भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां के नागरिक संप्रभु, इसलिए उन्हें देश से जुड़ीं सूचनाएं हासिल करने का पूरा अधिकार होना ही चाहिए। दुर्भाग्य से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने प्रशासन, शिक्षा और न्यायप्रणाली में ब्रिटिश औपनिवेशिक मॉडल को बनाए रखा। उन्हें ‘ब्राउन इंग्लिशमैन’ कहा जाता था। यह नाम उनकी छवि से मेल भी खाता था। उन्हें अंग्रेजों के बीच खुशी मिलती थी और इसीलिए 15 अगस्त, 1947 को प्रधानमंत्री पद पर बैठने के बाद उन्होंने वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को आजाद भारत के गवर्नर जनरल के तौर पर बने रहने को कहा था। ये माउंटबेटन ही थे जिन्होंने अमरीका से आने वाले अनाज से भरे जहाजों को एशिया में मौजूद ब्रिटिश फौजों के लिए भेज दिया था और बंगाल तथा बिहार के भूख से अकुलाते लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया था। 1943-44 के दौरान इसी वजह से वहां चालीस लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे। हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हीं माउंटबेटन को भारत में सेना का प्रभारी बना दिया था, जिसकी वजह से वे खुद, उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल और रक्षामंत्री बलदेव सिंह पूर्व वायसराय के अधीन होकर रह गए थे। इन्हीं माउंटबेटन ने सुनिश्चित किया था कि पाकिस्तान के पास गिलगित-बाल्टिस्तान सहित कश्मीर का तीन चौथाई हिस्सा रहे। लंदन चाहता था कि नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें, गांधी जी भी यही चाहते थे। उन्होंने पटेल को दूसरे स्थान पर रखा। ऐसी परिस्थिति में अगर, 1945 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारत लौटते तो वे भारत के जन-जन के प्रिय होते। वे भारतीय फौज के प्रिय होते। बोस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के नाते नेहरू की बजाय पहले प्रधानमंत्री बनाए जाते। मौजूदा रिकार्ड बताते हैं कि नेताजी ताइवान में विमान दुर्घटना में नहीं मारे गए थे, बल्कि आगे चलकर सोवियत संघ में एक कैदी के रूप में इस संसार से विदा हुए थे। यह वही देश था जहां 1965 में लालबहादुर शास्त्री ने आखिरी सांस ली थी। बहरहाल, ऐसे तमाम रिकार्ड या तो मिटा दिए गए अथवा दबा दिए गए ताकि नेताजी के साथ जो घटा उसका सच भारत के लोगों से छिपा रहे। सच क्या है ? नेताजी के परिवार के सदस्यों ने यह खुलासा किया कि दो दशक तक उन पर निगरानी रखी गई थी। यह साबित करता है कि भारत सरकार डरती थी कि कहीं उनका परिवार यह न जान जाए कि वे जिन्दा थे, या बाद में उनकी किस तरह मृत्यु हुई। दिल्ली में मौजूद सूत्रों के अनुसार, ‘डर था कि कहीं परिवार को पता न लग जाए कि नेताजी के साथ क्या हुआ था।’ आखिर ऐसा हुआ क्या था ? केन्द्रीय प्रशासन और पश्चिम बंगाल सरकार के पास इस संदर्भ में करीब दो सौ दस्तावेज हैं। विभिन्न लोगों और अधिकारियों द्वारा मांगे जाने पर 41 दस्तावेजों में से दो ही सार्वजनिक रूप से सामने रखे गए। रूस और भारत में मौजूद तथ्यों के जानकार सूत्रों ने निजी बातचीत में बताया कि ज्यादा जानकारी देने से इनकार करने के पीछे वजह देशहित नहीं थी बल्कि कुछ आला अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को बचाना थी जिन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश और सोवियत सरकारों के प्रति भारत के लोगों के गुस्से को दबाने के लिए मामले को दफना देने की साजिश रची थी। इन सूत्रों के अनुसार, ‘नेताजी सुभाष बोस को लेकर मामला स्टालिन द्वारा ‘अच्छी तरह’ से निपटा दिया गया था।’ साफ है कि ‘अच्छी तरह’ का अर्थ था कि नेताजी के बारे में ‘विमान दुर्घटना’ के बाद से कोई जानकारी किसी को न मिल सके। ताइवान के अधिकारियों ने अपनी जानकारी के आधार पर साफ बताया है कि जो तारीख बतायी जा रही है उस दिन बताए गए हवाई अड्डे पर किसी विमान दुर्घटना का कोई ब्यौरा मौजूद नहीं है। उनका कहना है कि उड़ान के गवाहों ने यह स्पष्ट कहा है कि विमान सही प्रकार से उड़ा था और उसे 18 अगस्त, 1945 को मंचूरिया की हवाई पट्टी पर उतरना था। उस वक्त वह इलाका सोवियत फौज के अधीन था क्योंकि 15 अगस्त, 1945 को जापान के राजा हीरोहितो ने उस इलाके में समर्पण की घोषणा कर दी थी। तत्कालीन सोवियत संघ में मौजूद सूत्रों का दावा है कि ‘विमान मंचूरिया की हवाई पट्टी पर सही सलामत उतरा था’ और कि नेताजी को सोवियत फौजी गिरफ़तार कर मास्को ले गए थे। उनके अनुसार नेताजी को मास्को की एक जेल में ले जाने से पहले 17 महीनों तक ‘गुलाग’ (यातना शिविर) में रखा गया था। 11 साल बाद उनका निधन हो गया। इसके साथ ही वे बताते हैं कि स्टालिन के बाद के सोवियत नेताओं ने नेताजी की कैद और निधन की परिस्थितियों को गुप्त ही बनाए रखा ताकि ‘भारत से मीठे रिश्ते बनाने की उनकी तमन्ना खटाई में न पड़े।’ (यह लेख 26 अप्रैल, 2015 (पांचजन्य आर्काइब) से से लिया गया है)
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