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बीएसपी यानी ‘बाबासाहेब पर प्रहार ’

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Apr 9, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Apr 2018 11:11:11

बहुजन समाज पार्टी बाबासाहेब आंबेडकर के सिद्धांतों से दूर हो गई है। उन्होंने वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए कई शांतिपूर्ण आंदोलन चलाए। उनकी दृष्टि में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन बाबासाहेब पर अपना एकाधिकार समझने वाली मायावती के हिंंसक भारत बंद ने उनकी विरासत को घायल किया

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने अपने जीवन में कई जन-आंदोलन चलाए, जो मुख्यत: मंदिरों में वंचितों के प्रवेश, सार्वजनिक कुओं, तालाबों आदि से उन्हें पानी पीने के अधिकार मनवाने के लिए थे। आंदोलन के दौरान उन पर छिटपुट हमले हुए, जिसमें वे घायल भी हो गए। लेकिन उनकी अपील पर आंदोलन पूरी तरह से शांतिपूर्ण ही रहा। लगभग 6 साल से अधिक समय तक चले इस आंदोलन पर्व को बाबासाहेब ने ‘धर्म संगर’ अर्थात धर्म संघर्ष का नाम दिया, जिसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था। एक बार उन्होंने कहा भी था कि ‘मेरे सत्याग्रहियों की अहिंसा गांधीजी को भी लजाने वाली रही है।’ लेकिन बाबासाहेब पर अपना एकाधिकार समझने वाली बसपार और उसकी मुखिया मायावती के हालिया हिंसक भारत बंद ने उनकी विरासत को घायल किया है। खास तौर पर स्त्रियों-बच्चों पर हमले, लूटमार जैसी घटनाओं ने इस पार्टी के निंदनीय चेहरे को देश के सामने ला दिया है। जिस बात के लिए भारत बंद हुआ उसे तो मायावती बतौर मुख्यमंत्री अपने तीसरे कार्यकाल (2007-2012) में स्वयं कर चुकी हैं। उन्होंने मई 2007 में यह सरकारी आदेश जारी किया था कि अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम में एफआईआर होने पर सर्किल आॅफिसर स्तर के अधिकारी द्वारा प्रारंभिक जांच के बाद ही गिरफ़्तारी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यही फैसला तो दिया है। फिर विरोध का औचित्य क्या है?
पिछले कुछ समय से बाबासाहेब और उनके बताए रास्ते से बसपा की दूरियां साफ दिखने लगी हैं। मायावती ने उस पार्टी से गठजोड़ किया जिसके शीर्ष नेताओं में से एक आजमखान ने बाबासाहेब को ‘भू-माफिया’ बताया था। 2017 के शुरू में आजम ने एक सभा में जब यह आपत्तिजनक बात कही थी, तब मायावती खामोश रहीं। आजम ने मंत्री रहते हुए रामपुर में मॉल बनाने के लिए समीपस्थ वाल्मीकि बस्ती को बुलडोजरों से गिरवा दिया, तब भी मायावती ने विरोध नहीं किया। अखिलेश यादव सरकार ने बाबासाहेब के पुण्य दिवस एवं संत रविदास जयंती पर अवकाश रद्द कर मुस्लिम त्योहारों के दो अवकाश बढ़ाए, फिर भी वे उदासीन ही रहीं। अब अचानक बाबासाहेब के नाम में उनके पिता रामजी सकपाल का नाम जोड़े जाने पर वे विरोध करने पर आमादा हो गर्इं! बाबासाहेब की तमाम डिग्रियों व पुस्तकों, संविधान सभा और राज्यसभा (जिनके वे सदस्य रहे) की कार्यवाही रिकॉर्ड, संविधान की मूल हिंदी प्रति पर उनके हस्ताक्षर, दोनों डाक टिकट- सभी में उनके नाम के मध्य में राम है। बसपा की तुच्छ राजनीति के आलोचक कहते हैं कि यदि मायावती को ‘राम’ शब्द इतना ही अप्रिय है तो पहले अपनी माता रामरत्ती तथा अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के नामों से उसे हटाएं।      अजय मित्तल    

क्या था मामला?
20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के एक मामले में एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे। इसके मुताबिक, सरकारी कर्मियों की तुरंत गिरफ्तारी नहीं हो सकती। सक्षम प्राधिकरण से इजाजत के बाद ही गिरफ्तारी की जा सकती है। पुलिस को जांच के लिए सात दिन का समय मिले। जो सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, उनकी गिरफ्तारी के लिए एसएसपी से अनुमति लेनी होगी। साथ ही, ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत मिले।

क्यों हुई हिंसा?
फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। दलित संगठनों ने सरकार से फैसले के विरुद्ध अपील की मांग की और कहा कि नियम यथावत लागू किया जाए। सरकार ने 2 अप्रैल को पुनर्विचार याचिका दाखिल की। देश में हिंसा और मौतों का हवाला देते हुए दलित संगठनों ने भी याचिका दायर कर शीघ्र सुनवाई की अपील की, पर अदालत ने इनकार कर दिया। सर्वोच्च अदालत ने केंद्र की याचिका पर 3 अप्रैल को सुनवाई करते हुए कहा कि हमने एससी/एसटी कानून के किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं किया है, पर इसका इस्तेमाल बेगुनाहों को डराने के लिए नहीं हो। केंद्र की याचिका पर 10 दिन में सुनवाई होगी।

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