कुछ समय पहले राष्ट्रीय अभिलेखागार की गुप्त सूची से आईबी की दो फाइलें सार्वजनिक किये जाने के बाद यह तथ्य सामने आया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू दो दशकों तक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के परिवार की जासूसी करवाते रहे थे। इन दस्तावेजों के गुप्त सूची से हटने के बाद यह खुलासा हुआ। सन, 1948 से लेकर 1968 तक नेहरू नेताजी के परिवार पर कड़ी निगरानी के लिए जासूसी प्रणाली का निजी हितों में बेजा इस्तेमाल करते रहे थे। दरअसल भारत में राज्य पोषित जासूसी की संस्कृति अंग्रेजों के दौर में ही विकसित हो गयी थी। चूंकि तब अंग्रेज शासन कर रहे थे, लिहाजा अंग्रेजों द्वारा जासूसी का इस्तेमाल कांग्रेस नेताओं के विरुद्ध किया जाता था। तमाम कांग्रेसी नेताओं में अंग्रेज अगर सबसे ज्यादा किसी को लेकर सशंकित और डरे हुए थे, तो वे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही थे। अंग्रेज नेताजी की जासूसी करवाया करते थे, जिसे प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने भी अंग्रेजों की तर्ज पर ही जारी रखा। इतना ही नहीं ब्रिटिश लेखागार से प्राप्त जानकारी के मुताबिक नेताजी के सम्बन्ध में भारत का खुफिया विभाग आईबी, ब्रिटिश खुफिया विभाग एमआई- 5 को सूचनायें भी मुहैया कराता था। सन् 1947 में नेताजी के एक करीबी ए.सी. नाम्बियार ने स्विट्जरलैंड से नेताजी के भतीजे अमिय बोस के नाम कलकत्ता पत्र लिखा। इस पत्र की एक प्रति भारत के खुफिया विभाग ने ब्रिटिश खुफिया तंत्र एमआई-5 को मुहैया करा दी। ब्रिटिश लेखागार से मिला यह पत्र, इस बात की तस्दीक करता है कि नेताजी के परिवार की जासूसी आईबी द्वारा कराई जा रही थी। यानी वहीं से आईबी की भूमिका पर संदेह पैदा हो जाता है। आईबी के औचित्य एवं इसकी कार्य-प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, ‘राज्यव्यवस्था में भारत का खुफिया विभाग शुरू से ही औपनिवेशिक प्रणाली पर काम करता आ रहा है। यह पूरी तरह से ब्रिटिश खुफिया तंत्र एमआई-5 पर की तर्ज पर आधारित खुफिया एजेंसी है। यह एक ऐसी संस्था है, जिस पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती, कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है। संसद के प्रति जवाबदेह होने की बजाय आईबी प्रधानमंत्री के हाथ की कठपुतली की तरह काम करने लगी। यही तरीका नेहरू के समय भी चलता था और बाद में भी इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है। नेहरू द्वारा आईबी का इस्तेमाल करके नेताजी सुभाष के परिवार की जासूसी कराने का एक और प्रमाण 25 नवम्बर 1957 को नेहरू द्वारा तत्कालीन विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखे पत्र से मिलता है। नेहरू ने विदेश सचिव को लिखे उस पत्र में नेताजी के भतीजे अमिय बोस के जापान दौरे के सम्बंध में जानकारी मांगी थी, जिसका जवाब देते हुए जापान में भारत के तत्कालीन राजदूत सी.एस. झा ने बताया कि अमिय बोस के जापान दौरे के सम्बंध में कोई भी संदिग्ध सूचना नहीं है। यानी यह पत्र अपने आप में एक प्रमाण है कि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू द्वारा नेताजी के परिवार पर निगरानी रखी गयी थी। नेताजी के भाई शरत बोस की बेटी चित्रा ने नेहरू से हुई एक मुलाकात का जिक्र करते हुए मीडिया को बताया है कि कलकत्ता दौरे पर आये नेहरू उनके आवास 1, वुडवर्न पार्क पर उनके पिता से मिले थे। उस मुलाकात में नेहरू ने आंसू भरी आंखों के साथ एक आयताकार डायल वाली कलाई घड़ी देते हुए कहा था कि यह वही घड़ी है,जो सुभाष ने विमान दुर्घटना के दौरान पहनी हुई थी। इस पर उनके पिता ने साफ कहा, ‘जवाहर, मुझे इस दुर्घटना वाली कहानी पर यकीन नहीं है, और सुभाष कभी ऐसी घड़ी नहीं पहनते थे। वे सिर्फ अपनी मां की दी हुई गोल डायल वाली घड़ी ही पहनते थे। अर्थात इस बयान के मायने यही हैं कि नेहरू वहां झूठ बोल रहे थे। हालांकि केवल परिवार ही नहीं बल्कि और भी तमाम लोग जो तब नेताजी से जुड़े रहे हैं, ये मानने को तैयार नहीं हैं कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी विमान दुर्घटना में मारे गए थे। नेताजी के निजी सुरक्षाकर्मी रहे स्वतंत्रता सेनानी जगराम ने मीडिया को बताया था, ‘नेताजी की मौत विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। हो सकता है कि उनकी हत्या कराई गयी हो! अगर उस दुर्घटना में उनकी मौत हुई होती तो कर्नल हबीबुर्रहमान कैसे जिन्दा बच जाते? आजादी के बाद कर्नल रहमान पाकिस्तान चले गए थे। मुझे ऐसी आशंका है कि नेहरू के कहने पर नेताजी को रूस में फांसी दी गयी हो।’ सवाल उठता है कि आखिर नेहरू नेताजी की जासूसी क्यों कराते थे ? इस सवाल पर श्री रामबहादुर राय का जवाब था, ‘नेहरू को 1937 में ही यह बात समझ में आ गयी थी कि उनके लिए असली प्रतिद्वंद्वी नेताजी ही हैं। अगर मैं गलत नहीं हूं तो नेहरू और नेताजी की उम्र में लगभग 9 साल का फर्क था। दोनों कई मुद्दों पर समान विचार के थे, लेकिन संगठन निर्माण के मामले में नेताजी के सामने कोई नहीं ठहरता था। नेहरू को हमेशा इस बात का भय था कि अगर नेताजी आ गये तो उनके लिए संकट की स्थिति होगी। हालांकि नेताजी के समर्थक भी इस रहस्य को हमेशा सनसनी बनाते रहे हैं। जबकि कुछ प्रमाणों के आधार पर कहें तो नेताजी की मृत्यु 1954 में साइबेरिया में होने की बात सामने आती है।’ जासूसी पर उठे विवाद एवं नेहरू की भूमिका पर उठे सवालों के बीच एक बहस इस बात पर भी शुरू हुई है कि जासूसी की इस संस्कृति की परम्परा को बेशक शुरू नेहरू ने किया हो, लेकिन आगे भी इंदिरा गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं ने इसे अपने निजी हितों के हथियार के तौर पर चलाया है। इतिहास के प्रमाण इस बात की तस्दीक करने के लिए पर्याप्त हैं कि आजादी के बाद की नेहरू-इंदिरा कांग्रेस ‘जासूसी की संस्कृति’ का पोषण करके इसे चलाती रही है। अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों को किनारे लगाने अथवा उन पर नजर रखने के लिए चाहे नेहरू हों या उनकी पुत्री पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, दोनों ने ही राजनीति के अंतर्गत हुए वैचारिक टकरावों को जासूसी के बूते लड़ने की संस्कृति बनाया है। इंदिरा गांधी बनाम मेनका गांधी मामले में भी जासूसी के इसी उपकरण का इस्तेमाल सामने आया था। पूर्व सीबीआई अधिकारी एम. के. धर ने तो बाकायदा यह स्वीकार किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने पुत्र संजय गांधी की मौत के बाद उनकी पत्नी एवं अपनी बहू मेनका गांधी की जासूसी करवाई थी। अर्थात, कुल मिलाकर देखा जाये तो आजादी के बाद की नेहरू-इंदिरा के इर्द-गिर्द रही कांग्रेस ने राज्यव्यवस्था में खुफिया तंत्र को अपने निजी हितों के लिए विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला उपकरण बना दिया था। चाहे, पूर्व रक्षा मंत्री ए. के. एंटनी के जासूसी का मामला हो अथवा संप्रग सरकार में मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी के कार्यालय में जासूसी का मामला हो, ये सारा कुछ कांग्रेस की परम्परा से अर्जित जासूसी की कु-संस्कृति की परिणति रही है। अब जब राष्ट्रीय अभिलेखागार की दो फाइलों को सार्वजनिक करने के बाद ये मामला सामने आया है और नेहरू पर सवाल उठ रहे हैं, तो इसे महज इतने पर सीमित करके देखना उचित नहीं होगा। अभी न जाने और कितने रहस्य इतिहास के कलेजे में दफन हैं, जो कांग्रेस के चरित्र को और उजागर कर सकते हैं। नेताजी की जासूसी के सम्बंध में मिले साक्ष्यों के बाद यह कहा जा सकता है कि जिन्हें हमें ‘चाचा’ बताया जाता रहा है, वे अब ‘जासूसी के चाचा’ भी साबित हुए हैं! (यह लेख 26 अप्रैल, 2015 (पांचजन्य आर्काइब) से से लिया गया है)
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