अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बनने जा रहा मंदिर भारतीयों के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता का सूर्योदय सिद्ध होगा। हिंदू बरसों से अपने आराध्य भगवान श्रीराम का मंदिर बनाना चाहते थे, लेकिन वह शुभ घड़ी अब आई है इन दिनों पूरे देश में अयोध्या में बनने वाले श्रीराम मंदिर के लिए निधि समर्पण अभियान चल रहा है। यह बहुत ही पुनीत अवसर है। इस अवसर पर श्रीराम मंदिर के लिए चले अभियान को याद करना जरूरी लगता है। राम मंदिर निर्माण का अवसर राष्ट्र जागरण के महामंत्र के रूप में उपस्थित हुआ है। 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी समारोह से पूर्व यह राजनीतिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता का जयघोष है, जिसका स्वप्न संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने हिंदू समाज की आंखों से देखा था। विश्व के इतिहास में यह सबसे लंबा और बड़ा आंदोलन है, जिसमें किसी न किसी रूप में करोड़ों नागरिकों ने सक्रिय भूमिका निभाई और उसका आधार हिंसा और वैमनस्यता को नहीं बनने दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की जन्मभूमि पर आक्रमण से मंदिर निर्माण कार्य शुरू होने तक के 500 साल चले महाभियान में रामभक्तों ने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। रामजन्मभूमि ने सैकड़ों वर्षों तक अवहेलना, गौरव हनन, अपमान और हिंसा से बहने वाले आंसू देखे। अनगिनत आंखों में बह रहे खुशी के आंसुओं से अतीत की कालिमा धुल गई। इस ऐतिहासिक घटना के माध्यम से युगों-युगों तक, दिग-दिगन्त तक भारत की कीर्ति पताका फहराती रहेगी। हर भारतीय सौभाग्यशाली है कि वह अपनी आंखों से भव्य राम मंदिर के साथ-साथ दिव्य राष्ट्र मंदिर का निर्माण होते हुए भी देख रहा है। कोटि-कोटि बंधु-बांधवों का स्वप्न साकार होता दिख रहा है। राम मंदिर का निर्माण राष्ट्र को जोड़ने का उपक्रम है। विश्वास को विद्यमान से, नर को नारायण से, लोक को आस्था से, वर्तमान को अतीत से और समाज को संस्कार से जोड़ने का महोत्सव। राम का अर्थ है हृदय में प्रकाश राम मंदिर का अर्थ हृदय में प्रकाश यानी आदर्शों को सुस्थापित करना भी है। 11 मई, 1951 को सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की प्राण प्रतिष्ठा के समय तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कहे वाक्य स्मरणीय हैं, ‘‘जिसे जनता प्यार करती है, जिसके लिए जनता के हृदय में अक्षय श्रद्धा और स्नेह है, उसे संसार में कोई भी नहीं मिटा सकता।’’ पुनर्निर्माण की शक्ति हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक होती है। राम के चरित्र ने स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया है। उस समय की रामलीलाओं में महारानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के बलिदान और जलियावालां बाग कांड की झांकियां चलती थीं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनके सामने भी भयंकर संकट आए, लेकिन उन्होंने अपने लाभ के बारे में सोचने के बजाए मर्यादा की रक्षा के बारे में सोचा। राजसिंहासन की जगह उन्होंने 14 वर्ष का वनवास भोगा, अपनी प्रिय अयोध्या से दूर चले गए। सीता हरण हुआ, भयंकर युद्ध लड़ना पड़ा। उन पर आक्षेप लगे, कटु आलोचना हुई, ‘जनता माफ नहीं करेगी’ जैसे ताने मारे गए, उनका प्रियजन से बिछोह हो गया, लेकिन उन्होंने अपने हित, सम्मान, यश को दांव पर लगाकर मर्यादा की रक्षा की। उन्होंने विपत्तियों से ऊपर उठकर अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, कर्मठता और साहस से सफलता के पथ का निर्माण किया। सदियों लंबी प्रतीक्षा का परिणाम इस अभूतपूर्व वेला की प्रतीक्षा में लगभग पांच शताब्दियां और दर्जनों पीढ़ियां लग गर्इं। कितनी ही सरकारें आर्इं और गर्इं लेकिन देश के इतने महत्वपूर्ण विषय को लटकाए रखा गया। लेकिन वास्तव में दीर्घकालीन, दृढ़प्रतिज्ञ, संघर्षमय और कारुणिक प्रतीक्षा की परिणति सुखद ही होती है। 1947 में देश को राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त हुई लेकिन देश सांस्कृतिक स्वतंत्रता को तरसता रहा। सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी तत्कालीन सरकार को पसंद नहीं था। पं. जवाहरलाल नेहरू ने कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से कहा था, ‘‘मुझे सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाना पसंद नहीं है।’’ भारतीय विद्याभवन की पत्रिका ‘भवन्स जर्नल’ के 1 जनवरी, 1967 के अंक में मुंशी के पत्र से उद्धृत)। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के निर्णय से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने के विषय ने जोर पकड़ा। अयोध्या के साधु-संत पं. नेहरू से मिले। लेकिन सरकार राम मंदिर के पक्ष में नहीं थी। (26 दिसंबर, 1949 को नेहरू का पंत को तार)। यहां तक कि रामलला की प्रतिमा हटाने के भी निर्देश दे दिए गए थे। लेकिन सरदार पटेल की इच्छाशक्ति और हस्तक्षेप के कारण ऐसा नहीं किया जा सका। (9 जनवरी, 1950 को सरदार पटेल का मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत को पत्र) यहां तक कि न्यायालय को लिखकर दे दिया गया कि उसकी इस विवाद में कोई रुचि नहीं है। (10 दिसंबर, 1992 के इलाहाबाद के निर्णय का अंश) देश का संकल्प है कि तुलसीदासजी की पुण्यतिथि के 400 वर्ष पूरे होने पर 2023 में यहां भव्य राम मंदिर आकार ले लेगा। आजादी और राम जन्मभूमि आंदोलन ब्रिटिश हुकूमत के दौर में राम जन्मभूमि परिसर पर हिंदू समाज के दावे को खारिज किया जाता रहा। देश की आजादी के बाद नई जनचेतना का संचार हुआ। सदियों पहले विदेशी आक्रांता द्वारा मंदिर तोड़कर बनाए गए ढांचे का विरोध और मुखर होने लगा। इसी दौरान जन्मभूमि परिसर में रामलला का प्राकट्य हुआ। वहां श्रद्धालु इकट्ठे हो गए और भजन-कीर्तन होने लगा। अयोध्या थाने में कुछ लोगों के खिलाफ अभियोग पंजीबद्ध हुआ। उधर, मुसलमानों में रोष फैलाया गया और जिस ढांचे में नमाज नहीं पढ़ी जा रही थी, वहां से हिंदुओं को हटाकर नमाज पढ़ने का फैसला किया गया। इससे कानून-व्यवस्था की स्थिति गंभीर हो गई और दोनों वर्गों के लोगों की गिरफ्तारियां हुर्इं। हिंदुओं ने रामलला की प्रतिमा नहीं छोड़ी और वहीं बैठे रहे। परिसर को कुर्क कर लिया गया और वहां एक रिसीवर नियुक्त कर दिया गया। गुंबद के नीचे पूजा चलती रही और द्वार पर ताला लगा दिया गया। अयोध्या के गोपालसिंह विशारद ने फैजाबाद की अदालत में पुलिस अधीक्षक, उत्तर प्रदेश सरकार और कुछ स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाते हुए मांग की, ‘‘मूर्तियों को हटाने, प्रवेश बंद करने तथा पूजा-पाठ व दर्शन में विघ्न डालने से उन्हें रोका जाए।’’ सिविल जज ने अंतरिम आदेश विशारद के पक्ष में पारित करते हुए टिप्पणी की, ‘‘यह बात प्रत्येक ओर से सिद्ध है कि मुकदमा दायर करने के पहले से ही ढांचे में मूर्ति स्थापित थी और कुछ मुसलमानों ने भी अपनी दलील में कहा था कि ढांचे को 1936 से मुसलमानों के द्वारा नमाज आदि में प्रयुक्त नहीं किया गया था और हिंदू निरंतर इस विवादास्पद स्थान पर पूजा-अर्चना आदि करते रहे थे।’’ इस निषेधाज्ञा के खिलाफ प्रतिवादी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में गए। वहां भी फैजाबाद सिविल अदालत के फैसले को बहाल रखा गया। शुरुआत में ही इस तरह के स्पष्ट फैसले मिल जाने के बावजूद, यह विवाद दशकों तक कानूनी दावपेंच में उलझा रहा। सरकार और मीडिया की दोहरी भूमिका पुख्ता साहित्यिक-पुरातात्विक साक्ष्य मिलने के बाद भी न्यायसम्मत फैसला लागू करवाने की दृढ़ता के बजाए राम जन्मभूमि के राष्ट्रवादी आंदोलन को चोट पहुंचाई गई। मीडिया का एक बड़ा वर्ग हर मामले में तत्कालीन सरकारों का अनुगामी बना रहा। मंदिर निर्माण समर्थक संगठनों ने न्यायालय की अवमानना नहीं करने और विवाद के हल के प्रति सकारात्मक रुख दिखाया, तो यह कहते हुए उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई कि वे झुक गए हैं। उनसे पूछा गया, ‘‘आप मंदिर कब बनाएंगे? आपके जनादेश का क्या हुआ?’’ और, जब वे अपने निर्णय पर अड़े रहे तो उन्हें मध्ययुगीन और अड़ियल बताया गया। राम मंदिर निर्माण समर्थक कार्यक्रम सफल हुए तो उन्हें सांप्रदायिकता भड़काने वाला प्रयास बताया गया और यदि कोई कार्यक्रम कमजोर रहा तो यह कहकर कचोटा गया कि उन्होंने अपना असर खो दिया है और जनता उनकी चाल को समझ गई है। दिसंबर, 1992 के प्रथम सप्ताह, जब तक विवादित ढांचा सुरक्षित रहा, तब तक अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से बार-बार पूछा गया, ‘‘यहां बड़ी संख्या में मौजूद युवक ढांचे को क्षतिग्रस्त करने को ही कारसेवा मानते हैं तथा आपके अनुशासन से बंधे हुए नहीं हैं। उनके बारे में आपका क्या कहना है?’’ और जब ढांचा ध्वस्त हो गया तो इसके लिए परिषद को ही दोषी ठहरा दिया गया। विशेष बात यह कि इस विवाद के हल की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि विवादित ढांचे के मलबे से प्राचीन मंदिर के शताधिक अवशेषों का निकलना था, लेकिन इसे ज्यादातर समाचार पत्रों ने खबर नहीं माना। वोट बैंक का लालच देश को जर्जर कर रहा था और इतनी-सी बात का फैसला नहीं किया जा रहा था कि मीर बाकी ने 1528 में ढांचे को बनवाया, तो वहां खाली स्थान था या उस स्थान पर कोई मंदिर या भवन बना हुआ था। देश के प्रमुख पुरातत्वविदों ने इस दिशा में रुचि ली और निष्कर्ष निकाला तो उनसे बात तक नहीं की गई। जिस विवादित ढांचे के ध्वस्त होने को ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया गया, उसके लिए कांग्रेस की सरकार ने ही 1962 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को लिखकर दे दिया था कि ‘उसकी इस विवाद में कोई रुचि नहीं है।’ राम शिलापूजन को सांप्रदायिकता भड़काने की कोशिश करार दे दिया गया। विश्व हिंदू परिषद का सशक्त नेतृत्व विश्व हिंदू परिषद राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की पर्यायवाची संस्था के रूप में उभरी। 8 अप्रैल, 1984 को दिल्ली में आयोजित प्रथम धर्मसंसद के बाद परिषद की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। 18 जून, 1984 को परमहंस रामचंद्रदास के अयोध्या स्थित दिगम्बर अखाड़े में साधु-संतों की बैठक करके श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति अभियान समिति का गठन किया गया। 21 जुलाई, 1984 को अयोध्या में राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। तय किया गया कि राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति आंदोलन की सूत्रधार होगी और परिषद इसी समिति के माध्यम से आंदोलन का संचालन करेगी। 25 सितम्बर, 1984 को माता सीता के जन्मस्थान सीतामढ़ी (बिहार) से राम-जानकी रथयात्रा की शुरुआत हुई। यह रथ 6 अक्तूबर की रात अयोध्या पहुंचा। अगले दिन सरयू नदी के किनारे संकल्प दिवस मनाया गया और प्रस्ताव पारित करके राम जन्मभूमि पर लगा ताला अविलंब खोलने की मांग की गई। इस रथ को 31 अक्तूबर, 1984 को गाजियाबाद पहुंचना था। उसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या हो गई और राम-जानकी रथयात्रा स्थगित कर दी गई। विश्व हिंदू परिषद ने महसूस किया कि राम जन्मभूमि की मुक्ति बिना बलिदानों के नहीं होगी। इसलिए 50,00,000 रामभक्तों का ऐसा जत्था तैयार करने का निर्णय हुआ, जो आवश्यकता पड़ने पर जान देने में भी पीछे नहीं रहे। 18 अप्रैल, 1985 को परमहंस रामचंद्रदास ने घोषणा की कि 8 मार्च, 1986 से पहले जन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खोला गया तो वे आत्मदाह कर लेंगे। परिषद के कार्यवाहक अध्यक्ष न्यायमूर्ति शिवनाथ काटजू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह से मिलकर कहा कि राम जन्मभूमि पर लगा हुआ ताला अनधिकृत है क्योंकि वह किसी भी न्यायालय के आदेश से नहीं लगा हुआ है। लेकिन सरकार ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। वर्षभर से रुके हुए रथों की 22 अक्तूबर, 1985 से उत्तर प्रदेश की विभिन्न दिशाओं में एक साथ फिर से यात्राएं शुरू कर दी गर्इं। 9 नवम्बर तक सभी विकास खंडों तक राम-जानकी रथ पहुंचे और लगभग 1500 धर्म सम्मेलन आयोजित किए गए। दूसरी ओर, 31 अक्तूबर को उडुप्पी (कर्नाटक) में धर्मसंसद हुई, जहां 851 प्रमुख संतों के 36 प्रस्तावों में सबसे अधिक जोर राम जन्मभूमि मुक्ति के आंदोलन पर रहा। इसमें ‘जन्मभूमि ताला तोड़ो’ समिति का गठन किया गया। 19 दिसम्बर को बजरंग दल ने उत्तर प्रदेश बंद का आयोजन किया, जिसे पूरी सफलता मिली। 19 जनवरी, 1986 को लखनऊ में साधु-संतों का सम्मेलन हुआ, जहां आगामी शिवरात्रि (6 मार्च) से संघर्ष शुरू करने का निर्णय हुआ। इस बीच 1 फरवरी को फैजाबाद के वकील उमेशचंद
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