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जन-गण-मन : हिंदुओं की स्थिति-जागरण और ज्वालाएं

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Apr 2, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Apr 2018 11:27:55

हिंदुओं को यह सोचना होगा कि वे देश और धर्म को किस दिशा में जाते देखना चाहते हैं

 तरुण विजय

रानीगंज (पश्चिम बंगाल) में रामनवमी उत्सव मना रहे हिंदुओं को आक्रमण पाबंदी तथा सेकुलर मीडिया के प्रहार झेलने पड़े। डीएसपी का हाथ बम से उड़ा दिया गया, पर अंग्रेजी अखबारों में समाचार ऐसे छपे मानो शस्त्रों से लैस हिंदुओं ने मुसलमानों पर हमला किया हो। यही वह कोलकाता है, जहां 1946 के मुस्लिम लीग अधिवेशन में मो. अली जिन्ना ने घोषित किया था, ‘आई हैव अ पिस्टल एंड आई नो हाउ टू यूज इट (मेरे पास पिस्तौल है, मैं उसे चलाना भी जानता हूं)।’ उसके बाद कोलकाता नरसंहार हुआ, जिसमें हिंदुओं को चुन-चुनकर मारा गया, बेघर किया गया और संभवत: उसके बाद विभाजन तय हो गया।
1946 से 2018 तक स्थिति कितनी बदली है? बदला सिर्फ यह कि हिंदुओं के सामने मुस्लिम जनसंख्या बढ़ी है और मुहर्रम के लिए दुर्गा प्रतिमा विसर्जन की तारीख बदल दी जाती है। पर अब हिंदू 1946 का हिंदू नहीं है। वह चुपचाप सब देख रहा है, सहन कर रहा है। स्थिति बदलने के लिए बेताब व उद्विग्न है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में वह ज्वालामुखी कब फटेगा, जिसमें युगों-युगों की मलिनता व स्वार्थपरता धुल जाएगी, यह अंदाजा लगाना आज कठिन नहीं, क्योंकि क्षितिज पर भारतीय राष्टÑीयता के अग्निमय बालरवि का उदय दिखने लगा है।
कोलकाता से कश्मीर, केरल, कर्नाटक व कम्युनिस्ट प्रभाव वाले नक्सल क्षेत्रों तक नजर दौड़ाएं तो हिंदुओं की खराब स्थिति और उन पर हो रहे हमलों में वृद्धि ही दिखती है। हिंदुओं का आर्तनाद जब कुछ और किताबों, लघु पुस्तिकाओं, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप पर प्रगट होता है तो उसी मुकाबले में संभवत: उससे अधिक तीव्रता से मुसलमानों के जिहादी ट्वीट आते हैं, जो बताते हैं कि तुम तो ऐसे हिंदू हो जिनके लिए मुस्लिम बादशाहों ने प्रति हिंदू पुरुष के धर्मांतरित होने पर चार रुपये और प्रति हिंदू स्त्री के धर्मांतरित होने पर दस रुपये का इनाम रखा था। ये मुस्लिम जिहादी भूल जाते हैं कि शायद उनके पुरखे ऐसे ही मुसलमान बने हों या शायद इससे भी भयानक शर्मिंदगी भरे तरीके से। हिंदुओं पर प्रहार या उनका तिरस्कार करके वे अपने ही पुरखों को अपमानित और जलील कर रहे हैं। यहां के मुसलमान अरब या तुर्क नहीं हैं, बल्कि वे हममें से ही एक हैं। एक विरासत, एक संस्कृति, एक पुरखे, एक भाषा, एक पद्धति के गीत-संगीत व एक भूमि और आकाश के साझेदार हैं। फिर भी केवल आस्था बदलने से इतनी दुश्मनी कि अपनी मातृभूमि का विभाजन करवाने के बाद भी चैन नहीं। कश्मीर में बहुसंख्यक हो गए तो वहां से अपने ही रक्तबंधु हिंदुओं को निकाल दिया और जहां अभी बहुसंख्यक नहीं हुए हैं वहां भी हिंदुओं के धार्मिक कार्यक्रमों तथा उनके आग्रही स्वरूपों का खंडित करने का प्रयास किया जाता है। हिंदुओं को यह सोचना होगा कि वे देश और धर्म को किस दिशा में जाते देख रहे हैं? कभी कराची, रावलपिंडी, लाहौर और पेशावर में भी हिंदुओं का प्रभावशाली रूप था तथा वे धनवान, बलवान, शौर्यवान माने जाते थे। विभाजन की अंतिम घड़ी तक उन्हें लगता था कि वे उस जमीन के मूल निवासी हैं और उस जमीन, वहां के आसमान पर उनका नाम लिखा है। भला उन्हें वहां से क्यों जाना होगा? पर उन्हें सब कुछ लुटाकर यहां आना पड़ा। केवल उन्हें ही नहीं जो लाहौर, ढाका तथा चटगांव छोड़कर शेष खंडित भारत में लौट आए, बल्कि उन्हें भी आज तक झेलना पड़ रहा है जो अपनी जमीन से बिछुड़ नहीं पाए और वहीं रह गए।
हर रोज पाकिस्तान में हिंदू बच्चियों, युवतियों के अपहरण, उन्हें मुसलमान बनाने और फिर रोते-बिलखते मां-बाप के सामने उस बच्ची का वहशियों के साथ निकाह करने के समाचार आते हैं। ऐसे ही समाचार बंगलादेश से आते हें। भारत के समाचार-पत्र, फेसबुक, मीडिया युद्ध, चुनाव की तिथि पहले घोषित हुई या नहीं, हादिया का निकाह, केरल में टीवी चैनल पर मनोरंजन कार्यक्रम में मुस्लिम युवक के साथ विवाह करने के लिए कौन-कौन हिंदू युवती अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बनने को लालायित है, ऐसे विषयों में अधिक व्यस्त रहते हैं। हिंदू के घाव पर नमक छिड़कना एक चुटकुला जैसा बन गया है या आसान ‘टाइम पास’ जैसा प्रसंग। हम इस पर अपनी पीड़ा या आक्रोश ट्विटर पर व्यक्त कर कई बार इस परिणाम से प्रसन्न हो जाते हैं कि उसका 1,000, 2,000 या 4,000 बार रिट्वीट हुआ। उन हिंदू कार्यकर्ताओं के माता-पिता, पत्नी-बच्चे, बहन से क्या पूछें जो केरल, कर्नाटक, कश्मीर और बंगाल में सिर्फ हिंदू होने के नाते एक स्वतंत्र भारत देश में मारे गए।
जम्मू-कश्मीर की एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी थीं, जिन्होंने मुख्य सचिव स्तर से अवकाश प्राप्त करने के बाद कश्मीर घाटी में अपने अनुभवों पर एक पुस्तक लिखी। उसमें उन्होंने बहुत सारी बातें बतार्इं, लेकिन एक बात जो मन को चुभ गई, वह भूलती नहीं। उन्होंने लिखा कि कश्मीर घाटी में हिंदू महिलाओं के लिए बिंदी लगाना कई बार सार्वजनिक रूप से अपना मजाक उड़ाने, अपमान करवाने या खुद पर आक्रमण आमंत्रित करने जैसा जोखिम बन जाता है। हिंदू जागरण हुआ है, हिंदू के नाते आग्रह, संगठन, प्रभाव का विस्तार भी हुआ, लेकिन उतनी ही मात्रा में प्रतिरोध एवं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति और संस्था पर संगठित आक्रमण भी बढ़े हैं, जो भले ही न्यायपालिका या शासन-प्रशासन और राजनीति में हों।     

(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)

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