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मोसुल में आईएसआईएस के हाथों 39 भारतीयों की भयानक हत्याएं सिर्फ टीवी बहसों का मुद्दा बनकर न रहें। इसके पीछे छुपी उस कट्टर सोच पर भी गंभीरता से विचार करना जरूरी है जो गैर मजहबियों के कत्ल की पैरवी करती है। हैरतअंगेज है कि मारे गए केशधारियों के साथी बांग्लादेशी कामगारों को पहले अलग कर दिए जाने का बिन्दु इस संदर्भ में हो रहे विमर्शों से गायब है
तुफैल चतुर्वेदी
मोसुल के पास एक टीले में दफन 39 अभागे भारतीयों की लाशें मिल गई हैं। उनके लंबे बालों से यह पहचान हुई कि मारे गए अधिकांश लोग सिख थे। अपनी धरती से दूर, रूखी-सूखी खाकर अजनबियों के बीच पैसा कमाने गये इन लोगों की मौत वाकई दुखद है। होना तो यह चाहिए था कि आक्रोश से हम भारतीयों की मुट्ठियां भिंच जातीं, हम दांत पीसने लगते, मगर हुआ यह कि टीवी की बहसों को कई दिनों के लिए मसाला मिल गया। अखबारों में कई कॉलम की खबरें लिखी जा रही हैं। आइये, देखें कि कैसे समाचार बनाये जा रहे हैं, किस तरह की बहसें हो रही हैं :
’ सरकार ने चार साल पहले मोसुल में 39 भारतीयों की हत्या पर देश को सही सूचना नहीं दी…
’ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने पूछा है कि जून 2014 से जुलाई 2017 के बीच विदेश मंत्री ने सात बार कहा कि अपहृत भारतीय जीवित हैं। सरकार को बताना चाहिए कि वह क्यों झूठा आश्वासन दे रही थी?…
’ इराक और सीरिया के लोगों को भले ही आईएसआईएस से मुक्ति मिल गयी है मगर दुनिया से इसका खतरा समाप्त नहीं हुआ है।
’ आईएसआईएस की विचारधारा से प्रेरित कट्टरपंथियों के ‘लोन वुल्फ अटैक’ (किसी अकेले आतंकवादी का हमला) से निबटने का तरीका अमेरिका और यूरोप समेत दुनिया के कई देशों को समझ नहीं आ रहा।
’ सीरिया और ईराक के बाहर अफ्रीकी देशों में आईएसआईएस की पैर जमाने की कोशिश कामयाब नहीं हो पाई है।
’ बलूचिस्तान के दुर्गम पहाड़ी इलाकों में आईएसआईएस के ठिकाना बनाने की गोपनीय सूचना अब आम हो गई है।
’ पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करने का सपना देखने वाले आतंकी संगठनों और आईएसआईएस के बीच नया गठजोड़ सामने आने लगा है।
’ अफगानिस्तान में आईएसआईएस को वहां के मूल आतंकवादी संगठन तालिबान से कड़ी टक्कर मिल
रही है।
’ आईएसआईएस से बड़ा खतरा इराक और सीरिया से भागकर पूरी दुनिया में फैल गये उसके लड़ाके और उनकी कट्टर विचारधारा है।
’ भारतीय सुरक्षा एजेंसियां हालांकि देश में आईएसआईएस के अस्तित्व से इनकार करती हैं मगर कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों में आईएसआईएस का झंडा लहराना आम बात हो गई है।
‘‘जब हमें यह पता लगा कि टीले में कुछ शव हैं तो हमने इराक सरकार के साथ मिलकर डीप पेनिट्रेशन राडार से सच्चाई का पता लगाने का फैसला किया। जब ये पुख्ता हो गया कि इसमें शव हैं तो हमने उसकी खुदाई करवाई। जो शव मिले, उन सभी का डीएनए टेस्ट कराया गया। 98 से 100 फीसदी तक सैंपल मैच हो गए तो हमने संसद में इसकी जानकारी देना उचित समझा।’’
—सुषमा स्वराज, विदेश मंत्री
संसद में दिया बयान
अब बात विस्तार से। राहुल गांधी ने कहा कि ‘‘सरकार 39 भारतीयों की 4 वर्ष पहले हुई हत्या से देश का ध्यान हटाने के लिये नये-नये मुद्दे खड़े कर रही है।’’ उनकी समझ में भारतीय क्या इतने भोले हैं कि वे यह तो सोचेंगे ही नहीं कि चार साल बाद आपकरे दर्द कैसे हुआ? आखिर चार साल से लोग गायब थे। आप किसी एक के भी घर गए? आपकी पार्टी का कोई प्रमुख नेता उन दुखी लोगों से मिला?
जीवित बचे एकमात्र व्यक्ति हरजीत मसीह ने फिर से मीडिया के सामने आकर बताया कि वह और मारे गए 39 भारतीयों के साथ 60 बांग्लादेशी भी एक इराकी कंपनी में काम करते थे। उसने बताया, ‘‘2014 में जब मोसुल पर आतंकियों ने कब्जा किया तो वे एक रात करीब 9 बजे सभी लोगों को गाड़ियों में बिठा कर सुनसान जगह पर ले गए। यहां दो दिन रखने के बाद बांग्लादेश के नागरिकों को भारतीयों से अलग कर दिया गया। इसके बाद मुझे और साथ के सभी भारतीयों को गोली मार दी गई। किस्मत से गोली मेरी टांग छूकर निकल गई और मैं बचकर भाग निकला। आतंकियों ने मुझे फिर से पकड़ लिया। मैंने खुद को बांग्लादेशी और नाम अली बताया। वहां से मुझे बांग्लादेशी शिविर भेजा गया और फिर मैं भारत लौट आया।’’
टीवी पर बहसें हो रही हैं, समाचारपत्रों में लेख-संपादकीय आ रहे हैं और न्यूनाधिक इन्हीं मुद्दों पर चर्चा हो रही है। यहां एक बात स्पष्ट दिखाई देती है कि बहस करने वाले, लेख लिखने वाले तटस्थ और निस्पृह भाव से काम कर रहे हैं। वे ऐसे बात कर रहे हैं जैसे मई-जून में ठंडे नैनीताल में हों और उन्हें मध्य प्रदेश में लू चलने पर वक्तव्य देना हो। 39 भारतीयों की भयावह मृत्यु उनके लिये ऐसी घटना है जिससे उनका कुछ खास लेना-देना नहीं है। हर बहस, लेख से मसीह का यह वक्तव्य नदारद है कि ‘‘बांग्लादेश के नागरिकों को भारतीयों से अलग कर दिया गया। इसके बाद मुझे और साथ के सभी भारतीयों को गोली मार दी गई।’’ हत्या कोई सामान्य बात नहीं होती। ये हत्या क्रोध के कारण, दुश्मनी के कारण नहीं की गर्इं। आखिर उन्होंने अजनबी भाषा बोलने वाले, अपरिचित 39 भारतीयों को क्यों मारा और बांग्लादेशियों को क्यों छोड़ दिया?
इस प्रश्न का बहस से बाहर होना बहुत तकलीफदेह बात है। अगर हम इन हत्या का कारण नहीं समझेंगे, समझना नहीं चाहेंगे तो इनको रोकेंगे कैसे? मोसुल ही नहीं, इराक और सीरिया के कट्टर इस्लामी आतंकियों के कब्जे में रहे शहरों, गांवों, पहाड़ियों, समुद्र तटों पर सैकड़ों सामूहिक कब्रों की सूचना है जिनमें लाखों लोगों को मार कर दबा दिया गया है। पकड़े गए कई आतंकवादियों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने सात-आठ सौ से अधिक लोगों की हत्या की एवं सैकड़ों लड़कियों के साथ बलात्कार किया।
यह कोई पहली घटना नहीं है। डेढ़ सहस्राब्दी साल से ऐसे हत्याकांड होते आये हैं। इन ‘अरबी अमनपसंदों’ के सारे प्रख्यात चरित्र खूंखार लड़ाके रहे हैं, जिन्होंने अपनी दृष्टि में काफिरों, मुशरिकों, मुल्हिदों, मुर्तदों की हत्या की हैं। भारत की धरती पर तो शताब्दियों से ऐसे नृशंस नरसंहार चल रहे हैं। कारण केवल यह था कि इस धरती के लोग उनकी हत्यारी विचारधारा के साथ खड़े होने को तैयार नहीं थे। गुरु नानकदेव जी की वाणी में इस्लामी आक्रमण के चश्मदीद वर्णन हैं। बाबर के पैशाचिक हत्याकांडों को उन्होंने जम कर कोसा है। मुसलमान बनने से इनकार करने पर नवीं पादशाही गुरु तेग बहादुर जी की साथियों सहित शहीदी का गवाह दिल्ली का गुरुद्वारा शीशगंज सामने ही है। दसवीं पादशाही गुरु गोविंद सिंह जी के 2 बच्चों का मुसलमान न बनने पर दीवार में जीवित चिना जाना आज भी हम सबकी स्मृति में है। वीर हकीकत राय की बोटियां नोंच-नोंचकर बलिदान करना, वीर बंदा बैरागी के छोटे बच्चे का कलेजा उनके मुंह में ठूंसना, फिर उनके टुकड़े-टुकड़े कर मारा जाना इतिहास के माथे पर अंकित है। इस्लाम ऐसे हत्याकांड विश्वभर में जहां उसका बस चलता है, करता आया है।
इन 39 केशधारियों की दुखद हत्या के संदर्भ में कुछ प्रश्न कौंध रहे हैं। कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन सहित अनेक देशों में रह कर पाकिस्तान की फंडिंग से खालिस्तान का हिंसक आंदोलन चलाया जाता रहा है। अभी हाल में कनाडा के प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर कनाडा के ही खालिस्तान समर्थक व्यवसायी को उनके राजदूतावास के निमंत्रण की खासी आलोचना हुई है। गुप्तचर एजेंसियों को इसकी भी सूचना है कि खालिस्तान के आंदोलन को फिर से खड़ा करने की जी-तोड़ कोशिश हो रही है और तथाकथित खाड़कुओं की पाकिस्तान में ट्रेनिंग चल रही है। खालिस्तान के पक्ष में आंदोलन करने वाले आतंकियों, अंड-बंड कमांडो फोर्स के मरजीवड़ों से सवाल है कि क्या तुम्हारी आंखें यह देख पा रही हैं कि कट्टर मजहबियों के हाथों निहत्थे मारे गए ये 39 अभागे लोग केशधारी थे? क्या तुम समझ पा रहे हो कि अपनी धरती से दूर, रूखी-सूखी खाकर अजनबियों के बीच कमाने गये लोगों की मौत उसी कारण हुई जिस कारण नौवीं पादशाही गुरु तेग बहादुर जी का दिल्ली में शीश उतारा गया था? तुम्हें अंदाजा है न कि जिस कारण दसवीं पादशाही गुरु गोविंद सिंह के साहबजादे दीवार में चिने गए थे, उसी कारण ये 39 लोग भी मार दिए गए?
तुम्हें कभी सूझा है कि वे दो छोटे बच्चे जिंदा दीवार में चिने जाने पर कैसे तड़प-तड़प कर मरे होंगे? उनकी जान कैसे घुट-घुटकर निकली होगी? जिस धर्म की रक्षा के लिये इतने बलिदान हुए, उस धर्म की विरोधी ‘काफिर वाजिबुल कत्ल’ (काफिर मर डालने योग्य है), ‘कित्ताल फी सबीलिल्लाह’(अल्लाह की राह में कत्ल करो), ‘जिहाद फी सबीलिल्लाह’ (अल्लाह की राह में जिहाद करो) मानने वाली विचारधारा के साथ खड़े होते हुए तुम्हारे पैर नहीं टूट गये?
गुरुओं के हत्यारों, उनके सिखों के हत्यारों से, जिस धर्म के लिये गुरुओं ने बलिदान दिए, उसके विरोध में पैसे लेते हुए तुम्हारे हाथ नहीं गल गये? तुम गुरु गोविंद सिंह जी की यह बात भूल गए कि ‘‘तेल से हाथ भिगोने के बाद तिलों में हाथ डालने पर जितने तिल चिपकें, उतनी कसम भी तुर्क खायें तो भरोसा मत करना’?
अब धर्म पर ही नहीं अपितु विश्व भर पर संकट आया है। यह मनुष्यता की रक्षा के लिये उठ खड़े होने का समय है।
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