जाफराबाद (मुस्लिम-बहुल इलाका) मेट्रो स्टेशन से बाहर निकले तो चारों ओर नमाजी और पुलिसकर्मी ही दिख रहे थे। माहौल अजीब-सा…उजाड़। सड़क पर बहुत कम गाड़ियां चल रही थीं। सो मौजपुर की तरफ पैदल चलना पड़ा। मौजपुर चौराहे पर एक आटो वाला मिला तो उसने घोंडा चौक छोड़ दिया।
वह जुम्मे का दिन (28 फरवरी) था। दोपहर के करीब दो बज रहे थे। जाफराबाद (मुस्लिम-बहुल इलाका) मेट्रो स्टेशन से बाहर निकले तो चारों ओर नमाजी और पुलिसकर्मी ही दिख रहे थे। माहौल अजीब-सा…उजाड़। सड़क पर बहुत कम गाड़ियां चल रही थीं। सो मौजपुर की तरफ पैदल चलना पड़ा। मौजपुर चौराहे पर एक आटो वाला मिला तो उसने घोंडा चौक छोड़ दिया। वहां से जाफराबाद और ब्रह्मपुरी (हिन्दू-बहुल) को दो हिस्सों में बांटने वाली सड़क पर पैदल ही चले। सड़क के दोनों किनारे हथियारबंद सुरक्षाकर्मी तैनात थे। इसके बावजूद लोग किसी अनजान व्यक्ति से बातचीत करने को तैयार नहीं थे। ब्रह्मपुरी की गली नंबर एक के मुहाने पर कुछ लोग खड़े थे। अपना परिचय देते हुए उनसे कुछ पूछने की कोशिश की तो वे पहले एक-दूसरे को देखने लगे। फिर सभी एक साथ बोले, ‘‘मीडिया निष्पक्षता से काम नहीं कर रहा। जिन लोगों ने एक साजिश के तहत हमारे घरों को जलाया, हमारे लोगों की बर्बरता से हत्या की, उन्हें ही ‘पीड़ित’ बताया जा रहा है और हमें दंगाई।’’ उनका इशारा उन सेकुलर चैनलों और अखबारों की ओर था, जो दिन-रात झूठी खबरों को मिर्च-मसाला लगाकर परोस रहे हैं। खैर, पाञ्चजन्य का नाम सुनकर वे लोग बात करने को तैयार हुए। वे लोग हमें गली नंबर एक के मुहाने पर स्थित उस घर के पास ले गए, जिसको दंगाइयों ने 24 फरवरी की रात को जला दिया था। दो मंजिल का वह मकान (नं. 368) ऊपर से नीचे तक काला हो गया था। गेट बंद था।
आवाज लगाने पर एक बुजुर्ग सहमे कदमों से गेट के पास आए। वे उन लोगों को पहचानते थे इसलिए उन्होंने गेट खोल दिया। अन्दर का मंजर बहुत ही भयावह था। राख ही राख और जलने की बदबू। बात शुरू हुई तो उन्होंने खुद ही अपना नाम बताया-सुशील कुमार शर्मा। फिर बोले, ‘‘सब कुछ खत्म हो गया। सपने में भी नहीं सोचा था कि उम्र के इस पड़ाव में ऐसी मुसीबत का सामना करना पड़ेगा। अब इतनी क्षमता नहीं है कि इस मकान को दुबारा से बना पाऊं।’’ फिर वे कहते हैं, ‘‘भगवान की बड़ी मेहरबानी रही कि मकान जल गया, लेकिन परिवार बच गया।’’ यह सब कैसे हुआ? बोले, पूरी बात जानने के लिए पहले छत पर चलो। दीवार और सीढ़ियां काली पड़ी थीं।
राख और कालिख से बचते-बचते छत पर पहुंचे। छत से सामने के एक ऊंचे मकान (जिसका मालिक मुसलमान है) की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘‘उसी मकान से 24 फरवरी की रात के करीब 12 बजे गोलीबारी शुरू हुई। बच्चे सो रहे थे और हम बड़े जगे हुए थे। सभी बुरी तरह डर गए, लेकिन घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पुलिस को फोन किया, पर किसी ने फोन तक नहीं उठाया। पीछे रहने वाले कुछ पड़ोसियों को फोन किया तो वे मदद के लिए निकले लेकिन गोलीबारी इतनी ज्यादा थी कि कोई घर के सामने नहीं आ पा रहा था। इसी बीच अनेक पेट्रोल बम फेंके गए। पार्किंग में खड़ीं गाड़ियां धू-धू कर जलने लगीं। पूरे घर में धुआं भर गया। घर के अन्दर धुआं फैल रहा था और बाहर पत्थर और गोलियां बरसाई जा रही थीं। लगने लगा कि हम 15 में से अब कोई नहीं बचेगा। हिम्मत करके हम लोग छत पर पहुंचे और दीवार की आड़ में दुबके रहे। बच्चे और महिलाएं रो रही थीं और हम बड़े बचने का तरीका सोच रहे थे। तभी पीछे के पड़ोसी ने छत पर एक सीढ़ी फेंकी। उसी के सहारे हम लोग लगभग 12 फीट ऊंची दीवार पर चढ़े और दूसरी तरफ लोगों की मदद से उतर गए। बच-बचाकर एक रिश्तेदार के यहां चले गए। पुलिस आई तो 25 फरवरी की सुबह घर देखने की हिम्मत हुई। यहां पहुंचे तो देखा कि कुछ भी नहीं बचा है। इस मकान में हम लोग 50 साल से रह रहे थे। अब मकान रहने लायक भी नहीं रहा। आग की गर्मी से घर की छत भी खराब हो गई। इसे तोड़ कर दुबारा बनाना होगा, लेकिन उतने पैसे कहां से आएंगे?’’
मदद में जुटी सेवा भारती
इन दिनों दंगा पीड़ितों की मदद के लिए सेवा भारती, दिल्ली के कार्यकर्ता दिन-रात काम कर रहे हैं। ये कार्यकर्ता दंगा पीड़ितों के बीच खाने-पीने की वस्तुएं और कुछ आर्थिक मदद भी दे रहे हैं। इस समाचार के लिखे जाने तक 51 परिवारों को मदद दी जा चुकी है। उल्लेखनीय है कि दंगा पीड़ितों में अधिकतर लोग गरीब हैं। इनके घर जल जाने से कुछ भी नहीं बचा। यहां तक कि खाने के लिए अन्न और पहनने के लिए कपड़े भी नहीं बचे हैं। इसलिए सेवा भारती इन लोगों की मदद कर रही है।
सतीश ने एक बहुत ही चौंकाने वाली बात बताई। उन्होंने अपने मकान के नीचे की एक दुकान आस मोहम्मद नामक एक व्यक्ति को किराए पर दे रखी है। दंगाइयों ने उस दुकान को छुआ तक नहीं। वे कहते हैं,‘‘इसका मतलब है कि दंगाइयों में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो जानते थे कि यह दुकान किसके पास है। इससे यही साबित होता है कि दंगाइयों ने साजिश के तहत हिन्दुओं को नुकसान पहुंचाया।’’ सतीश किराए के पैसे से ही अपना गुजर-बसर करते थे। अब जब उनका मकान रहने लायक ही नहीं रहा तो उन्हें इस बात की चिन्ता सता रही है कि उनकी जिन्दगी की गाड़ी कैसे चलेगी?
ऐसी चिन्ता केवल सतीश की ही नहीं है। ब्रह्मपुरी में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है। हर किसी की अपनी-अपनी समस्याएं हैं। ब्रह्मपुरी की ही गली नंबर 8 में रहने वाले अतुल गुप्ता इन दिनों बिस्तर पर हैं। दंगाइयों ने उन्हें गोली मार दी थी। गुप्ता बताते हैं, ‘‘मैं रोजाना की तरह 25 फरवरी की सुबह घूमने के लिए पार्क जा रहा था। घर से कुछ ही दूर शिव मन्दिर के पास पहुंचा था कि सामने जाफराबाद की तरफ से दंगाइयों ने गोली चलाई। एक गोली मेरे पेट में लगी। वहीं गिर पड़ा। गोलीबारी के बीच ही कुछ लोगों ने मुझे बमुश्किल से निकाला। पहले जगप्रवेश अस्पताल में भर्ती कराया गया। स्थिति ज्यादा बिगड़ने पर डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल भेजा गया। वहां कई घंटे तक आपरेशन करने के बाद डॉक्टरों ने मेरी जान बचाई।’’अब उन्हें अस्पताल से छुट्टी तो मिल गई है, पर वे चल-फिर नहीं सकते। वे कहते हैं, ‘‘अभी तक किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली है। इलाज का खर्च खुद ही उठाना पड़ रहा है।’’
गुप्ता कुछ साल से ह्दय रोग से पीड़ित हैं। इस कारण वे कोई काम नहीं कर पाते। वे कहते हैं, ‘‘ह्दय का आॅपरेशन होने के बाद सोच रहा था कि जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा और कोई काम करूंगा, लेकिन दंगाइयों के कारण मैं एक बार फिर बिस्तर पर पड़ा हूं। दंगाइयों ने मेरे सारे सपने तोड़ दिए।’’ गुप्ता के दो छोटे-छोटे बच्चे और वृद्ध माता-पिता हैं। वे कहते हैं, ‘‘पूरे परिवार का भार मुझ पर है, लेकिन मेरा नसीब कैसा है, आप देख ही रहे हैं। दंगाइयों ने ऐसा घाव दिया है कि शायद मैं अपनी जिंदगी खुलकर जी नहीं सकता।’’
अतुल गुप्ता तो घर आ गए हैं, भले ही वे बिस्तर पर हैं, लेकिन नरेश सैनी के साथ ऐसा नहीं हुआ। वे आठ दिन तक गुरु तेग बहादुर अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूलते रहे और अंतत: इस जंग में हार गए। 4 मार्च को उनकी मृत्यु हो गई। वे भी ब्रह्मपुरी के ही रहने वाले थे। 25 फरवरी को उन्हें दंगाइयों ने गोली मार दी थी। उनके पेट में गोली लगी थी। उनके घर पहुंचा तो उनकी पत्नी मिलीं। वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थीं। उन्होंने वहीं खड़े एक पड़ोसी दिनेश को कुछ बताने के लिए इशारा किया। दिनेश ने बताया, ‘‘नरेश कहीं से आ रहे थे, तभी दंगाइयों ने उन्हें गोली मार दी। वे सब्जी बेचकर अपने दो बच्चों, पत्नी और वृद्घ पिता का पालन करते थे। अब उनके नहीं रहने से इस परिवार का गुजारा कैसे होगा! उनके बच्चों का क्या होगा!’’
उनके इस सवाल का उत्तर शायद किसी के पास नहीं है। लेकिन यह ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर ढंूढना ही होगा। दंगाइयों ने इस परिवार को ऐसा दु:ख दिया है कि इसका हर सदस्य अपने जीवन में इस दु:ख को कभी भूल नहीं सकता। लेकिन मुहल्ले वाले उस परिवार के साथ डटकर खड़े हैं। जब नरेश अस्पताल में भर्ती थे तब मुहल्ले के अनेक लोग उन्हें खून देने के लिए गए। अब जब वे इस दुनिया को छोड़कर चले गए तब भी मुहल्ले के लोग उनके परिवार की देखभाल कर रहे हैं। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही यह परिवार अपने दु:खों से उबर जाएगा और उनकी जिन्दगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी।
इन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में अभी भी कुछ ऐसे मुहल्ले हैं, जहां तनाव पसरा है। एक ऐसा ही मोहल्ला है ब्रजपुरी। यहां के निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता नितेश कुमार ने बताया कि मुहल्ले के लोग अभी भी रात में अलाव जलाकर रातभर पहरा देते हैं। कुमार बताते हैं, ‘‘ब्रजपुरी के लोग सात दिन तक डर के माहौल में रहे। 24 फरवरी को लगभग 20,000 दंगाइयों ने ब्रजपुरी पर हमला किया था। मोहल्ले के करीब 150 युवाओं ने कई घंटे इनका सामना किया। इनमें से दो की मृत्यु हो गई। इतने दंगाइयों को रोकना आसान नहीं था, लेकिन पता नहीं, मोहल्ले वालों को कहां से शक्ति मिली और वे उनसे तब तक लड़ते रहे जब तक कि सुरक्षाकर्मी नहीं आ गए। यदि और कुछ देर तक सुरक्षाकर्मी नहीं आते तो उस दिन ब्रजपुरी के शायद सभी लोग मारे जाते।’’ वे यह भी कहते हैं, ‘‘दंगे के दौरान जिस तरह की पत्थरबाजी हुई, वह कश्मीर घाटी जैसी थी। हम लोग दिल्ली में कश्मीर घाटी जैसी पत्थरबाजी देखकर दंग रह गए। ऐसा लग रहा है कि दंगाई बहुत पहले से तैयारी कर रहे थे।’’
दंगाग्रस्त क्षेत्रों के लोग उन दिनों किन परिस्थितियों में रहे, इसका अंदाजा ब्रह्मपुरी में रहने वालीं अंजू पांडेय की बातों से लगाया जा सकता है। वे कहती हैं, ‘‘23 फरवरी की सुबह कुछ बदली-बदली सी थी। हालात सामान्य नहीं लग रहे थे। पर शाम इतनी भयानक होगी, इसका अनुमान किसी को नहीं था। जैसे-जैसे रात गहरी होने लगी, लोगों की बेचैनी बढ़ने लगी। 24 फरवरी की सुबह पता चला कि लोगों की वह बेचैनी बेवजह नहीं थी। हंसती-खिलखिलाती जिन्दगियां चीखों में बदलने लगीं। दंगाइयों ने ऐसा कहर बरपाया कि लोगों के आशियाने उजड़ गए, काम-धाम चौपट हो गया। बाहर हाहाकार मचा था और हम लोग घर के अन्दर बंद थे। बाहर झांकने की हिम्मत नहीं हो रही थी इस आशंका में कि न जाने किधर से मौत आ जाए। रात बहुत मुश्किल से गुजरी। 25 फरवरी का दिन भी दहशत में ही बीता। 26 फरवरी को माहौल कुछ सामान्य-सा लगने लगा। सुबह देखा, पूरा मुहल्ला छावनी में तब्दील हो गया है। अब लगा कि जान बच जाएगी। 27 फरवरी को यह आवाज सुनाई दी कि हालात सामान्य हो चुके हैं, अब आप लोग अपने काम-धाम के लिए बाहर निकल सकते हैं। ये चार दिन चार दशक के समान लग रहे थे। ऐसी विकट स्थिति जीवन में पहली बार आई थी। ऐसा कुसमय किसी के सामने न आए।’’
इन लोगों की बातों का निष्कर्ष यही है कि दंगाइयों ने तय कर लिया था कि चाहे जैसे भी हो, हिन्दुओं का ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना है। कुछ लोगों ने यह भी बताया कि यह हिन्दुओं को इलाके से खदेड़ने की साजिश भी है। इसलिए दंगाइयों को ऐसी सजा मिले कि लोग उसकी मिसाल दें।
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