इस घड़ी में सरकार या वास्तविक किसानों, दोनों के लिए महत्वपूर्ण बात ये है कि भाषा का संयम बनाए रखा जाए। कड़वी भाषा, आक्रामक तौर तरीकों, अन्य नागरिकों के लिए परेशानी खड़ी करने वाले पैंतरों से से बचा जाए। जो भी लोग संवाद के इच्छुक हैं वो सामने आएं और उनकी आंशकाओं का निर्मूलन किया जाए साथ ही उपद्रवियों के साथ सख्ती और पारदर्शिता से निपटा जाए।
p6_1 H x W: 0
दिसंबर माह के पहले सप्ताह में सर्दी बढ़ने के साथ-साथ कथित किसान आंदोलन गर्म हो गया है। दिल्ली को अन्य राज्यों के साथ जोड़ने वाले जोड़ों की जकड़न बढ़ गई है। राजधानी के लिए यह सर्द-गर्म, विरोधाभास-विसंगतियां नई बात नहीं हैं। आम लोगों के हितों का सबसे ज्यादा ध्यान रखने का दावा करने वाली, लेकिन वास्तव में महामारी के समय में भी प्रचार-प्रपंच में डूबी हुई निष्ठुर आम आदमी पार्टी की सरकार में दिल्ली के लिए त्रासदियां सामान्य ही हैं।
खैर, केंद्र सरकार कृषि सुधारों पर खुल कर अपना पक्ष रख रही है। आशंकाओं के निवारण हेतु तत्परता भी दिखाई जा रही है, मगर किसान पक्ष के जो कथित पैरोकार हैं उनकी तरफ से सहज संवाद की बजाय जो अक्खड़, अड़ियल प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वो पक्षकारों और दिल्ली के नागरिकों की उलझनें बढ़ा रही हैं। ऐसे में ये प्रश्न मिथ्या हो जाता है कि सरकार और किसानों के बीच में वार्ता से आगे क्या परिणाम प्राप्त होंगे क्योंकि आंदोलन के आड़ में संवाद के लिए अनिच्छुक चेहरे बता रहे हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है।
सच यह है कि इस आंदोलन को किसी अन्य आंदोलन की तरह देखना भूल हो सकती है क्योंकि किसानों की बजाय अराजक तत्व इसे पोस रहे हैं और अराजकता के ‘पोस्टर बॉय’ अरविंद केजरीवाल कोरोना काल में दिल्ली के कुशासन से ध्यान हटाने के लिए आंदोलन को दिल्ली की ओर खींचने के लिए उतावले दिखते हैं।
मत भूलिए कि राजनीति में कदम रखते वक्त केजरीवाल ने सबसे पहले कहा था कि हम अराजकतावादी हैं। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस आंदोलन में जो चेहरे दिखाई दे रहे हैं (जैसे योगेंद्र यादव, मेधा पाटकर और भिंडरावाला को आतंकी न मानने वाले एक्टर दीप सिद्धू) वे स्वयं किसान नहीं हैं। ऐसे में कृषि बिलों पर फौरी बहस-समझाइश से ताव खाए भोले-भाले असली किसानों के गले यह तत्व आफत की तरह पड़ गए हैं। अब ये उनका दायित्व बनता है कि समाज को बांटने, हिंसा को बढ़ावा देने और देश के अहित की इच्छा रखने वाले लोगों को अपने आंदोलन का मंच न मुहैया कराएं।
जिस तरह से पिछले कुछ समय में वामपंथी संगठनों ने विश्वविद्यालय कैंपसों में आक्रोश को बढ़ावा दिया है वैसे ही वामपंथी संगठन अब इस आंदोलन को भी ‘हाईजैक’ करते दिख रहे हैं। आंदोलन की दिशा को देखते हुए लग रहा है कि जल्द ही अधकचरी जानकारी को ‘क्रांतिकारी ज्ञान’ मानने वाले युवाओं को बरगलाने का काम तेज होगा। ऐसे छात्र जो किसी भी हिंसक आंदलोन का कच्चा ईंधन हो सकते हैं, उन्हें इस आंदोलन की ओर ‘फैशनेबल’ तरीके से ठेला जाएगा।
किसानों के पीछे खड़े एजेंडा आंदोलनकारी बेपरवाह हैं। क्योंकि किसान फसल की बिजाई करके अगले 3 महीने के लिए फारिग हैं और निश्चिंतता के इस मैदान पर उन्माद की फसल कटाई जा सकती है। इसलिए रणनीतिक रूप से छितरे हुए आंदोलन को लंबा खींचने के लिए बहुत संख्या बल की आवश्यकता नहीं होगी। थोड़ी सी भीड़ के बल पर ही एक आक्रामक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी है। इसे समाज से भावनात्मक जुड़ाव की ढाल देने और मासूम लड़के-लड़कियों को सोशल मीडिया के मोर्चे पर तैनात करने की मन्सूबाबन्दी दिखने भी लगी है।
मुद्दा भले खेती-किसानी है किंतु निश्चित ही किसान या उसके सरोकार इस आंदोलन के केंद्र में नहीं हैं। जिस तरह शाहीनबाग आंदोलन सीएए कानून के विरोध के लिए नहीं था और नागरिकता देने के कानून को नागरिकता छीनने का कानून बताकर कुप्रचार किया गया, कुछ वैसा ही कुप्रचार इस बार भी किया जा रहा है।
वास्तविकता में किसानों की चिंता देश के मुख्य एजेंडे में होनी ही चाहिए क्योंकि विश्व में भारत के अतिरिक्त शायद ही कोई दूसरा देश होगा जहां की कुल जनसंख्या का इतना बड़ा हिस्सा कृषि पर आश्रित हो। यूरोप में भी कई लोग खेती किसानी छोड़ रहे हैं लेकिन भारत में स्थिति और विकट हो जाती है क्योंकि जब दो भाईयों में भूमि का बंटवारा होता है तो उससे उत्साह भी घट जाता है, मन भी टूट जाता है। ऐसे में कृषि को लाभकारी व्यवसाय बनाने के लिए आवश्यक है कि जो बिचौलिए हैं उन्हें सिस्टम से हटाया जाए। इसलिए इस बिल के आने के बाद जो विमर्श बिचौलियों के खिलाफ होना चाहिए था उसे जानबूझकर एजेंडे के तहत किसान विरोधी बताकर प्रचारित करने वालों का तंत्र कितना मजबूत है इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है।
हां, ये जरूर है कि जब किसानों को दो विकल्प मिल रहे हैं कि चाहे तो वो मंडी में अपनी उपज बेच सकता है और चाहे तो मंडी के बाहर भी। ऐसे में किसान को न्यूनतम मूल्य की गारंटी का आश्वासन मिले इसकी चिंता तो होनी ही चाहिए लेकिन लोकतंत्र में लोक को तंत्र के विरुध षड्यंत्र के अनुसार खड़े करने वाले जो लोग हैं उनपर नजर रखना भी बेहद आवश्यक है।
इस घड़ी में सरकार या वास्तविक किसानों, दोनों के लिए महत्वपूर्ण बात ये है कि भाषा का संयम बनाए रखा जाए। कड़वी भाषा, आक्रामक तौर तरीकों, अन्य नागरिकों के लिए परेशानी खड़ी करने वाले पैंतरों से से बचा जाए। जो भी लोग संवाद के इच्छुक हैं वो सामने आएं और उनकी आंशकाओं का निर्मूलन किया जाए साथ ही उपद्रवियों के साथ सख्ती और पारदर्शिता से निपटा जाए। आंदोलन से या इसके दौरान किसानों के प्रति सामाजिक कड़वाहट नहीं आनी चाहिए।
बहरहाल, किसानों की चिंताओं का समाधान आवश्यक है किंतु अब तक सिस्टम के दोषों का लाभ उठाते आए भ्रष्ट लोग साथ में विपक्षी महत्वाकांक्षा और देश में अस्थिरता और अशांति देखने की इच्छा रखने वाले लोगों का ये गठजोड़ क्या असर दिखाता है इस पर नजर बनाए रखने की भी आवश्यकता है। @hiteshshankar
टिप्पणियाँ