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मनुस्मृति पर आएदिन विवाद खड़ा करने वाले ह्यबुद्धिवादीह्ण उसमें समाहित अनमोल शिक्षा ओं को दुराग्रहपूर्वक देखकर समाज को दिग्भ्रमित कर रहे हैं, सनातन व्यवस्था के सूत्रों को तोड़ रहे हैं
शंकर शरण
भारत में गौरवपूर्ण सूक्तियों का स्रोत मनुस्मृति महान ग्रंथ है। जैसे- धर्मो रक्षति रक्षित:। लोग इसे संक्षिप्त रूप में जानते हैं, जबकि पूरा श्लोक ज्यादा गंभीर अर्थ रखता है व कालजयी साबित हुआ है। पूरा श्लोक है: ह्यधर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीतह्ण। अर्थात् मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है। अत: धर्म का हनन कभी न करो, ताकि मारा हुआ धर्म हमें न मार डाले। सिर्फ यही श्लोक नहीं, मनुस्मृति के आठवें अध्याय के सभी श्लोक इसी बिंदु पर हैं, जिन्हें पढ़कर कोई भी देख सकता है कि उनमें से किसी की मूल्यवत्ता आज भी कम नहीं हुई है। उन्हें बेकार मानना तो दूर रहा।
मनुस्मृति की एक अन्य प्रसिद्ध उक्ति है, ह्ययत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।ह्ण इस विषय पर भी पूरी श्लोक-शृंखला जिस उदात्त दर्शन की झलक देती है, वह पश्चिमी चिंतन में नहीं मिलेगी। आज के किसी भी फेमिनिस्ट लेखन-दर्शन में जो बातें आती हैं, उससे बढ़कर मनुस्मृति में नारियों के संबंध में चिंता और व्यवस्था दी गई है। जैसे- इसी उक्ति से संबंधित पूरा श्लोक पढ़कर देखें, जिसे कम ही लोग याद करते हैं। इसकी अगली पंक्ति है, ह्ययत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:ह्ण, अर्थात् जहां उनका आदर नहीं होता, वहां कार्य सफल नहीं होते। स्त्रियों को नीचा समझने या उनका निरादर करने के विरुद्ध क्या इससे बढ़कर कोई चेतावनी या भर्त्सना हो सकती है? मनुस्मृति ऐसी अनमोल शिक्षाओं से भरी पड़ी है। पर स्वतंत्र भारत का दुर्भाग्य है कि इसे पढ़ने-गुनने के बदले केवल और केवल इसकी भर्त्सना की जाती है! कितना दु:खद है कि 1947 के बाद पहले तो हमने अपने महान शास्त्रों को शिक्षा से ही बाहर कर दिया। फिर उस पर विदेशियों, कम्युनिस्टों या राजनीतिक एक्टिविस्टों की नासमझ निंदा से प्रभावित हो उसे त्याज्य बना लिया। यहां तक कि कुछ लोगों द्वारा मनुस्मृति जलाने का मूर्खतापूर्ण अनुष्ठान चलता है। ऐसा करने के बदले या पहले कभी उस पर गंभीर आलोचनात्मक विचार-विमर्श क्यों नहीं हुआ? वस्तुत: इस महान ग्रंथ को जलाने वाले तथा उसे जलता देखने वाले, दोनों तरह के भारतीय अज्ञानी और असावधान हैं। वे शत्रुओं के हाथों खेल रहे हैं। जितने भी आलोचकों, निंदकों से पूछें कि क्या उन्होंने मनुस्मृति पढ़ी है और उसमें कोई गंदी, उत्तेजक या अनुचित बात पाई है? दूसरों द्वारा बताया गया ऐसा कोई अनुपयुक्त श्लोक या संदर्भ उन्हें याद है, जिससे वे पुस्तक को निंदनीय समझें? लगभग सभी उत्तर ना में देंगे। मगर कहेंगे, ह्यसुना है उसमें शूद्रों या स्त्रियों के बारे में कुछ आपत्तिजनक है।ह्ण सचाई यह है कि यदि शीर्षक हटाकर मनुस्मृति को किसी भी शिक्षित, विचारवान समूह को पढ़ने दिया जाए, तो अधिकांश उसे महान ग्रंथ मानेंगे। मनुस्मृति में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। न वह कभी किसी राजा का ह्यकानूनह्ण था, जो प्राय: मान लिया जाता है। भारतीय मनीषा में वह उसी प्रकार ज्ञान, धर्म, विचार और चिंतन का एक समादृत ग्रंथ रही है, जैसे- वेद, उपनिषद्, महाभारत आदि दर्जनों और ग्रंथ रहे हैं। उसकी बातें कभी, किसी पर बाध्यकारी न थीं। लोग उनकी उपयोगिता से उनका आदर करते रहे, पढ़ते-पढ़ाते रहे। आज भी वही स्थिति है।
मान भी लिया जाए कि मनुस्मृति में कोई अनुपयुक्त बात है, तब भी उसकी समालोचना पर्याप्त होती। आखिर वह कम से कम चार हजार वर्ष पुरानी पुस्तक है! उस काल में इतना गहन चिंतन पूरे विश्व में कहां था? यूरोप, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया तब सभ्य समाज भी नहीं बने थे जब हमारे यहां ऐसे शास्त्र रचे गए, जिनकी बातें आज भी चमत्कृत करती हैं। वैसे भी, आज के नजरिए से किसी पुरानी पुस्तक में कोई नापसंद बात मिलने पर भी उसे अपमानित करना हर हाल में गलत है। इसीलिए ह्यओल्ड टेस्टामेंटह्ण या ह्यकुरानह्ण जैसे प्राचीन ग्रंथों को सम्मान दिया जाता है, जबकि उसमें नास्तिक, पगान या दूसरे पंथानुयायियों के लिए अत्यंत अपमानजनक बातें लिखी मिलती हैं। उस दृष्टि से आज दुनिया में कम से कम चार अरब लोग नास्तिक, पगान, काफिर आदि हैं। तो क्या इन नास्तिकों, पगानों, काफिरों को उन पुस्तकों को जलाने का अधिकार है? हर संजीदा व्यक्ति कहेगा- बिल्कुल नहीं। वही संजीदगी मनुस्मृति के लिए क्यों नहीं दिखाई जाती, जिसमें किसी के लिए वैसा कुछ लिखा भी नहीं है। मनुस्मृति के 12 अध्यायों में 1214 श्लोक हैं। इनमें सृष्टि, दर्शन, धर्म-चिंतन, सामान्य जीवन के विधि-विधान, गृहस्थ-जीवन के नियम, स्त्री, विवाह, राज्य-राजा संबंधी परामर्श, वैश्य-शूद्र संबंधी कर्तव्य, प्रायश्चित, कर्मफल विधान, मोक्ष और परमात्मा से जुड़ा चिंतन है। कुछ प्रकाशनों में मनुस्मृति में इसके दुगने से भी अधिक श्लोक मिलते हैं, किन्तु इनमें कई को बाहर से जोड़ा माना गया है, यानी जो मूल श्लोकों से टकराते हैं। आधिकारिक विद्वानों के अनुसार अनेक प्रकाशनों में आधे से अधिक श्लोक मूल मनुस्मृति के नहीं हैं।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद की तमाम शिक्षाओं, सेवा व जीवन-कर्म का आधार वेद, उपनिषद् और मनुस्मृति हैं। अर्थात् संपूर्ण भारतीय समाज की जो सेवा इन महापुरुषों ने की, जिसके लिए देश उन्हें कृतज्ञता से नित्य स्मरण करता है, उसकी प्रेरणा उन्हें वेदांत व मनुस्मृति से ही मिली। स्वामी दयानंद का ह्यसत्यार्थ प्रकाशह्ण मनुस्मृति के उदाहरणों से भरा पड़ा है। तो स्वामी दयानंद व विवेकानंद ने मनुस्मृति को अधिक समझा था या आज के नासमझ सेकुलरवादी, जो समाज को तोड़ने, लड़ाने के लिए (बिना पढ़े!) मनुस्मृति पर नियमित कालिख पोतते रहते हैं? दयानंद सरस्वती ने मनुस्मृति को अपने उपदेश व समाज-सुधार का आधार बनाया था। यदि मनुस्मृति जातिवादी, शूद्र-विरोधी या स्त्री-विरोधी होती, तो वे पूरे भारत में इतना बड़ा आधुनिक, समतामूलक, प्रभावशाली सुधार व चेतना का अखिल भारतीय गौरवशाली आंदोलन चलाने में कैसे सफल होते? याद रहे, उनके कार्य को ही आधुनिक भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का बुनियादी आधार माना जाता है। उनकी संस्था आर्य समाज ने जितनी बड़ी संख्या में नि:स्वार्थ स्वतंत्रता सेनानी दिए, उतने कांग्रेस ने भी नहीं दिए। अमर बलिदानी भगत सिंह का परिवार आर्य समाजी था। प्रामाणिक इतिहास को भुलाकर केवल विदेशी मिशनरियों के दुष्प्रचार से प्रभावित होकर लोगों ने भ्रमवश या जान-बूझकर मनुस्मृति को निशाना बना रखा है। यहां तक कि ह्यमनुवादह्ण नामक एक गाली तक गढ़ ली! वे कभी नहीं सोचते कि मनुवाद कोई वाद है या कभी था? उदाहरण के लिए, क्या किसी हिन्दू राजा ने मनुस्मृति को अपने शासन का आधार बनाया था? तब मनुस्मृति को ह्यहिन्दू कानूनह्ण क्यों कहा जाता है? निस्संदेह, मनुस्मृति की निंदा करने वाले शायद ही उसे पढ़ने, उसकी व्याख्याएं या अन्य जानकारी पाने, सोच-विचार करने की कोशिश करते हैं। यदि वे ऐसा करें तो उसके प्रति नकारात्मक धारणा बदल जाएगी। केवल राज्य-शासन संबंधी उसके तीन अध्यायों के 574 श्लोक गंभीर ज्ञान-भंडार हैं। उनमें अधिकांश आज भी मूल्यवान हैं।
मनुस्मृति की अधिकांश निंदा मनमानी कल्पनाओं, सुनी-सुनाई और गढ़े गए तर्कों पर चलती है। स्वतंत्र भारत की यह दुर्दशा अंग्रेजों, मुगलों के शासन में भी नहीं थी। हिन्दू ग्रंथों की निंदा करने वाले उसे शायद ही पढ़ते हैं। पर किसी वाक्य या शब्द को पुस्तक के संदर्भ से अलग कर और बिना अर्थ समझे, निंदा करना नासमझी या धूर्तता ही है। फिर उससे जुड़ी किसी खास बात को निंदा हेतु चुन लिया जाता है। जैसे- ह्यशूद्रह्ण का अर्थ और स्थिति। हिन्दू परंपरा में शूद्र एक वर्ण है, जन्म-जाति नहीं। वर्ण भी विशिष्ट कार्यों से जुड़े हैं, जन्म से नहीं। तब भी शूद्र की स्थिति हीन नहीं बताई गई थी। शूद्र भी चार वर्णों में एक सवर्ण थे, जिनका सम्मानपूर्ण स्थान था। कवि निराला ने अपनी कविता ह्यतुलसीदासह्ण में लिखा है कि भारत में शूद्रों की स्थिति पहले सम्मानजनक थी। वह इस्लामी शासकों के काल में हीन हुई। निराला के शब्दों में, ह्यरक्खा उन पर गुरु-भार, विषम/जो पहला पद, अब मद-विष-समह्ण। निराला ने इसका अर्थ बताया है, ह्यसेवा के लिए जो पहले शूद्रों को पद मिला वह सम्मानहीन हो उनके लिए विष-तुल्य हो गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों पर ही इस्लाम शक्ति वाली वह छाया अपना काम कर रही थी।ह्ण
भारत में कभी भी महान, ज्ञानी, ऋषि, राजा आदि होने से किसी की जन्म-जाति का अनिवार्य संबंध नहीं रहा है। स्वामी विवेकानंद इसके हाल के उदाहरण हैं। उन्होंने इसका सविस्तार उल्लेख किया है। उन्हीं के शब्दों में, ह्यह्यमुझे चुनौती दी गई कि एक शूद्र को संन्यासी बनने का क्या अधिकार है। मैं उसका उत्तर देता हूं। मेरी जाति के लोगों ने दूसरी सेवाओं के अतिरिक्त आधे भारतवर्ष पर कई शताब्दियों तक राज किया है। यदि मेरी जाति को गिना न जाएगा तो भारत की वर्तमान सभ्यता का क्या बचेगा? केवल बंगाल में मेरी जाति ने महानतम दार्शनिक, कवि, इतिहासकार, पुरातात्विक, धर्मगुरु दिए हैं। मेरे रक्त ने भारत को महानतम वैज्ञानिक दिए हैं। इसलिए मुझे कोई चोट नहीं लगती जब वे मुझे शूद्र कहते हैं।ह्णह्ण (9 फरवरी 1897, मद्रास में व्याख्यान)
विवेकानंद की इन पंक्तियों से शूद्र और दलितवाद के नाम पर चलने वाले सारे बौद्धिक दुष्प्रचार की वास्तविकता देखी जा सकती है। सर्वप्रथम प्रमाणित होता है कि सौ वर्ष पहले जिन्हें शूद्र माना जाता था, उन्हें अब नहीं माना जाता। दूसरा, शूद्र सदैव दबे-कुचले, दीन-हीन-पीड़ित नहीं थे, क्योंकि स्वामी विवेकानंद कह रहे हैं कि शूद्रों ने आधे भारतवर्ष पर सदियों तक राज किया। तीसरा, चूंकि वे राजकीय सत्ता पर काबिज रहे, अत: शूद्र वर्ण या शब्द का सैद्धांतिक-व्यावहारिक अर्थ सिर्फ शोषित-पीड़ित नहीं हो सकता। व्यावहारिक प्रमाण तो प्रत्यक्ष ही है कि अभी, समकालीन इतिहास में एक शूद्र अपने ज्ञान और कर्म के बल पर स्वामी विवेकानंद बनकर पूरे भारतवर्ष की सबसे सम्मानित विश्व-गुरु जैसी हस्ती बना। पौराणिक विवरणों से लेकर आज तक इसके असंख्य उदाहरण हैं। सत्यकाम जाबालि, विश्वामित्र, महात्मा विदुर से नारायण गुरु, महर्षि अरविंंद तक ऐसे जन्मना ह्यशूद्रह्ण, जन्म से गैर-ब्राह्मण, ऋषियों, ज्ञानियों की लंबी सूची है, जिनका नाम लेकर हिन्दू गद्गद् होते हैं। वस्तुत: वे किसी ज्ञानी, ऋषि की जन्म-जाति की परवाह ही नहीं करते। न जानते हैं, न जानना जरूरी समझते हैं। बताइए, सद्गुरु जग्गी वासुदेव की जन्म-जाति क्या है? यह उनके किसी भारतीय शिष्य, पाठक या भक्त को मालूम है? क्या उसे इससे मतलब भी है? यही भारतीय हिन्दू परंपरा है। भारतीय परंपरा में जन्मना ह्यउच्चह्ण व ह्यनिम्नह्ण जाति का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। व्यवहार में यदि कभी विकृतियां आर्इं तो यह शास्त्रों से विचलन का संकेत है। उनके पालन का नहीं। भगवद्गीता में जाति की स्थिति इस प्रकार है-ह्यचातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।ह्ण श्रीकृष्ण कहते हैं, ह्यगुण और कर्मह्ण के अनुसार चार वर्ण मेरे द्वारा रचे गए। अत: जिस जन्मना अर्थ में बहुतेरे लोग ह्यशूद्रह्ण व ह्यवैश्यह्ण का अर्थ कर शास्त्रों पर उंगली उठाते हैं, वह कभी नहीं रहा। आखिर ह्यगुण और कर्मह्ण के अनुसार किसी ह्यवैश्यह्ण का अर्थ गुप्ता, अग्रवाल परिवार में जन्म लेने वाले से नहीं हो सकता। पर उसी से सारी राजनीतिक, बौद्धिक लफ्फाजी चलती है। उसी हिसाब से चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त सम्राट कैसे हुए? या यदुवंशी कृष्ण और उनके अहीर भाई-बंद भगवान, दार्शनिक और शासक कैसे बने? आज का उदाहरण लें, तो सिंधिया या होल्कर जैसे ह्यशूद्रह्ण बड़े-बड़े राज्यों के संस्थापक और राजा होते रहे हैं।
उसी तरह, अस्पृश्यता भी कर्म-गत रही है, जन्मगत नहीं। महाभारत में अश्वत्थामा को अस्पृश्य कहा गया, क्योंकि उसने पांडवों के पुत्रों की हत्या की थी, जबकि वह ब्राह्मण-कुल में जन्मा था। दरअसल, जाति वाली छुआछूत भारत में हाल की सदियों में पैदा हुई। कुछ ह्यअस्पृश्यह्ण मुगल काल में बने। ये वे वीर थे जिन्होंने इस्लाम न कबूल करने के दंडस्वरूप मैला उठाने का काम स्वीकार किया और गंदगी से जुड़कर वह कहलाए। वस्तुत: जिन्हें आज के भारतीय विमर्श में ह्यदलितह्ण कहते हैं, वे न तो ह्यअस्पृश्यह्ण थे, न स्वयं को ऐसा समझते थे। 1800 तक जातियों के बीच परस्पर पिछड़ापन अधिक नहीं था। कुल शिक्षितों में 80 प्रतिशत गैर-ब्राह्मण थे। यह सब 150-200 साल पहले के ब्रिटिश दस्तावेजों में विस्तार से दर्ज है।
अत: मनुस्मृति का ह्यशूद्र्रह्ण आज का फलां समूह या जाति है, यह मनमाना निष्कर्ष है। इसमें घोर बचपना, अज्ञान या राजनीतिक धूर्तता ही है। भारतीय परंपरा में जाति शब्द के ही असंख्य अर्थ हैं। आर्य-जाति, स्त्री-जाति, हिन्दू-जाति आदि प्रयोग सदैव चलते रहे हैं। ह्यअनुसूचित जातियोंह्ण वाली सूची तो सौ साल पहले अंग्रेजों की बनाई हुई है। भारतीय साहित्य या न्याय में कोई सूची नहीं थी, क्योंकि कोई जन्मना-जाति सदा के लिए शासक-शासित या ऊंच-नीच नहीं होती थी। किन्तु इस सबको झुठला कर चातुर्वर्व्य का जबरन ईसाई-मिशनरी, मार्क्सवादी विकृत अर्थ करके उसे ह्यब्राह्मणवादह्ण, ह्यमनुवादह्ण जैसे नाम दिए गए। यह सोची-समझी राजनीतिक धूर्तता है, जो रोहित वेमुला जैसे अनजान दलितों को हिन्दू-धर्म से अलग करने, तोड़ने की खुली साजिश के तहत की जाती है। आज कौन-सा ह्यब्राह्मणवादह्ण है, जिसके विरुद्ध विषैली भाषणबाजी होती है? सच तो यह है कि जो शरीयत दुनिया के करोड़ों मुसलमानों पर लागू है, जो स्त्रियों, गैर-मुस्लिमों के प्रति क्रूर है, उसे जलाने का विचार किसी को सपने में भी नहीं आता! इसके विपरीत, मनुस्मृति न तो क्रूर है, न उससे आज समाज चलता है, जिसे जलाकर राजनीति की जा रही है। ऐसी मूर्खता या धूर्तता को पहचाना चाहिए। जिस ह्यमनुवादह्ण की निंदा की जाती है, वह मात्र गाली है। हिन्दू घरों में पाए जाने वाले ग्रंथों में रामायण, महाभारत, भागवत आदि हैं। तब हिंदुओं का मूल सामाजिक ग्रंथ केवल मनुस्मृति कैसे? हमारे धर्मशास्त्रों में भृगु, पाराशर, याज्ञवल्क्य, नारद, आदि असंख्य स्मृतियां हैं, किंतु मनुस्मृति का ही नाम क्यों लिया जाता है? केवल इसलिए कि ईसाई-मिशनरियों और यूरोपीय लेखकों ने इसके विरुद्ध निरंतर झूठा प्रचार किया।
अत: पूरे मामले में मनुस्मृति की मूल्यवत्ता का प्रश्न ही गौण है। इसीलिए उसे पढ़ने, समीक्षा करने की बात कभी नहीं की जाती। असली बात इसके बहाने केवल हिन्दू-विरोधी राजनीति को धार देने की है। दलितों को हिंदुओं से अलग करने का पुराना अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है। उसी के लिए मनुस्मृति जलाना और किसी तरह हिंदुओं के बीच आपसी विद्वेष, दंगे भड़काना मूल उद्देश्य है। यह सदियों पुरानी योजना है, जिसके प्रति हिन्दू समाज उतना सचेत नहीं रहा। इस गफलत के कारण स्वतंत्र भारत में भी इस षड्यंत्र को रोका नहीं गया। उलटे ह्यअल्पसंख्यकह्ण विशेषाधिकार देकर हिंदुओं को ही हीन अवस्था में डाल दिया गया। तभी तो दलित आड़ लेकर चर्च-मिशनरी और तब्बलीगी संगठन हिन्दू शास्त्रों तथा हिंदुओं को भी इसी देश में जलाते हैं! ईसाई, इस्लामी किताबों को छुआ भी नहीं जा सकता। इसी से दिखता है कि वास्तव में कौन असहाय व कौन अत्याचारी है।
वैसे भी, 100-150 साल में ह्यदलितह्ण समझे जाने वाले लोगों का स्वतंत्र भारत में काफी उत्थान हुआ है। डॉ. आंबेडकर ने ही इसे नोट किया था। तब से साठ वर्ष और बीत चुके, जब ह्यदलितोंह्ण में अनेक लोग देश के बड़े-बड़े पदों तथा जीवन के हरेक क्षेत्र में स्थापित होते रहे हैं। इस सबको अनदेखा करके अतिरंजित या मनगढ़ंत प्रचार चलाना समाज विरोधी, हानिकारक काम है। बेहतर होगा कि हम अपने सच्चे ज्ञानियों, महान समाजसेवियों के जीवन, कर्म और शिक्षाओं पर ध्यान दें।
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