्यूचर’ जो आम आदमी के समझने लायक सहज और प्रवाहमयी भाषा में महर्षि अरविंद के गहन दर्शन का परिचय देती है।
1958 में केरल राज्य के गठन के बाद परमेश्वरनजी को भारतीय जनसंघ के राज्य संगठन सचिव का दायित्व दिया गया था। इसके बाद वह भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने और इसके राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हुए। आपातकाल के दौरान वह जेल में रहे। उसके बाद, उन्होंने राजनीति छोड़ दी और दिल्ली में दीनदयाल अनुसंधान संस्थान का नेतृत्व किया। संस्थान के निदेशक के रूप में, वे संघ आंदोलन को वैचारिक प्रेरणा देने में सफल रहे।
1980 के दशक के दौरान जब उन्होंने अपनी गतिविधियों का केंद्र केरल को बनाया तो वहां का माहौल ऐसा था जिसे बदलने में वह प्रमुख भूमिका निभा सकते थे। उस दौर में केरल के बौद्धिक जगत पर नास्तिक-कम्युनिस्ट विचारों का एकाधिकार था। ईएमएस नंबूदिरीपाद जैसे विचारकों को चुनौती देने वाला कोई नहीं था और केरल के लोगों को महसूस होता था कि प्रगतिशील बनने के लिए कम्युनिस्ट बनना जरूरी है। हिंदू होना प्रतिगामिता और पिछड़ेपन की निशानी बन चुका था। केरल की दीवारें ऐसे नारों से पटी थीं कि ‘हमें मंदिर नहीं, कारखाने चाहिए’ आदि। परमेश्वरनजी के आगमन ने इन स्थितियों को बदला और धीरे-धीरे हिंदुत्व और राष्ट्रवाद में गर्व की अनुभूति का भाव भरा। उसके बाद संघ के नेतृत्व में केरल ने विशाल हिंदू पुनर्जागरण देखा। धीरे-धीरे परमेश्वरनजी को नंबूदिरीपाद के समकक्ष या उनसे भी बड़ा बुद्धिजीवी स्वीकार किया जाने लगा। 1983 में विशाल हिंदू सम्मेलन आयोजित करने की उनकी अप्रतिम दूरदृष्टि ने इतिहास रच दिया था। केरल का सम्पूर्ण हिंदू समाज इसके ध्येय गीत ‘सारे हिंदू एक हैं’ से प्रभावित था। जाति के आधार पर एक दूसरे से लड़ रहे सभी हिंदू संगठन एक मंच पर ऐसे आए, मानो कोई जादू हो गया हो।
उन्होंने भारतीय विचार केंद्रम् जैसे मील के पत्थर की स्थापना की जो अब प्रज्ञा प्रवाह का हिस्सा है। इसका उद्घाटन संघ के महान विचारक श्री दत्तोपंत ठेंगडी ने किया था। यह मलयालियों के दिमाग पर कम्युनिस्टों की पकड़ खत्म करने का एक संस्थागत प्रयास था, जिसमें यह सफल रहा। भारतीय विचार केंद्रम् ने उन्हें वह मंच प्रदान किया जिससे वह मार्क्सवादी किलों को जीतने की बौद्धिक लड़ाई को आगे बढ़ा सकें। ‘भगवद्गीता और मार्क्सवाद’ तथा ‘स्वामी विवेकानंद और मार्क्स’ जैसे तुलनात्मक अध्ययनों पर उनके भाषणों की श्रृंखला में बड़ी संख्या में साम्यवादी बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। इतना ही नहीं, इस तरह के प्रयासों ने मार्क्सवादी प्रभाव को व्यवस्थित रूप से समाप्त तो किया ही, इनके कारण बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट संघ की तरफ आने के लिए प्रेरित हुए। परमेश्वरनजी ने ‘मार्क्स से महर्षि’ और ‘मार्क्सवाद से मानवदर्शन तक’ जैसे नारे भी दिए, जो युवाओं को आकर्षित करते थे। केरल के हिंदू पुनर्जागरण पर उनकी पुस्तक उन सभी लोगों के लिए ऐसी पाठ्यपुस्तक की तरह है जो निकट अतीत के सांस्कृतिक इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं। ‘गीता स्वाध्याय केंद्रों’ की स्थापना के माध्यम से भगवद्गीता के संदेश को फैलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। स्वामी चिन्मयानंद के समाधिस्थ होने के बाद भगवद्गीता के प्रसार का यह प्रमुख प्रयास था। बाद के वर्षोें में ‘विवेकानंद केंद्र’ के कार्यकर्ताओं को संगठन अध्यक्ष के रूप में उनका मार्गदर्शन पाने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के प्रस्तावों को उन्होंने किसी योगी जैसी विनम्रता के साथ त्याग दिया था। जब उन्हें राज्यसभा सदस्यता की पेशकश की गई, तब भी उन्होंने विनम्रतापूर्वक वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था।
वर्तमान में, कोई भी मार्क्सवादी हिंदू विचारधारा पर संघ प्रवाह को चुनौती देने की हिम्मत नहीं कर पाता; इसीलिए वे स्वयंसेवकों को मार डालने के प्रयास करते हैं। इस तरह के बदलाव का प्रभाव इस हद तक था कि पूर्व मुख्यमंत्री और अनुभवी भाकपा नेता सी. अच्युतानंद मेनन ने जब एक मलयालम साप्ताहिक में लिखा कि भारतीय संस्कृति अपने आप में हिंदू संस्कृति है तो इस पर विवाद खड़ा हो गया। मेरा सौभाग्य है कि मैं उस समय परमेश्वरनजी के साथ था, जब वह मेनन को उनकी खुली और साहसपूर्ण टिप्पणी के लिए बधाई देने गए थे। सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों और बुद्धिजीवियों के साथ सकारात्मक संवाद स्थापित करने के क्रम में परमेश्वरनजी के निरंतर संगठनात्मक दौरे और मुलाकातें उनके साथ उपस्थित लोगों के लिए सीखने के अद्भुत अवसर होती थीं। यह देखना अद्भुत होता था कि अपनी सादगी और उच्चस्तरीय व्यवहार से वह कितनी जल्दी उन लोगों के मस्तिष्क पर विजय प्राप्त कर लेते थे। संगठनात्मक जीवन में मेरे जैसे लोगों के लिए परमेश्वरनजी गुरु, आदर्श, उन्नायक, मार्गदर्शक…सब कुछ थे। जब भी वह मेरे शहर आते थे तो, मेरे घर पर रहते हुए वह बौद्धिक दुनिया की जादुई खिड़कियां खोल देते थे। श्री अरविंद की ‘तर्कातीत’ तथा ‘उच्चतर मस्तिष्क’ जैसी अवधारणाओं से लेकर श्रम संबंधों की भौतिक दुनिया तक, सभी विषयों पर उनका दूरदर्शी मार्गदर्शन मुझे प्राप्त होता था।
आज केरल को कम्युनिस्टों के अंतिम अवशेषों में गिना जाता है; फिर भी, पिछले वर्ष केरल के कम्युनिस्ट कार्ल मार्क्स के द्विशताब्दी वर्ष, अक्तूबर क्रांति के शताब्दी वर्ष या ‘दास कैपिटल’ के 150वें वर्ष का जश्न मनाने की हिम्मत नहीं कर सके। दूसरी ओर, केरल के ‘नेशनलिस्ट गार्ड्स’ ने इसी वर्ष डॉ. हेडगेवार तथा श्री गुरुजी शताब्दी वर्ष और स्वामी विवेकानंद के 150वें वर्ष का उत्सव राज्य के हर कोने में मनाया। पं. दीनदयाल उपाध्याय और ठेंगड़ी जी के साथ ही वे भी संघ विचारधारा के उच्च बौद्धिक स्तर को बनाए रखने में सफल रहे थे। उनके निधन से संघ को गहन क्षति पहुंची है, जिसकी पूर्ति हो पाना कठिन है। तथापि, वह अपने जीवन के लक्ष्यों को पूरा करने के बाद आगे की यात्रा पर इस उम्मीद के साथ निकले हैं कि अन्य कार्यकर्ता उनके काम को आगे बढ़ाएंगे। आइए, हम हिंदू दर्शन की आश्चर्यजनक दुनिया में असंख्य लोगों का नेतृत्व करने वाले इस गुरु को असंख्य प्रणामों के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करें।
( लेखक भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष हैं )
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