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राष्ट्र यज्ञ में समिधा बनकर अपने जीवन को होम करने का प्रण ले चुके वेद-वेदांग में दीक्षित 92 संन्यासियों ने हरिद्वार में गंगा किनारे स्वामी रामदेव के सान्निध्य में खुद को किया राष्ट्र को समर्पित
अश्वनी मिश्र
आज के चकाचौंध भरे समय में, देश-विदेश के विश्वविद्यालयों से अलग-अलग क्षेत्रों में अच्छी-खासी पढ़ाई करने के बाद अगर कोई युवा या युवती संन्यास लेने की ठान ले तो घर-परिवार सहित समाज की ओर से प्रतिक्रियाएं कुछ ऐसी होंगी— कठिन परिश्रम से जी चुरा रहे थे, इसलिए संन्यासी बन गए, तो कोई कहेगा कि परिवार की जिम्मेदारियों से बचने के लिए संन्यासी बने हैं, तो कोई कहेगा कि विवाह करके और परिवार को साथ लेकर भी समाज का कार्य किया जा सकता है। यानी उदाहरण से लेकर उलाहना देने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। ऐसे में कोई एकाध ही व्यक्ति ऐसा होगा जो संन्यास जीवन को श्रेष्ठ कार्य मानकर देश-समाज सेवा में दृढ़तापूर्वक लगने के लिए सहर्ष अनुमति और आशीर्वाद देगा।
लेकिन रामनवमी के दिन उत्तराखंड के हरिद्वार में हरि की पौड़ी पर गंगा किनारे का दृश्य इससे उलट था। योग गुरु स्वामी रामदेव के 24वें संन्यास दिवस पर सूचना तकनीक से लेकर विधि, डॉक्टरेट और कप्यूटर साइंस में उच्च शिक्षित एवं वेद-वेदांग से दीक्षित 41 विदुषी बहनें और 51 ब्रह्मचारी जब भगवा वस्त्र में एक साथ संन्यास दीक्षा ले रहे थे तो उनके परिजन न केवल गौरवान्वित थे बल्कि अपने बेटे-बेटियों को गले से लगाकर ऋषि-मुनियों की संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए आशीर्वाद दे रहे थे। चारों तरफ से उन पर पुष्प वर्षा हो रही थी। गंगा किनारे का यह भावभीना दृश्य न केवल अद्भुत था बल्कि उस मिथक को तोड़ रहा था कि मजबूरी में कोई साधु-संन्यासी बनता है। गौरतलब है कि योग ऋषि स्वामी रामदेव ने 2050 तक भारत को आध्यात्मिक महाशक्ति बनाने के संकल्प को केंद्र में रखकर 1000 उत्तराधिकारी संन्यासी तैयार करने की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत पहली बार 92 संन्यासियों को उन्होंने देश को समर्पित किया है। 20 मार्च से पतंजलि योगपीठ के आचार्य कुलम की धरा पर नवनिर्मित ऋषिग्राम में चल रहे चतुर्वेद महापरायण यज्ञ के बाद दीक्षुओं का मुंडन संस्कार किया गया। जिसके बाद गंगा किनारे श्वेत वस्त्र त्याग कराकर भगवा वस्त्र धारण कराए गए और स्वामी रामदेव सहित प्रमुख संतों की छत्रछाया में दीक्षुओं के सिर पर पुरुष सूक्त के मंत्रों से 108 बार गंगा जल से अभिषेक कर संन्यास दीक्षा का कार्यक्रम विधिपूर्वक संपन्न किया गया।
इस पूरे आयोजन के बारे में स्वामी रामदेव बताते हैं,‘‘अक्सर मुझसे कुछ लोग सवाल पूछते हैं कि बाबा रामदेव और बालकृष्ण के बाद कौन उत्तराधिकारी होगा? तो ऐसे भाई-बंधुओं को यह प्रामाणिक संन्यासी ही मेरा उत्तर हैं। यह संन्यासी मेरी ही तरह देश में योग, संस्कार, शिक्षा और भारतीयता को बढ़ावा देंगे।’’ वे कहते हैं,‘‘हमें अपने उत्तराधिकारी की चिंता न होकर ऋषि-मुनियों के उत्तराधिकारी की चिंता ज्यादा है। हम गौतम, कणाद, पाणिनी, राम-कृष्ण, महर्षि दयानंद के वंशज हैं। वह परंपरा कैसे आगे बढ़े, हमें उसी चिंता है। इसी को ध्यान में रखकर हमने आठ-नौ वर्ष पहले से यह अनुष्ठान मौन रूप में शुरू किया था। अब उस अनुष्ठान में जो परीपक्व हो चुके हैं, जिन पर हमें अब पूरा भरोसा हो गया है कि अब वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने रास्ते से विचलित नहीं होंगे, उनको संन्यास दीक्षा देने का काम किया है।’’
संन्यास दीक्षा के कार्यक्रम में आकर्षण का केन्द्र वे युवक-युवतियां थीं जो अत्याधुनिक दुनिया को तिलाञ्जलि देकर उस कंटक भरे पथ पर चलने का प्रण ले चुके थे, जो तमाम संकटों से भरा है। कोई अच्छी खासी नौकरी छोड़कर तो कोई विदेश की पढ़ाई छोड़कर संन्यास ले रहा था। लेकिन उनके चेहरे पर इसका कोई दुख न था। उल्टे वे तो सभी ऐसे प्रसन्न थे, जैसे कोई मनचाही वस्तु मिल गई हो, जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी।
गुजरात के राजकोट के रहने वाले स्मित उन 92 लोगों में से एक हैं, जिन्होंने गंगा किनारे संन्यास लिया। संन्यास के बाद उनका नाम स्वामी आत्मदेव हो गया है। आस्टेÑलिया से सूचना तकनीक में स्नातक और परास्नातक कर चुके आचार्य आत्मदेव के घर में मां-पिता के अलावा एक बड़ा भाई है। पिता जी प्राथमिक शिक्षा के अध्यापक हैं लेकिन नेत्रहीन हैं। वे सूचना तकनीक के छात्र से एक संन्यासी की यात्रा शुरू करने के बारे में बताते हैं,‘‘वर्ष 2012 में मेरा परास्नातक हुआ। उस समय देश में भ्रष्टाचार, अनाचार के खिलाफ देश में एक माहौल बना था। स्वामी रामदेव जी पूरे देश में घूम-घूमकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रहे थे। मैं आस्ट्रेलिया से यू-ट्यूब के माध्यम से न केवल इस पूरे आन्दोलन को नजदीक से देखता था बल्कि शिक्षा से लेकर संस्कृति के बारे में चिंतन करता था। कई बार स्वामी जी अपने उद्बोधन में कहते थे कि जिस देश में हम पले-बढ़े हैं, जहां का अन्न-जल ग्रहण किया फिर हम किसी दूसरे देश में जाकर सेवाएं दें तो यह मातृभूमि के प्रति घोर विश्वासघात हो जाता है। इस उद्बोधन के बाद मैंने उसी समय प्रण किया कि मैं जो भी करूंगा अपने देश और माटी के लिए करूंगा। मैं दिसंबर, 2012 में भारत आ गया और जुलाई, 2013 से स्वामी जी के संपर्क में हूं।’’ वे कहते हैं,‘‘एक बात मुझे सदैव खटकती थी और स्वामी जी भी उसे कहते थे कि देश में भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद तो जन्म लें पर हमारे यहां नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में। इसी बात को जब सोचता तो मन कहता कि जितना तुम कर सकते हो, उतना करो। मैंने पतंजलि में वैदिक शिक्षा ली। क्योंकि यही वह शिक्षा है जिसको राम-कृष्ण ने भी ग्रहण किया, हमारे ऋषि-मुनियों ने ग्रहण किया और स्वामी जी ने ग्रहण किया और देश ही नहीं विश्व में एक अद्भुत व्यक्ति के रूप में पहचान बनाई। तो मैं ऐसी शिक्षा लेने से क्यों वंचित रहूं? बस यही सब कारण हैं जिसे ध्यान में रखकर संन्यास धर्म के पथ पर चल दिया।’’
ऐसे ही हैं तीस वर्षीय स्वामी गोविंद देव, जो उत्तर प्रदेश के बलरामपुर के रहने वाले हैं। सूचना तकनीक से बीटेक करने के बाद उन्होंने भी संन्यास का पथ चुना। चकाचौंध के युग में संन्यास लेने का विचार कैसे आया? इसके बारे में वे बताते हैं,‘‘मैं शुरुआती दिनों से ही स्वामी विवेकानंद सहित अन्य महापुरुषों को पढ़ा करता था। यहीं से विचार मन में उठते थे और प्रश्नों के जवाब भी मिलते थे। मैं वर्ष 2011 में स्वामी रामदेव जी के संपर्क में आया और 2014 में विधिवत गुरुकुल शिक्षा पद्धति में पढ़कर लगा कि भले ही मैंने बीटेक किया हो लेकिन वास्तविक ज्ञान से दूर हूं। हां, अर्थोपार्जन करने के लिए तो यह ठीक है। लेकिन असल मायनों में जिस शांति और सुख के लिए हर व्यक्ति दर-दर भटक रहा है, उसका रहस्य वैदिक शिक्षा में ही है। मैंने यहां आकर व्याकरण, अष्टाध्यायी, लिंगानुशासन आदि का अध्ययन किया। इस 7-8 वर्ष की गुरुकुल यात्रा के बाद मैंने सोच-समझकर इसकी कठिनाई जानकर संन्यास लेना का निर्णय लिया है।
संन्यास का पथ कष्टों से भरा होता है के सवाल पर वे कहते हैं,‘‘कष्ट हमें तब ही लगता है जब हम किसी चीज को बेमन से करते हैं। लेकिन जब कोई काम मन से करते हैं तो उसमें खुशी और आनंद मिलता है। इसलिए कष्ट की चिंता नहीं है। मैं देश सेवा के पथ पर निकला हूं। अब से एक ही लक्ष्य है, देश के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले अपनों के बीच आधुनिक शिक्षा के साथ वैदिक शिक्षा का दीपक जलाना।’’ 29 वर्षीय नवीन संन्यास दीक्षा के बाद स्वामी विदेहदेव हो गए हैं। अल्मोड़ा के रहने वाले विदेहदेव एमबीए हंै और विदेश की कई नामी कंपनियों में काम कर चुके हैं। वे बताते हैं,‘‘वर्ष 2012 में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बना था। मैं उसी समय पतंजलि आ आ गया था। और स्वामी जी की जो महत्वाकांक्षी योजना आचार्य कुलम् थी, उसके प्रथम आचार्य कुलम में सहयोग किया था। स्वामी जी के साथ देशभर की परिवर्तन यात्रा में भी रहा। उसके बाद व्याकरण, षडदर्शन में चार दर्शन और उपनिषदों, गीता, वेद आदि का अध्ययन किया। चकाचौंध भरे युग में संन्यास का भाव कहां से आया? इस सवाल के जवाब में विदेहदेव कहते हैं,‘‘संन्यास के बारे में सोचना और लेना दोनों में बड़ा अंतर है। मैं वर्षों से इसे जी रहा हूं और जब परिपक्व हुआ तब संन्यास ले रहा हूं।’’
बहरहाल, यह तो सच है कि संन्यासी का जीवन जीना बड़ा कठिन कार्य है। वह भी आज के दौर में। लेकिन उतना ही सच यह भी है कि संन्यासी बनना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि, सफलता, गौरव और उत्तरदायित्व है। स्वामी रामदेव के शब्दों में कहें तो, सिर्फ भगवान के अनुग्रह से कोई संन्यासी बनता है और जो बनता है उसका जीवन तो धन्य होता ही है, बल्कि वह देश-समाज में कईयों का जीवन धन्य करता है।
मैंने कॉर्पोरेट जगत का जीवन भी जिया। लेकिन जब देखा कि इसमें तो सब क्षणिक है और सबका एक ही जैसा जीवन है तो मैंने तय किया कि मैं ऐसा जीवन नहीं जिऊंगा। उसी संकल्प को आज मूर्त रूप मिला है।
—स्वामी विदेहदेव
कष्ट हमें तब ही होता है जब हम किसी चीज को बेमन से करते हैं। लेकिन जब कोई काम मन से करते हैं तो उसमें आनंद मिलता है। इसलिए कष्ट की चिंता नहीं है। मैं देश सेवा के पथ पर निकला हूं।
—स्वामी गोविंद देव
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