वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में रहकर पढ़ने वाले जनजातीय समाज के सैकड़ों युवा आज समाज जीवन के हर क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं। ये स्वयं कह रहे हैं कि यदि कल्याण आश्रम में नहीं जाते तो आज जहां हैं, वहां नहीं पहुंच पाते। इन युवाओं की कहानियां बहुत ही मार्मिक और प्रेरक हैं
आज देश में वनवासी कल्याण आश्रम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 62 साल पहले रोपा गया संगठन रूपी यह पौधा आज विशाल वट वृक्ष का रूप ले चुका है। इसमें हजारों लोग आश्रय पाकर अपने सपनों को साकार कर रहे हैं। सच में यह संगठन जो कर रहा है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्या आप सोच सकते हैं कि गरीबी के कारण बचपन में कोई छात्र पढ़ाई छोड़कर पिता के साथ सब्जी बेचने लगे और बाद में डॉक्टर बन जाए?
शायद आप ऐसी कल्पना नहीं कर सकते। पर वनवासी कल्याण आश्रम के कारण ऐसा हो रहा है। यह संगठन शरणार्थी, निर्धन और वनवासी समाज के हजारों युवाओं का ‘कल्याण’ कर रहा है। एक ऐसे ही युवा हैं डॉ. धनंजय रियांग। ये इन दिनों दिल्ली की रोहिणी में ईएसआई अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह पक्की बात है कि मैं कल्याण आश्रम से नहीं जुड़ता तो आज सब्जी बेचता या मजदूरी करके गुजारा करता।’’
उल्लेखनीय है कि डॉ. धनंजय उस रियांग समाज से हैं, जिसे सरकारी शह पर चर्च के लोगों ने मिजोरम से मारकर खदेड़ दिया था। यह समाज अभी भी त्रिपुरा, असम और मेघालय के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थियों का जीवन जी रहा है। इस समाज के लोग बरसों तक दो जून की रोटी तक के लिए तरसते रहे, तो भला अपने बच्चों को कहां से पढ़ा-लिखा पाते। ऐसे में वनवासी कल्याण आश्रम ने उनके बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा उठाया और आज ये बच्चे हर क्षेत्र में काम करके भारत की सेवा कर रहे हैं।
डॉ. धनंजय कहते हैं, ‘‘मैं बचपन में असम के एक सुदूर इलाके में रहता था। वहां दूर-दूर तक कोई विद्यालय नहीं था। उन्हीं दिनों हमारे गांव में एकल विद्यालय शुरू हुआ। वहीं से मैंने चौथी तक की पढ़ाई की। इसके बाद की पढ़ाई के लिए स्कूल जाना मेरे लिए संभव नहीं था, क्योंकि वह बहुत दूर था। इसलिए पढ़ाई छूट गई। इसके बाद पिताजी के साथ सब्जी बेचने लगा।’’
वे कहते हैं, ‘‘दो साल तक सब्जी बेचने का काम किया। इसके बाद वनवासी कल्याण आश्रम के एक कार्यकर्ता से भेंट हुई तो उन्होंने मेरे पिताजी से कहा कि पढ़ने के लिए इसको कानपुर ले जाओ। वहां कोई खर्च नहीं होगा। इस पर वे तैयार हो गए, लेकिन उनके पास किराए का भी पैसा नहीं था। किसी से उधार लेकर वे मुझे कानपुर छोड़ गए।’’ डॉ. रियांग कहते हैं, ‘‘वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास में रहकर 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद कानपुर मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के लिए मेरा चयन हो गया। वहीं से एमडी की भी पढ़ाई करने के बाद नौकरी करने लगा। जब तक नौकरी नहीं लगी तब तक कल्याण आश्रम ने हर तरह की मदद की।’’
कुछ ऐसी ही कहानी डॉ. दानीरूंग रियांग की भी है। वे भी एक शरणार्थी परिवार से हैं। इन दिनों वे गुवाहाटी में सेवा भारती द्वारा संचालित एक अस्पताल में योग एवं नेचुरोपैथी विभाग में चिकित्सक हैं। 1988 में मिजोरम के एक शरणार्थी शिविर में जन्मीं रियांग को यहां तक पहुंचाने का काम वनवासी कल्याण आश्रम ने किया है। 2000 में जब वे केवल 12 साल की थीं तभी वनवासी कल्याण आश्रम के रायपुर स्थित छात्रावास में लाई गई थीं। वहां कक्षा छठी से उनकी पढ़ाई शुरू हुई। वहां से 12वीं करने के बाद दुर्ग, पुणे और जर्मनी से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे आज देश की सेवा कर रही हैं। वे कहती हैं, ‘‘पढ़ाई के दौरान आश्रम के अधिकारियों ने कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन किया और जब भी किसी चीज की जरूरत पड़ी उसे उपलब्ध कराया। वनवासी कल्याण आश्रम ने सिखाया कि अपने देश और समाज से बढ़कर कुछ नहीं है। इसलिए जब तक जीना है, देश के लिए जीना है।’’
देश में आज वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा गढ़े गए ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। कभी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में रहकर पढ़ने वाले बहुत सारे लोग आज सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इनमें कई तो आज मंत्री, सांसद और विधायक तक हैं। इसके एक उदाहरण हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान में लोहरदगा से सांसद सुदर्शन भगत। वे स्वयं कहते हैं, ‘‘मैं जो कुछ हूं, कल्याण आश्रम के कारण हंू। आश्रम के संपर्क में आने के बाद ही यह समझ बढ़ी कि भारत क्या है, भारतीय संस्कृति क्या है और भारत के सर्वांगीण विकास के लिए हमारी क्या भूमिका हो सकती है। यह भी जाना कि धर्म और अध्यात्म क्या है। अध्यात्म के प्रति बढ़ी रुचि ने जीवन की राह आसान कर दी।’’
सुदर्शन झारखंड में गुमला जिले के रहने वाले हैं। प्रारंभिक पढ़ाई गांव में करने के बाद वे 1984 में पहली बार वनवासी कल्याण आश्रम के गुमला स्थित ‘वाल्मीकि छात्रावास’ में आए। वहां रहकर उन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई की। उन्हीं दिनों वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े। फिर बाद में भाजपा में गए। 2000 में पहली बार विधायक बनने से पहले कई साल तक उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ का वितरण भी किया है।
इन दिनों हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में पुलिस विभाग में एएसआई के पद पर कार्यरत विजय कुमार भी वनवासी कल्याण आश्रम की ही देन हैं। वे गांव करगानू, जिला सिरमौर के रहने वाले हैं। वे कहते हैं, ‘‘बात 1989 की है। मेरे गांव में संघ की शाखा लगती थी। मैं भी अपने घर वालों के साथ वहां जाता था। वहीं एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मेरे घर की आर्थिक स्थिति के बारे में जाना तो उन्होंने मुझे ‘हिमगिरि कल्याण छात्रावास’ जाने को कहा। वहां 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद ही जीवन में बदलाव आया।’’ 12वीं करने के बाद उन्होंने तीन साल तक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के नाते कार्य किया, साथ ही स्नातक की पढ़ाई भी की। स्नातक करते ही पुलिस विभाग में नौकरी लग गई।
वचनदेव कुजूर इन दिनों झारखंड में चतरा के समीप सिमरिया में सबडिवीजनल पुलिस आफिसर (एसडीपीओ) हैं। ये भी मानते हैं कि यहां तक का सफर पूरा करने में वनवासी कल्याण आश्रम की अहम भूमिका रही। वे 1997 में जब नौवीं कक्षा में थे तब गुमला में आश्रम के साथ जुड़े। वे कहते हैं, ‘‘आश्रम में नैतिक शिक्षा और जो संस्कार मिले, वे अभी भी काम आ रहे हैं। आज चारों ओर नैतिक पतन दिख रहा है। ऐसे समय में लगता है कि यदि मैं भी आश्रम के संपर्क में नहीं आता तो शायद उतना नैतिक बल मेरे पास नहीं होता जितना आज है।’’
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के चौबेपुर प्रखंड में पशुधन प्रसार पदाधिकारी के रूप में कार्यरत मनोज कुमार कहते हैं, ‘‘वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास तो देवस्थान हैं और वहां सेवा करने वाले देव से कम नहीं हैं। इन देवों के आशीर्वाद से ही मुझ जैसे गरीब और उपेक्षित युवा आज एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं।’’ मनोज कुमार बलरामपुर जिले के नवलगढ़ के रहने वाले हैं। गरीबी के कारण घर वाले इन्हें पढ़ाने में समर्थ नहीं थे। जब उन्हें पता चला कि कानपुर के ‘बिरसा मुंडा वनवासी छात्रावास’ में बच्चों को पढ़ाने का कोई पैसा नहीं लगता तो वे मनोज को 1992 में छात्रावास छोड़ गए। वहां उन्होंने कक्षा छठी से पढ़ाई शुरू की। वहीं रहकर उन्होेंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और आज सरकारी अधिकारी हैं।
वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में पढ़ने वाले कई युवा तो उच्च शिक्षा पाकर आश्रम का ही कार्य करने लगे हैं। जैसे मोहन भगत, डॉ. राजकिशोर हांसदा आदि। मोहन भगत तो इन दिनों वनवासी कल्याण आश्रम, असम के प्रांत संगठन मंत्री का दायित्व निभा रहे हैं। ये जब नौंवी कक्षा में पढ़ते थे तभी छत्तीसगढ़ में जशपुर के पास स्थित एक आश्रम से जुड़े। बाद में जशपुर आए और कल्याण आश्रम का काम करने के साथ-साथ पढ़ाई भी करने लगे। राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के बाद वे पूरी तरह कल्याण आश्रम के कार्य में लग गए। वे कहते हैं, ‘‘आश्रम में पढ़ाई करने के दौरान अधिकारी कहा करते थे कि समाज के सहयोग से हम लोग काम कर रहे हैं। इसलिए हमें समाज के लिए भी कार्य करना चाहिए। उनकी इन बातों का मुझ पर बड़ा प्रभाव हुआ और तय किया कि पढ़ाई पूरी करके एक साल के लिए आश्रम के लिए कार्य करना है, लेकिन यहां ऐसा रम गया कि आज 20वें साल में भी लग रहा है कि अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है।’’
ऐसे ही दूसरे कार्यकर्ता हैं डॉ. राजकिशोर हांसदा। वे इन दिनों ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के राष्टÑीय सह संयोजक हैं। वे 1983 में झारखंड में जामताड़ा जिले के विद्यासागर स्थित छात्रावास में पढ़ने के लिए आए थे। वहीं इनका संघ से संपर्क हुआ और पढ़ाई के बाद प्रचारक बन गए। 1992 तक प्रचारक के रूप में इन्होंने प्रत्यक्ष रूप से संघ का कार्य किया। 1993 में उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाया गया। डॉ. हांसदा संथाल समाज से पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो संघ के प्रचारक बने। वे कहते हैं, ‘‘छात्रावास में रहते हुए यह जाना कि समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से कुछ करना ही सच्ची देश-सेवा है। सेवा की यह भावना हर व्यक्ति में आ जाए तो भारत पूरी दुनिया को पछाड़कर आगे निकल सकता है।’’
डॉ. हांसदा इन दिनों झारखंड में ‘सरना धर्म कोड’ के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस ‘कोड’ की मांग के पीछे देश-विरोधी ताकतें हैं। इसका उद्देश्य है जनजाति समाज को हिंदू समाज से दूर करना। इसलिए इसका विरोध होना ही चाहिए।
चाहे डॉ. धनंजय रियांग हों, डॉ. राजकिशोर हांसदा, सुदर्शन भगत या इस तरह के अन्य कार्यकर्ता, इन सबके जीवन को संवारने का काम वनवासी कल्याण आश्रम के उन हजारों कार्यकर्ताओं ने किया है, जिन्होंने कभी अपने लिए किसी से कुछ नहीं मांगा। ये लोग नींव के पत्थर के रूप में दिन-रात कार्य कर रहे हैं। इसी नींव पर वह भवन टिका है, जिसकी छत के नीचे जनजाति समाज के युवा अपना सुनहरा भविष्य गढ़ रहे हैं। ल्लज देश में वनवासी कल्याण आश्रम किसी परिचय का मोहताज नहीं है।
62 साल पहले रोपा गया संगठन रूपी यह पौधा आज विशाल वट वृक्ष का रूप ले चुका है। इसमें हजारों लोग आश्रय पाकर अपने सपनों को साकार कर रहे हैं। सच में यह संगठन जो कर रहा है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्या आप सोच सकते हैं कि गरीबी के कारण बचपन में कोई छात्र पढ़ाई छोड़कर पिता के साथ सब्जी बेचने लगे और बाद में डॉक्टर बन जाए? शायद आप ऐसी कल्पना नहीं कर सकते। पर वनवासी कल्याण आश्रम के कारण ऐसा हो रहा है। यह संगठन शरणार्थी, निर्धन और वनवासी समाज के हजारों युवाओं का ‘कल्याण’ कर रहा है। एक ऐसे ही युवा हैं डॉ. धनंजय रियांग। ये इन दिनों दिल्ली की रोहिणी में ईएसआई अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह पक्की बात है कि मैं कल्याण आश्रम से नहीं जुड़ता तो आज सब्जी बेचता या मजदूरी करके गुजारा करता।’’
उल्लेखनीय है कि डॉ. धनंजय उस रियांग समाज से हैं, जिसे सरकारी शह पर चर्च के लोगों ने मिजोरम से मारकर खदेड़ दिया था। यह समाज अभी भी त्रिपुरा, असम और मेघालय के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थियों का जीवन जी रहा है। इस समाज के लोग बरसों तक दो जून की रोटी तक के लिए तरसते रहे, तो भला अपने बच्चों को कहां से पढ़ा-लिखा पाते। ऐसे में वनवासी कल्याण आश्रम ने उनके बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा उठाया और आज ये बच्चे हर क्षेत्र में काम करके भारत की सेवा कर रहे हैं। डॉ. धनंजय कहते हैं, ‘‘मैं बचपन में असम के एक सुदूर इलाके में रहता था। वहां दूर-दूर तक कोई विद्यालय नहीं था। उन्हीं दिनों हमारे गांव में एकल विद्यालय शुरू हुआ। वहीं से मैंने चौथी तक की पढ़ाई की। इसके बाद की पढ़ाई के लिए स्कूल जाना मेरे लिए संभव नहीं था, क्योंकि वह बहुत दूर था। इसलिए पढ़ाई छूट गई। इसके बाद पिताजी के साथ सब्जी बेचने लगा।’’ वे कहते हैं, ‘‘दो साल तक सब्जी बेचने का काम किया। इसके बाद वनवासी कल्याण आश्रम के एक कार्यकर्ता से भेंट हुई तो उन्होंने मेरे पिताजी से कहा कि पढ़ने के लिए इसको कानपुर ले जाओ। वहां कोई खर्च नहीं होगा। इस पर वे तैयार हो गए, लेकिन उनके पास किराए का भी पैसा नहीं था। किसी से उधार लेकर वे मुझे कानपुर छोड़ गए।’’ डॉ. रियांग कहते हैं, ‘‘वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास में रहकर 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद कानपुर मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के लिए मेरा चयन हो गया। वहीं से एमडी की भी पढ़ाई करने के बाद नौकरी करने लगा। जब तक नौकरी नहीं लगी तब तक कल्याण आश्रम ने हर तरह की मदद की।’’
कुछ ऐसी ही कहानी डॉ. दानीरूंग रियांग की भी है। वे भी एक शरणार्थी परिवार से हैं। इन दिनों वे गुवाहाटी में सेवा भारती द्वारा संचालित एक अस्पताल में योग एवं नेचुरोपैथी विभाग में चिकित्सक हैं। 1988 में मिजोरम के एक शरणार्थी शिविर में जन्मीं रियांग को यहां तक पहुंचाने का काम वनवासी कल्याण आश्रम ने किया है। 2000 में जब वे केवल 12 साल की थीं तभी वनवासी कल्याण आश्रम के रायपुर स्थित छात्रावास में लाई गई थीं। वहां कक्षा छठी से उनकी पढ़ाई शुरू हुई। वहां से 12वीं करने के बाद दुर्ग, पुणे और जर्मनी से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे आज देश की सेवा कर रही हैं। वे कहती हैं, ‘‘पढ़ाई के दौरान आश्रम के अधिकारियों ने कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन किया और जब भी किसी चीज की जरूरत पड़ी उसे उपलब्ध कराया। वनवासी कल्याण आश्रम ने सिखाया कि अपने देश और समाज से बढ़कर कुछ नहीं है। इसलिए जब तक जीना है, देश के लिए जीना है।’’
देश में आज वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा गढ़े गए ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। कभी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में रहकर पढ़ने वाले बहुत सारे लोग आज सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इनमें कई तो आज मंत्री, सांसद और विधायक तक हैं। इसके एक उदाहरण हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान में लोहरदगा से सांसद सुदर्शन भगत। वे स्वयं कहते हैं, ‘‘मैं जो कुछ हूं, कल्याण आश्रम के कारण हंू। आश्रम के संपर्क में आने के बाद ही यह समझ बढ़ी कि भारत क्या है, भारतीय संस्कृति क्या है और भारत के सर्वांगीण विकास के लिए हमारी क्या भूमिका हो सकती है। यह भी जाना कि धर्म और अध्यात्म क्या है। अध्यात्म के प्रति बढ़ी रुचि ने जीवन की राह आसान कर दी।’’
सुदर्शन झारखंड में गुमला जिले के रहने वाले हैं। प्रारंभिक पढ़ाई गांव में करने के बाद वे 1984 में पहली बार वनवासी कल्याण आश्रम के गुमला स्थित ‘वाल्मीकि छात्रावास’ में आए। वहां रहकर उन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई की। उन्हीं दिनों वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े। फिर बाद में भाजपा में गए। 2000 में पहली बार विधायक बनने से पहले कई साल तक उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ का वितरण भी किया है।
इन दिनों हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में पुलिस विभाग में एएसआई के पद पर कार्यरत विजय कुमार भी वनवासी कल्याण आश्रम की ही देन हैं। वे गांव करगानू, जिला सिरमौर के रहने वाले हैं। वे कहते हैं, ‘‘बात 1989 की है। मेरे गांव में संघ की शाखा लगती थी। मैं भी अपने घर वालों के साथ वहां जाता था। वहीं एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मेरे घर की आर्थिक स्थिति के बारे में जाना तो उन्होंने मुझे ‘हिमगिरि कल्याण छात्रावास’ जाने को कहा। वहां 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद ही जीवन में बदलाव आया।’’
12वीं करने के बाद उन्होंने तीन साल तक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के नाते कार्य किया, साथ ही स्नातक की पढ़ाई भी की। स्नातक करते ही पुलिस विभाग में नौकरी लग गई।
वचनदेव कुजूर इन दिनों झारखंड में चतरा के समीप सिमरिया में सबडिवीजनल पुलिस आफिसर (एसडीपीओ) हैं। ये भी मानते हैं कि यहां तक का सफर पूरा करने में वनवासी कल्याण आश्रम की अहम भूमिका रही। वे 1997 में जब नौवीं कक्षा में थे तब गुमला में आश्रम के साथ जुड़े। वे कहते हैं, ‘‘आश्रम में नैतिक शिक्षा और जो संस्कार मिले, वे अभी भी काम आ रहे हैं। आज चारों ओर नैतिक पतन दिख रहा है। ऐसे समय में लगता है कि यदि मैं भी आश्रम के संपर्क में नहीं आता तो शायद उतना नैतिक बल मेरे पास नहीं होता जितना आज है।’’
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के चौबेपुर प्रखंड में पशुधन प्रसार पदाधिकारी के रूप में कार्यरत मनोज कुमार कहते हैं, ‘‘वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास तो देवस्थान हैं और वहां सेवा करने वाले देव से कम नहीं हैं। इन देवों के आशीर्वाद से ही मुझ जैसे गरीब और उपेक्षित युवा आज एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं।’’ मनोज कुमार बलरामपुर जिले के नवलगढ़ के रहने वाले हैं। गरीबी के कारण घर वाले इन्हें पढ़ाने में समर्थ नहीं थे। जब उन्हें पता चला कि कानपुर के ‘बिरसा मुंडा वनवासी छात्रावास’ में बच्चों को पढ़ाने का कोई पैसा नहीं लगता तो वे मनोज को 1992 में छात्रावास छोड़ गए। वहां उन्होंने कक्षा छठी से पढ़ाई शुरू की। वहीं रहकर उन्होेंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और आज सरकारी अधिकारी हैं।
पहले दानदाता
वनवासी कल्याण आश्रम पूरी तरह समाज के सहयोग से काम करता है। इसके पहले दानदाता थे राजा विजय भूषण सिंह जूदेव। इसके बाद कार्यकर्ताओं ने समाज से संपर्क कर दान लेना शुरू किया। उसी दान से कल्याण आश्रम मुख्य रूप से शिक्षा, स्वावलंबन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करता है। देश में जहां भी जनजातीय समाज है, वहां आश्रम का काम है।
ऐसे हुई स्थापना
वनवासी कल्याण आश्रम के संस्थापक हैं वनयोगी रमाकांत केशव देशपांडे उपाख्य बाला साहब। वे संघ के स्वयंसेवक थे। श्रीगुरुजी की प्रेरणा से वे जनजातियों के बीच कार्य करने के लिए सपत्नीक नागपुर से जशपुर चले आए। उस समय उनकी उम्र केवल 35 साल थी और वे नागपुर में अच्छी-खासी वकालत कर रहे थे। सबसे बड़ी समस्या थी राष्ट्रीय विचारों की, शिक्षा की। उन्होंने थोड़ा-बहुत पढ़े ग्रामीणों को ही शिक्षक बनाया और उन्हें बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी। बाला साहब ने एक वर्ष के अंदर ही जशपुर के आस-पास 108 विद्यालय शुरू करवा दिए। इससे ग्रामीणों में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी और वे उनकी बात मानने लगे। उन्होंने वनवासी बच्चों के लिए 26 दिसंबर, 1952 को छात्रावास की शुरुआत की। इसी दिन को वनवासी कल्याण आश्रम के स्थापना दिवस के रूप में भी जाना जाता है।
52,000 गांवों तक पहुंच
अभी वनवासी कल्याण आश्रम में 1,200 पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। इनमें से 300 महिलाएं हैं। सबसे बड़ी बात है कि इन कार्यकर्ताओं में 70 प्रतिशत जनजातीय समाज से ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। देश के 323 जिलों में कल्याण आश्रम का कार्य है। पूरे देश में लगभग 20,000 प्रकल्प हैं। लगभग 14,000 गांवों में समितियां हैं। कल्याण आश्रम की पहुंच लगभग 52,000 गांवों तक है। नगरों में भी वनवासी कल्याण आश्रम की समितियां हैं, जिनका कार्य है प्रकल्पों के लिए धन संग्रह करना।
वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में पढ़ने वाले कई युवा तो उच्च शिक्षा पाकर आश्रम का ही कार्य करने लगे हैं। जैसे मोहन भगत, डॉ. राजकिशोर हांसदा आदि। मोहन भगत तो इन दिनों वनवासी कल्याण आश्रम, असम के प्रांत संगठन मंत्री का दायित्व निभा रहे हैं। ये जब नौंवी कक्षा में पढ़ते थे तभी छत्तीसगढ़ में जशपुर के पास स्थित एक आश्रम से जुड़े। बाद में जशपुर आए और कल्याण आश्रम का काम करने के साथ-साथ पढ़ाई भी करने लगे। राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के बाद वे पूरी तरह कल्याण आश्रम के कार्य में लग गए। वे कहते हैं, ‘‘आश्रम में पढ़ाई करने के दौरान अधिकारी कहा करते थे कि समाज के सहयोग से हम लोग काम कर रहे हैं। इसलिए हमें समाज के लिए भी कार्य करना चाहिए। उनकी इन बातों का मुझ पर बड़ा प्रभाव हुआ और तय किया कि पढ़ाई पूरी करके एक साल के लिए आश्रम के लिए कार्य करना है, लेकिन यहां ऐसा रम गया कि आज 20वें साल में भी लग रहा है कि अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है।’’
ऐसे ही दूसरे कार्यकर्ता हैं डॉ. राजकिशोर हांसदा। वे इन दिनों ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के राष्टÑीय सह संयोजक हैं। वे 1983 में झारखंड में जामताड़ा जिले के विद्यासागर स्थित छात्रावास में पढ़ने के लिए आए थे। वहीं इनका संघ से संपर्क हुआ और पढ़ाई के बाद प्रचारक बन गए। 1992 तक प्रचारक के रूप में इन्होंने प्रत्यक्ष रूप से संघ का कार्य किया। 1993 में उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाया गया। डॉ. हांसदा संथाल समाज से पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो संघ के प्रचारक बने। वे कहते हैं, ‘‘छात्रावास में रहते हुए यह जाना कि समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से कुछ करना ही सच्ची देश-सेवा है। सेवा की यह भावना हर व्यक्ति में आ जाए तो भारत पूरी दुनिया को पछाड़कर आगे निकल सकता है।’’
डॉ. हांसदा इन दिनों झारखंड में ‘सरना धर्म कोड’ के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस ‘कोड’ की मांग के पीछे देश-विरोधी ताकतें हैं। इसका उद्देश्य है जनजाति समाज को हिंदू समाज से दूर करना। इसलिए इसका विरोध होना ही चाहिए।
चाहे डॉ. धनंजय रियांग हों, डॉ. राजकिशोर हांसदा, सुदर्शन भगत या इस तरह के अन्य कार्यकर्ता, इन सबके जीवन को संवारने का काम वनवासी कल्याण आश्रम के उन हजारों कार्यकर्ताओं ने किया है, जिन्होंने कभी अपने लिए किसी से कुछ नहीं मांगा। ये लोग नींव के पत्थर के रूप में दिन-रात कार्य कर रहे हैं। इसी नींव पर वह भवन टिका है, जिसकी छत के नीचे जनजाति समाज के युवा अपना सुनहरा भविष्य गढ़ रहे हैं।
27 Dec. 2020
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