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आवरण कथा-विश्वास पर घात

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Apr 2, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Apr 2018 12:11:20

कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनावों में कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं ली थीं, जबकि उसके एक कर्मचारी डैन मर्सीन ने किसी एनआरआई से कांग्रेस को ही हराने के पैसे ले लिए। गौरतलब है कि डैन मर्सीन 2012 में केन्या के नैरोबी स्थित एक होटल में मृत पाए गए थे। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु 2012 में हो गई, वह दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हारने की वजह कैसे बन सकता है? सवाल यह भी उठता है कि जब फेसबुक के डाटा लीक के खुलासे से पहले मीडिया कांग्रेस और कैम्ब्रिज एनालिटिका में अगले चुनाव के लिए हो रही बातचीत की खबरें छाप रहा था, तब कांग्रेस कहां सो रही थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि तब कांग्रेस को कैम्ब्रिज एनालिटिका से जुड़ने की खबरें रास आ रही थीं? उसे लग रहा था कि इससे देश में माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी

अरविंद शरण  

फेसबुक प्लेटफॉर्म पर अवैध डाटा खुदाई और तमाम गैरकानूनी हथकंडों से अमेरिका समेत कई देशों की राजनीतिक सत्ता का स्वरूप तय करने के विश्वव्यापी गंदे खेल में भारत का नाम भी उछल गया है और निशाने पर है कांग्रेस। ‘व्हिसल ब्लोअर’ क्रिस्टोफर विली ने ब्रिटेन की संसदीय समिति के सामने दिए बयान में कहा है कि उनकी कंपनी कांग्रेस के लिए लंबे समय तक काम करती रही है। विली के इस बयान के बाद भाजपा ने कड़े लहजे में कहा कि आखिर उसके आरोप सच निकले कि कांग्रेस इस गंदे खेल में शामिल रही है। राहुल गांधी को इन सबके लिए देश से माफी मांगनी चाहिए। वहीं, अब तक कैम्ब्रिज एनालिटिका से किसी भी तरह के संबंधों से स्पष्ट इनकार करती रही कांग्रेस ने सरकार को फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालिटिका के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर मामले की जांच कराने की चुनौती दे डाली है। ब्रिटिश कंपनी कैम्ब्रिज एनालिटिका द्वारा फेसबुक से 5 करोड़ लोगों की निजी जानकारी गलत तरीके से हासिल कर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतने का रास्ता साफ करने के खुलासे के बाद ब्रिटेन की संसदीय समिति ने क्रिस्टोफर विली को तलब किया था। इसी समिति के सामने दिये बयान में विली ने कैम्ब्रिज एनालिटिका और इसकी मूल कंपनी स्ट्रैटेजिक कम्युनिकेशंस लैबोरेटरीज (एससीएल) की काली करतूतों का खुलासा किया। विली ने कहा कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने राज्यों के स्तर पर कांग्रेस के लिए ‘बड़े पैमाने’ पर काम किया है। कैम्ब्रिज एनालिटिका के लिए भारत क्यों महत्वपूर्ण रहा? इसके जबाव में विली ने कहा कि भारत में परस्पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराएं काफी मजबूत हैं, इसलिए वहां ‘अस्थिरता के अवसर’ हैं। जब समिति में मौजूद एक सांसद ने पूछा कि चूंकि भारत में हमेशा चुनाव होते रहते हैं, इसलिए हो सकता है कि यह आपके कारोबार का मुख्य स्रोत भी रहा हो, तो क्या आपने राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस के लिए काम किया? इस पर विली कांग्रेस के साथ राष्ट्रीय स्तर पर काम करने का वाकया तो याद नहीं कर पाए, लेकिन इतना जरूर कहा, ‘‘भारत इतना विशाल है कि वहां का एक राज्य भी ब्रिटेन से बड़ा हो सकता है। मुझे पता है कि कंपनी ने वहां हर तरह की योजना पर काम किया। वहां कंपनी के दफ्तर हैं, कर्मचारी हैं। मेरे पास इसके दस्तावेज मौजूद हैं और आप चाहेंगे तो मैं आपको दे सकता हूं।’’ इसके साथ ही विली ने बताया कि कैम्ब्रिज एनालिटिका की कार्यप्रणाली मुख्यत: फेसबुक डाटा पर आधारित है।

भाजपा आक्रामक, निशाने पर राहुल
विली के इस खुलासे के बाद केंद्र सरकार और भाजपा आक्रामक हो गई है। अवैध रूप से फेसबुक डाटा लीक होने की खबरों के बाद से ही कांग्रेस पर कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं लेने का आरोप लगा रहे कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आक्रामक रुख अपनाते हुए कहा कि व्हिसल ब्लोअर ने पुष्टि कर दी है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने कांग्रेस के साथ काम किया। कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों को अब माफी मांगनी चाहिए।
मजेदार तथ्य यह है कि अब तक कैम्ब्रिज एनालिटिका के साथ कभी काम न करने की कसमें खाने वाली कांग्रेस ने विली के बयान के बावजूद एक बार फिर कहा कि उसका कैम्ब्रिज एनालिटिका से कभी कोई संबंध नहीं रहा और सरकार फेसबुक तथा एनालिटिका के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराके मामले की जांच करा ले। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, ‘‘कैम्ब्रिज एनालिटिका की भारतीय सहयोगी ओबीआई (ओवलेनो बिजनेस इंटेलिजेंस प्रा. लि.) के एक भारतीय साझीदार अवनीश राय ने सनसनीखेज खुलासा किया है कि एक अमेरिकी एनआरआई ने 2014 में कांग्रेस की सरकार को गिराने के लिए कैम्ब्रिज की सेवाएं लीं। कांग्रेस ने कभी सीए की सेवाएं नहीं लीं, भाजपा जवाब दे कि यह एनआरआई कौन था।’’ सुरजेवाला जिस ओबीआई का जिक्र कर रहे हैं, उसका दफ्तर दिल्ली से सटे गाजियाबाद में भी है और इस कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर ग्राहकों की सूची में कई राजनीति दलों का उल्लेख कर रखा था, हालांकि फेसबुक डाटा लीक का मामला सामने आने के बाद से उसकी वेबसाइट काम नहीं कर रही। सूत्रों के मुताबिक इस कंपनी ने बड़ी संख्या में पत्रकारों को अपने नेटवर्क में जोड़ रखा है जो उनकी जरूरत के हिसाब से मीडिया में खबरें चलाते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय कहते हैं, ‘‘अब तो स्पष्ट है कि कांग्रेस ने कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं लीं। जब  फेसबुक के पांच करोड़ लोगों के डाटा में सेंध लगने की खबर आई, तभी कांग्रेस को अंदाजा हो गया होगा कि अब बहुत जल्दी उसका सच भी उजागर हो जाएगा। इसीलिए वह और राहुल गांधी आक्रामक दिखने की कोशिश कर रहे थे। ‘व्हिसल ब्लोअर’ यह भी बताने को तैयार है कि यह सब कैसे हुआ। मुझे लगता है कि आने वाले समय में कांग्रेस इसमें उलझती चली जाएगी।’’

कांग्रेसी दावे की खुली पोल
ब्रिटेन की संसदीय समिति के सामने एक आईटी विशेषज्ञ पॉल ओलिवर डेहे भी पेश हुए, जिन्होंने दावा किया कि कैम्ब्रिज एनालिटिका में क्रिस्टोफर विली से पहले उनकी जगह डैन मर्सीन भारत में कांग्रेस के लिए काम कर रहे थे। पॉल के मुताबिक, केन्या में मृत्यु से पहले वह भारत में कांग्रेस के लिए काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उसी कांग्रेस को हराने के लिए एक अमेरिकी एनआरआई से पैसे ले रखे थे और वह इसी दिशा में काम कर रहे थे। सुरजेवाला इसका उल्लेख करते हुए सवाल करते हैं कि जिस कैम्ब्रिज एनालिटिका के कर्मचारी ने कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव में हराने के लिए पैसे लिए हों, भला उसी कंपनी की सेवाएं कांग्रेस कैसे ले सकती थी? यहां दो बातें गौर करने लायक है। पहली, कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनावों में मदद के लिए कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं ली थीं और उसके एक कर्मचारी डैन मर्सीन ने किसी एनआरआई से कांग्रेस को ही हराने के लिए पैसे ले लिए। गौरतलब है कि डैन मर्सीन केन्या के नैरोबी स्थित एक होटल में 2012 में मृत पाए गए थे। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु 2012 में हो गई, वह भला दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हारने की वजह कैसे बन सकता है? इसलिए कांग्रेस बेशक इसे आधार बनाकर अपनी झेंप मिटाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें झोल ही झोल है।
रामबहादुर राय कहते हैं, ‘‘यह तो जांच का विषय है कि वह एनआरआई कौन था? उसने क्या वाकई कांग्रेस को हराने के लिए पैसे दिए? अगर दिए तो कब दिए? अगर पैसे लेने वाले की 2012 में मृत्यु हो गई तो क्या फिर किसी और को भी पैसे दिए गए? अगर ऐसा भी हुआ तो उसके कांग्रेस से मनमुटाव की वजह क्या थी। कहीं कोई निजी मामला तो नहीं था?’’ वैसे तब इस तरह खबरें छपी थीं कि डैन मर्सीन की मृत्यु हृदयाघात के कारण हुई। हालांकि क्रिस्टोफर विली ने संसदीय समिति के सामने कहा कि  ‘‘संभवत: उनकी मौत जहर देने से हुई थी।’’ साथ ही विली ने जो बात कही, उससे साफ हो जाता है कि उनकी मौत बेशक संदिग्ध थी और उनकी हत्या की आशंका थी, लेकिन उसका कारण केन्या की स्थानीय राजनीति थी। विली ने कहा, ‘‘जब आप केन्या या फिर दूसरे अफ्रीकी देशों की राजनीति पर काम कर रहे होते हैं और अगर कोई सौदा गड़बड़ हो जाए तो इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है।’

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तब कहां थी कांग्रेस?
जिस ‘व्हिसल ब्लोअर’ के खुलासे के बाद अमेरिका-ब्रिटेन जैसे तमाम देशों की सत्ता की नींद हराम हो गई हो, यह उसी कीटाणु का असर है कि कांग्रेस किसी भी तरह कैम्ब्रिज एनालिटिका के भूत से पीछा छुड़ाना चाह रही है। बेशक, विली ने खुले शब्दों में कांग्रेस के साथ पुराने रिश्ते तार-तार कर दिए हों, पर कांग्रेस अपना दामन बचाती फिर रही है। लेकिन कल यह स्थिति नहीं थी। फेसबुक के डाटा में सेंध से पहले वह कैम्ब्रिज एनालिटिका से संबंधों में अपनी शान देखती हो या नहीं, लेकिन इतना तय है कि उसे इसमें कोई बुराई नहीं दिखती थी। इस सनसनीखेज खुलासे से पहले मीडिया में ऐसी तमाम खबरें आईं जिनमें कहा गया कि कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव के लिए कैम्ब्रिज एनालिटिका से बात कर रही है, लेकिन तब पार्टी ने कुछ नहीं कहा। उदाहरण के लिए कुछ प्रकाशनों पर गौर करना आवश्यक होगा। 12 नवंबर, 2017 के अंक में संडे गार्जियन ने लिखा है, ‘‘पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं लेने के लिए बातचीत कर रही है और यह बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है। सूत्रों के मुताबिक, वैसे तो कांग्रेस की सारी रणनीति 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर है, लेकिन कैम्ब्रिज एनालिटिका से बात बन गई तो अगले साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले चुनावों में भी इसकी सेवाएं ली जाएंगी। राजनीतिक दलों को चुनाव जिताने के मामले में कैम्ब्रिज एनालिटिका को महारत हासिल है। इसके अलावा, कैम्ब्रिज एनालिटिका ने पूरे ब्रेक्जिट अभियान के दौरान भी अहम भूमिका निभाई, जिसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया।’’
10 अक्तूबर, 2017 को बिजनेस स्टैंडर्ड ने प्रकाशित किया, ‘‘कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है। इस बार ऐसा लगता है कि वह बिग डाटा का इस्तेमाल करने जा रही है। कहा जा रहा है कि इसके लिए कांग्रेस बिग डाटा क्षेत्र की कंपनी कैम्ब्रिज एनालिटिका से बातबीत कर रही है, जिसने डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव जीतने में मदद की। मनी कंट्रोल के मुताबिक, कंपनी ने लोगों के आॅनलाइन व्यवहार का विश्लेषण कर डाटा आधारित सोशल मीडिया रणनीति का खाका तैयार कर लिया है। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने इसके बारे में कुछ सुझाव भी दिए हैं।’’ ऐसी तमाम खबरें राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस और कैम्ब्रिज एनालिटिका के बीच बातचीत के बारे में प्रकाशित की गईं। सवाल है कि जब फेसबुक डाटा लीक के खुलासे से पहले मीडिया कांग्रेस और कैम्ब्रिज एनालिटिका में अगले चुनाव के लिए हो रही बातचीत की खबरें छाप रहा था, तब कांग्रेस कहां सो रही थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि तब कांग्रेस को कैम्ब्रिज एनालिटिका से जुड़ने की खबरें रास आ रही थीं? उसे लग रहा था कि इससे देश में माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी?

कई स्तरों पर सरकार सक्रिय
दुनियाभर में बढ़ते बवाल को देख कैम्ब्रिज एनालिटिका ने अपने विवादित सीईओ अलेक्जेंडर निक्स को निलंबित कर दिया है, जबकि फेसबुक ने एनालिटिका से नाता तोड़ लिया है। अमेरिका समेत कई देशों में फेसबुक के खिलाफ जांच शुरू हो गई है और भारत ने भी फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालिटिका से जवाब तलब किया है, सख्त लहजे में चेतावनी दी है कि यहां के चुनावों को प्रभावित करने की किसी भी स्थिति के गंभीर परिणाम होंगे। सरकार इस बात की भी पड़ताल कर रही है कि कहीं फेसबुक के प्लेटफॉर्म से भारतीयों का डाटा भी तो नहीं लीक हो गया। इसके लिए फेसबुक से जवाब तलब किया गया है। इसके साथ ही सरकार ने कई स्तरों पर चुनाव को प्रभावित न होने देने के लिए जरूरी तैयारी शुरू कर दी है। सूत्रों के मुताबिक, सरकार डाटा सुरक्षा के लिए एक दीर्घकालिक नीति तैयार करने में जुटी है। सरकार चाहती है कि कानूनी प्रावधानों से देश में ऐसी व्यवस्था बने जो डाटा लीक होने की आशंकाओं को कम करती हो। जानकारी के मुताबिक चुनाव आयोग में भी इस बात पर विचार-विमर्श शुरू हो गया है कि उसे कौन से उपाय करने होंगे, जिससे चुनावों को प्रभावित करने की चालों को विफल किया जा सके।

गंदे खेल का हीरो

मामला तब और गंभीर हो जाता है जब कैम्ब्रिज एनालिटिका के निलंबित सीईओ अलेक्जेंडर निक्स की अगुआई वाली टीम यह कहते खुफिया कैमरे में कैद हो जाती है कि अपने ग्राहकों के हितों के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, चाहे बात डाटा में सेंध लगाने की हो, उनके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर किसी भौगोलिक क्षेत्र की मैपिंग की हो, जैसा कंपनी ने अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के लिए चुनाव में किया। अगर इन सबसे बात नहीं बनती है तो कंपनी अपने ग्राहकों के हितों को पूरा करने के लिए नेताओं को घूस देने से लेकर उन्हें सुंदर महिलाओं के जाल में फांसने से भी पीछे नहीं हटती।

मोबाइल डाटा भी ले लिया
जब डाटा के दुरुपयोग के कारण फेसबुक के खिलाफ दुनियाभर में चिंता और छले जाने का भाव मजबूत हो रहा था, अपनी खोई विश्वसनीयता पाने के लिए फेसबुक ने ब्रिटेन और अमेरिका में विज्ञापन देकर अपनी स्थिति सुधारने की कोशिश की। फेसबुक ने विज्ञापन में बड़े भावुक अंदाज में अपनी गलती मानते हुए कहा कि जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जानकारी सुरक्षित नहीं रख सकता, उसे लोगों से निजी जानकारी लेने का कोई अधिकार नहीं। साथ ही, उसने भविष्य में गलती सुधारने का वादा किया और अपनी विश्वसनीयता के खोने का दुख जताया। लेकिन, जिस दिन यह विज्ञापन आया, उसी दिन फेसबुक एक और विवाद में फंस गई। अब तक तो फेसबुक इन आरोपों का सामना कर रही थी कि उसने संभवत: जान-बूझकर अपने प्लेटफॉर्म से डाटा निकल जाने दिया, पर ताजा आरोप है कि फेसबुक वर्षों से एंड्रायड आधारित फोन का इस्तेमाल कर रहे अपने उपभोक्ताओं के कॉल रिकॉर्ड, एसएमएस आदि जमा करती जा रही थी। फिलहाल मोबाइल डाटा के दुरुपयोग की जानकारी तो नहीं आई है, पर यह खबर एक नए खतरे की ओर इशारा जरूर कर रही है।

जिम्मेदारी से बच नहीं सकती फेसबुक
डाटा चोरी का मामला सामने आया तो फेसबुक ने पहले सफाई दी कि उसने तो 2015 में ही उस एप को हटा दिया था, क्योंकि यह जरूरत से ज्यादा डाटा ले रहा था और यह कंपनी की नीतियों के विरुद्ध था। साथ ही कहा कि लोगों ने अपनी मर्जी से डाटा दिया, लिहाजा इसमें सुरक्षा संबंधी कोई चूक नहीं हुई और न ही कोई पासवर्ड ‘हैक’ हुआ। लेकिन देखते-देखते दुनियाभर में फेसबुक के खिलाफ विरोध के स्वर तेज हो गए और ट्विटर पर ‘डिलीट फेसबुक’ हैशटैग ट्रेंड करने लगा। और तो और, व्हाट्सएप के संस्थापक ब्रैन एक्टम ने भी 20 मार्च को ट्वीट कर ‘डिलीट फेसबुक’ का समर्थन कर दिया। गौरतलब है कि व्हाट्सएप को फेसबुक ने खरीद रखा है। बाद में मार्क जुकरबर्ग सामने आए और चूक की बात मानी और वादा किया कि फेसबुक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए सभी जरूरी कदम उठाएगी। साथ ही, भारत में होने वाले चुनावों को देखते हुए सुरक्षा के उपाय बेहतर करने की भी बात कही।
फेसबुक की बातों का विरोधाभास ही उसे कठघरे में खड़ा करता है। उसने यह तो कहा कि 2005 में जब मामला खुला तो उसने कोगान द्वारा विकसित उस एप यानी ‘दिस इज योर डिजिटल लाइफ ’ को हटा दिया। लेकिन फेसबुक यह नहीं बताती कि उस समय उसने सुरक्षा बेहतर करने के लिए कोई कदम उठाए या नहीं। जाहिर है, नहीं उठाए, क्योंकि उठाए होते तो अब तक अपनी सफाई में कह चुकी होती और मामले के तूल पकड़ने के बाद उसे भारत में अपनी खिसकती जमीन को बचाने के लिए डाटा सुरक्षा के ताजा उपाय का भरोसा न देना पड़ता। इतने बड़े पैमाने पर डाटा चोरी के बाद तो सबसे पहले उसे कैम्ब्रिज एनालिटिका के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराना चाहिए था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और अपने वकील के जरिये चोरी के डाटा को वापस पाने के लिए मोल-तोल करती रही। हैरत की बात है कि यह कोशिश गुपचुप तरीके से अगस्त 2016 तक, यानी 11 साल चलती रही। इतनी मशक्कत के बाद कैम्ब्रिज एनालिटिका ने डाटा को हटा देने का आश्वासन दिया और फेसबुक ने मान लिया। सवाल है कि जिस कंपनी ने धोखा किया हो, उसकी बातों को आपने ऐसे ही कैसे मान लिया? विशेषज्ञों की देखरेख में डाटा हटाने का काम क्यों नहीं कराया? इस मोर्चे पर भी फेसबुक ने लापरवाही की, जिसका नतीजा यह रहा कि एनालिटिका ने चोरी का डाटा हटा देने का वादा करने के बाद भी उसे अपने पास ही रखा। सवाल यह भी उठता है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका के महज आश्वस्त कर देने भर से जुकरबर्ग इतने संतुष्ट कैसे हो गए कि उसे अपने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते रहने की अनुमति दे दी?
दूसरी महत्वपूर्ण बात, जब उसे 2015 में ही डाटा लीक की बात पता चल गई, तो उसने अपने उपभोक्ताओं को अंधेरे में क्यों रखा? उसे तभी लोगों को डाटा में सेंध की जानकारी ईमानदारी से दे देनी चाहिए थी। साथ ही उन्हें उपयोगकर्ताओं को यह बताना चाहिए था कि फेसबुक पर अपने डाटा को सुरक्षित रखने के लिए क्या करना चाहिए।

कई विकास योजनाओं में साथ
फेसबुक भारत में कई विकास योजनाओं में साझीदार है। उसकी एक आॅनलाइन स्टार्ट-अप हब बनाने की योजना है, जिससे लोगों में उद्यमशीलता को बढ़ावा मिले। इसके अलावा, वह देशभर में डिजिटल प्रशिक्षण केंद्र खोलने की योजना पर भी काम कर रही है ताकि युवाओं को इसका प्रशिक्षण दिया जा सके। अगले तीन साल में इन केंद्रों से 50 लाख लोगों को प्रशिक्षित करने की योजना है। कंपनी उड़ीसा सरकार के साथ भी महिलाओं को उद्यमी बनाने की योजना में सहयोग कर रही है, तो वहीं आंध्र प्रदेश की सरकार के डिजिटल फाइबर कार्यक्रम में भी हाथ बंटा रही है। इनके अलावा, केंद्र सरकार और फेसबुक आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में साथ मिलकर काम कर रहे हैं। चुनाव आयोग कई वर्षों से फेसबुक के साथ मिलकर मतदाता जागरूकता कार्यक्रम चला रहा है। इस तरह के तमाम सहयोग बताते हैं कि भारत की सरकार और लोगों ने फेसबुक पर कितना भरोसा किया था।

2014 में लिखी गई 2017 की पटकथा
2016 में अमेरिका में हुए चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए। उनके चुनाव प्रचार की रणनीति तय करने में कैम्ब्रिज एनालिटिका की अहम भूमिका थी। इस कंपनी के मालिकों में से एक हैं रॉबर्ट मर्सर। अरबपति व्यवसायी रॉबर्ट मर्सर रिपब्लिकन पार्टी के बड़े दानदाता हैं। इस कंपनी पर मुख्यत: दो आरोप हैं। पहला, 2016 में हुए अमेरिकी चुनाव में इसने डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में मतदाताओं का रुझान बनाया और इसके लिए फेसबुक से लोगों की निजी जानकारी गलत तरीके से हासिल की। दूसरा, ब्रेक्जिट में ब्रिटेन के लोगों को यूरोपीय संघ से हटने के लिए प्रेरित किया। इस गोरखधंधे का खुलासा कैम्ब्रिज एनालिटिका के पूर्व कर्मचारी क्रिस्टोफर विली ने किया और समाचारपत्र आॅब्जर्वर ने इसे छापा।
2016 में होने वाले अमेरिकी चुनाव की तैयारी 2014 में ही शुरू हो गई थी। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. अलेक्जेंडर कोगान को आठ लाख डॉलर दिए ताकि वह ऐसा एप बनाएं, जिससे फेसबुक उपभोक्ताओं के डाटा निकाले जा सकें। कोगान ने ‘दिस इज योर डिजिटल लाइफ’ एप बनाया, जिसका इस्तेमाल फेसबुक पर हुआ और लगभग 2.70 लाख लोगों ने इसे डाउनलोड किया। इस एप के जरिये न केवल 2.7 लाख लोगों के नाम, फोन नंबर, ईमेल, कहां के रहने वाले हैं जैसी जानकारी ले ली गई, बल्कि इनके दोस्तों वगैरह की भी जानकारी निकाल ली, जबकि फेसबुक अपनी निजता नीति के चाक-चौबंद होने का दावा करती है। कोगान ने यह डाटा कैम्ब्रिज एनालिटिका को दे दिया। कोगान की कंपनी ग्लोबल साइंस रिसर्च ने फेसबुक उपभोक्ताओं का डाटा निकालने का तरीका निकाला और फेसबुक के जरिये ही लोगों को पैसे देकर सर्वे आदि में भाग लेने के बहाने उनकी और जानकारी निकाली। यह डाटा भी उसने कैम्ब्रिज एनालिटिका को बेच दिया। एनालिटिका ने इन आंकड़ों से भौगोलिक आधार पर लोगों की मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल बनाई। फिर लोगों को उन्हीं मुद्दों से जुड़े विज्ञापन दिखाए गए जो उनके सरोकार के थे। भूगोल के हिसाब से लोगों के सरोकार, चिंताएं मालूम हो जाने के बाद यह तय किया गया कि ट्रंप को किस इलाके में कैसी बात करनी है और किस तरह के मुद्दे उठाने हैं। इस तरह सीधे-सीधे पांच करोड़ लोगों को प्रेरित किया गया कि वह ट्रंप के पक्ष में वोट करें। कुल मिलाकर फेसबुक के प्लेटफॉर्म से निकली काली करतूतों की यह कहानी एक ऐसी दुनिया की ओर इशारा कर रही है, जहां एक नई तरह की गुलामी ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। अगर इससे बचने के उपाय नहीं किए गए तो इसके खतरनाक परिणाम होंगे। यह सही है कि डाटा सुरक्षा से जुड़ी नीतियां तय करना सरकारों का काम है, लेकिन हमारी भी कोई भूमिका होती है।
हम हर तरह के प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करें, लेकिन यह तो तस्दीक कर लें कि आपके एक क्लिक ने आपकी कौन सी जानकारी थाली में सजाकर दे दी। सरकार को नीतियां बनाने में कुछ समय लग सकता है, लेकिन हमें यह सावधानी अपनाने में मिनट नहीं लगने वाले।    

धोखा, घूस और सुंदरियों का जाल
चैनल-4 के स्टिंग का नतीजा आंखें खोलने वाला है। इससे पता चलता है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने न केवल फेसबुक उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारी धोखे से हासिल की, बल्कि दुनियाभर में चुनावों को प्रभावित करने के लिए   घूस और महिलाओं का हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। मौजूदा विवाद में फेसबुक सवालों के घेरे में इसलिए है, क्योंकि उसने अपने प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग होने दिया। सवाल है कि जब उसे मामले की जानकारी 2005 में ही मिल गई थी तो उसने अपने उपभोक्ताओं को अंधेरे में क्यों रखा?

कैसे हुआ खेल
लोगों से कुछ सवाल पूछे गए और उनकी पसंद-नापसंद, उनके लिए चिंता के मुद्दे आदि के आधार पर उनकी मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट तैयार की गई और इस तरह अमेरिका के विभिन्न इलाकों की प्रोफाइल बनाई गई। ट्रंप जब वहां प्रचार के लिए जाते, तो उन्हीं मुद्दों पर जोर देते।

कैसे हुआ खुलासा
समाचारपत्र आॅब्जर्वर ने करीब पांच करोड़ फेसबुक  उपभोक्ताओं  की निजी जानकारी के गलत तरीके से निकाले जाने की खबर प्रकाशित की।

सनसनी
चैनल-4 के एक स्टिंग में कैम्ब्रिज एनालिटिका के सीईओ अलेक्जेंडर निक्स यह मानते देखे गए कि डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव में उनकी कंपनी ने अंदरखाने किस तरह महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्टिंग में कैम्ब्रिज एनालिटिका के सीईओ समेत वरिष्ठ अधिकारी कंपनी की रणनीति पर बोलते देखे गए। इन अधिकारियों ने कहा कि वे अपने ग्राहक के हितों को साधने के लिए घूस और  महिलाओं का भी सहारा लेते थे।  

भारत पर भी आंच
चैनल-4 के स्टिंग में कैम्ब्रिज एनालिटिका के वरिष्ठ अधिकारियों ने बताया कि मूल कंपनी स्ट्रैटेजिक कम्युनिकेशंस लैबोरेटरीज (एससीएल) के साथ मिलकर उन लोगों ने अमेरिका, नाइजीरिया, केन्या, चेक रिपब्लिक, अजेंटीना और भारत समेत कई देशों में 200 से अधिक चुनावों में अपनी सेवाएं दीं।

फेसबुक पर बरतें ये सावधानियां  
बाहरी एप की गतिविधियां: बाहरी एप डाटा चोरी का सबसे बड़े स्रोत होते हैं। इन पर अंकुश के लिए सबसे पहले अपने फेसबुक प्रोफाइल में एप वाले सेक्शन में जाएं। एप-सेटिंग पर क्लिक करें। ‘एडिट सेटिंग’ में जाकर साझा की जा रही जानकारी को सीमित करें या इससे इनकार करें।
पिछली जानकारी के लिए मशक्कत: यदि पहले आप बाहरी एप से जानकारी साझा कर चुके हैं, वह नहीं हटेगी। इन्हें हटाने के लिए आपको अलग से हर एप से संपर्क करना होगा।
बदल दें सेटिंग: ‘एप्स अदर्स यूज’ सेक्शन में जाकर यह तय कर सकते हैं कि जब फेसबुक के जरिये बाहरी एप या किसी साइट पर जा रहे हों तो कैसी और कितनी जानकारी साझा हो।
लॉग इन विद फेसबुक: अगर आप किसी भी एप या साइट पर जाने के लिए इस विकल्प का इस्तेमाल करते हैं तो समझिए कि आपने ऐसे सभी बाहरी एप और वेबसाइट को अपनी जानकारियां लेने की अनुमति दे दी। इससे बचने के लिए फेसबुक के जरिये बाहरी एप या साइट पर जाने से परहेज करें।

घेरे में किरदार
– अलेक्जेंडर निक्स
ब्रिटेन के एससीएल समूह की सहयोगी कंपनी कैम्ब्रिज एनालिटिका के सीईओ हैं। कंपनी की दशा-दिशा तय करने में इनकी अहम भूमिका रही। एससीएल समूह कई देशों में चुनाव प्रचार की रणनीति तय करने संबंधी सेवाएं देता रहा है।

रॉबर्ट मर्सर
एक पूर्व वैज्ञानिक, जो बाद में उद्योगपति बने और रिपब्लिकन पार्टी को मोटा चंदा देने वालों में से हैं। कैम्ब्रिज एनालिटिका में करीब डेढ़ करोड़ डॉलर का निवेश किया और कंपनी की नीतियां तय करने में भूमिका निभाने लगे।

अलेक्जेंडर कोगान
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के व्याख्याता हैं। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने आठ लाख डॉलर में कोगान की सेवाएं लीं और इन्हें एक ऐसा एप बनाने को कहा जिसके जरिये फेसबुक उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारी निकाली जा सके। इस एप का नाम था- दिज इज माई डिजिटल लाइफ।

पल्ला नहीं झाड़ सकते
फेसबुक यह कहती रही कि उसकी ओर से कोई सुरक्षा संबंधी चूक नहीं हुई। बात बढ़ने पर जुकरबर्ग सामने आए और माफी मांगी। कहा कि ऐसा दोबारा नहीं होगा और वह सुरक्षा मानदंड बेहतर करेंगे। जब फेसबुक को 2015 में ही पता चल गया था और उसने एप हटा दिया था, तो तभी सुरक्षा बेहतर क्यों नहीं की? लोगों को डाटा लीक की बात क्यों नहीं बताई?

चीन ने बनाई ‘दीवार’
चीन इंटरनेट की बेलगाम आजादी को खतरनाक मानता है और इसलिए उसने कई जरूरी कदम उठाए हैं, जिससे देश का डाटा बाहर जाना आसान नहीं है। चीन के इन कदमों को एकतरफा-अलोकतांत्रिक कहा जा सकता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं कि फेसबुक-कैम्ब्रिज एनालिटिका के खुलासे के बाद दुनियाभर के देशों को अपने लोगों के निजी आंकड़ों के इर्द-गिर्द अभेद्य दीवार बनानी होगी और भारत जैसे देश के लिए, जहां रोकथाम के कानूनी प्रावधान  कमजोर हैं, वहां सावधान तो होना पड़ेगा।  
ग्रेट फायरबॉल आॅफ चाइना: इंटरनेट की दुनिया को नियंत्रित करने के लिए कानूनी और तकनीकी तौर पर किए गए उपाय जो स्थानीय डाटा को सुरक्षित करते हैं। इस ‘दीवार’ को भेदकर चीन में ताक-झांक की अनुमति न तो गूगल, फेसबुक जैसों को है, और न ही किसी मोबाइल एप को। ये सब यहां प्रतिबंधित हैं।
आम लोगों तक इंटरनेट की पहुंच: जनवरी, 1995 में चीन ने पहली बार आम लोगों को इंटरनेट की सुविधा दी। इसके पहले यह सरकारी तंत्र को ही उपलब्ध थी।
अंकुश का पहला कदम: डेढ़ साल में ही चीन को पता चल गया कि बाहरी एजेंसियों को बेलगाम नहीं छोड़ा जा सकता और अगस्त 1996 में वॉयस आॅफ अमेरिका, अमेरिकी समाचार समूहों और मानवाधिकार समूहों पर रोक लगाई।
यू-ट्यूब का रास्ता बंद: तिब्बत में अशांति के बाद मार्च 2008 में लगाई रोक।
फेसबुक-ट्विटर पर रोक: जुलाई 2009 में सिंक्यांग में दंगा भड़कने के बाद फेसबुक और ट्विटर पर स्थायी तौर पर रोक लगाई। इसके पहले भी उन पर अस्थायी रोक लगाई गई थी।
ब्लूमबर्ग और न्यूयॉर्क टाइम्स की बारी: सत्तासीन नेताओं के संबंधियों के भ्रष्टाचार पर खबरें लिखने पर लगाई रोक।
याहू  ने मानी शर्तें: अमेरिकी कंपनी याहू  ने 1999 में चीन में प्रवेश किया। यह एकमात्र पश्चिमी कंपनी है, जिसने चीन की तमाम शर्तों को माना कि उसे क्या दिखाना है और क्या नहीं। साथ ही, याहू सारा डाटा चीन की सरकार से साझा करती रही, जिसके कारण अप्रैल 2005 में लोकतंत्र समर्थक विदेशी साइट को ईमेल भेजने के मामले में पत्रकार शी ताओ की गिरफ्तारी हुई और फिर सजा।   
साइबर कानून सख्त किया: पिछले साल जून से चीन ने साइबर सुरक्षा कानून को और सख्त कर दिया है। अब चीनी नागरिकों से जुड़ी जानकारी (चाहे वह निजी हो या फिर वेतन आदि जैसी पेशेवर) को देश से बाहर ले जाने पर रोक लगा दी गई है। ये बाध्यताएं सोशल मीडिया और इंटरनेट कंपनियों पर भी लागू हैं और उल्लंघन पर आजीवन प्रतिबंध का प्रावधान है।

कांग्रेस पर ‘व्हिसल ब्लोअर’ के खुलासे के बाद
व्हिसल ब्लोअर क्रिस्टोफर विली ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने कांग्रेस के साथ काम किया। मैं तो पहले दिन से ही कहता रहा हूं कि राहुल गांधी मामले से ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल बेनकाब हो गए हैं जो अब तक इससे इनकार करते रहे थे। कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों को अब माफी मांगनी चाहिए।
— रविशंकर प्रसाद
कानून एवं आईटी मंत्री, भारत

सीए (कैम्ब्रिज एनालिटिका) की भारतीय सहयोगी ओबीआई (ओवलेनो बिजनेस इंटेलिजेंस प्रा. लि.) के एक भारतीय पार्टनर अवनीश राय ने सनसनीखेज खुलासा किया है कि एक अमेरिकी एनआरआई ने 2014 में कांग्रेस की सरकार को गिराने के लिए सीए की सेवाएं लीं। कांग्रेस ने कभी सीए की सेवाएं नहीं लीं, भाजपा जवाब दे कि यह एनआरआई कौन था।
— रणदीप सुरजेवाला
कांग्रेस प्रवक्ता

फेसबुक डाटा में सेंध के खुलासे के बाद
क्या चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस डाटा की चोरी पर निर्भर है? राहुल गांधी की सोशल मीडिया प्रोफाइलिंग में सीए  (कैम्ब्रिज एनालिटिका) की क्या भूमिका है? देश की सुरक्षा के लिए यह एक गंभीर खतरा है और कांग्रेस को इसका जवाब देना चाहिए।
— रविशंकर प्रसाद, कानून एवं आईटी मंत्री

भाजपा की फेक न्यूज फैक्टरी ने एक और फेक न्यूज गढ़ दी है। ऐसा लगता है कि यह उनका रोज का काम हो गया है। न तो कांग्रेस और न ही राहुल गांधी ने कभी इस कंपनी (कैम्ब्रिज एनालिटिका) की सेवाएं लीं।
— रणदीप सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता


हमारा डाटा देश में ही रहे

 पवन दुग्गल
कैम्ब्रिज एनालिटिका प्रकरण ने दुनियाभर को चिंता में डाल दिया है। अगर लोगों की निजी जानकारी को गलत तरीके से हासिल करके अमेरिका या फिर दूसरे देशों के चुनाव को प्रभावित किया जा सकता है तो भारत में भी ऐसा हो सकता है। इसलिए हमारे लिए यह सावधान हो जाने का समय है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में डाटा सुरक्षा, निजता और साइबर सुरक्षा को लेकर प्रभावी कानून नहीं है। इसलिए अगर हमारे यहां डाटा चोरी की कोई घटना हो गई तो प्रभावित व्यक्ति के लिए न्याय पाने का रास्ता आसान नहीं होगा। इसलिए सबसे पहले तो कानूनी प्रावधान करने होंगे जिनके अंतर्गत ठोस कार्रवाई हो सके। दूसरी बात है, हमने सेवा प्रदाता के प्रति बहुत ही ढीला रवैया अपना रखा है। अधिकतर सेवा प्रदाता यह दलील देते हैं कि हम भारत से बाहर स्थित हैं और फलां देश के कानून के अधीन हैं, आपके कानून हम पर लागू नहीं होते। हम कानूनी प्रावधानों के माध्यम से उन्हें कड़ा संदेश देने में नाकामयाब रहे हैं, तभी वे इस तरह की बातें कह पाते हैं, वरना यह तो सामान्य सी बात है कि जब आप भारत के लोगों से कमाई कर रहे हैं तो आप यहां स्थित रहें या बाहर, आपको यहां के कानूनों को मानना होगा।एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कह रखा है कि अगर आप सेवा प्रदाता हैं तो आपके कामकाज में अदालत या सरकार ही हस्तक्षेप कर सकती है। इसलिए जब भी कोई विवाद होता है, वे कह देते हैं कि जाइए अदालत से फैसला ले आइए। सभी जानते हैं कि अदालत की प्रक्रिया अपने हिसाब से चलती है, इसमें थोड़ा वक्त लग जाता है। नतीजा यह होता है कि सेवा प्रदाता कंपनियां बेखौफ होती जा रही हैं। अगर हम अपने लोगों के डाटा की सुरक्षा चाहते हैं तो इन कंपनियों के बचने के रास्तों को बंद करना होगा। इनके कामकाज को नियंत्रित करने के लिए हमें संबद्ध कानून के साथ-साथ इनकी जिम्मेदारी भी स्पष्टता के साथ तय करनी होगी।
दूसरी बात है, ऐसा कानूनी प्रावधान करना जिससे कि लोगों का डाटा देश में ही रहे, बाहर न जाए। डाटा की सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी है। एक बार ऐसा हो जाने पर कंपनियों पर सीधा अंकुश लग सकेगा और डाटा के दुरुपयोग की आशंका कम हो जाएगी।
( लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता तथा साइबर कानून विशेषज्ञ हैं)

आयोग को भी निकालने होंगे नए तरीके
 
एस.वाई.कुरैशी

जहां तक मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की बात है, तो इसकी कोशिश तो सभी दल करते हैं और उसमें कुछ भी गलत नहीं। तमाम कंपनियां इस तरह की सेवाएं दे रही हैं। यह एक उभरता हुआ क्षेत्र है, जिसमें वैज्ञानिक तरीके से लोगों के व्यवहार का आकलन किया जाता है और फिर लक्षित लोगों की चिंताओं, उनके सरोकारों को देखते हुए मुद्दे तय किए जाते हैं, विज्ञापन बनाए जाते हैं। दिक्कत तब खड़ी होती है जब लोगों की निजी जानकारी का इस्तेमाल बगैर उनकी अनुमति हो जाए। यह निजता का उल्लंघन है, उनके साथ धोखा है। इसलिए मोटे तौर पर ऐसा करने वाली कंपनी या लोग इसी बात के लिए दोषी ठहराए जा सकते हैं।
लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से यह खतरनाक है कि कोई सोशल मीडिया कंपनी यह तय करने लगे कि किस देश का शासन किसके हाथ में जाए और इसके लिए गैरकानूनी हथकंडे अपनाए जाएं। फेसबुक का यह विवाद वाकई चिंताजनक है क्योंकि भारत में तो कई वर्षों से चुनाव आयोग मतदाता जागरूकता के लिए उसके साथ अभियान चला रहा है। फेसबुक-कैम्ब्रिज एनालिटिका प्रकरण से ऐसा लगता है कि इसमें सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत डाटा की चोरी हुई। डाटा की चोरी आईटी एक्ट की एक मामूली घटना हो सकती है, लेकिन अगर इसके इस्तेमाल से किसी देश की सत्ता का भविष्य तय होने लगे तो यह एक बड़ी साजिश का हिस्सा होने के नाते बड़ी घटना हो जाती है। आयोग के पास धारा 171(सी) के तहत अधिकार है कि अगर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करता है तो वह कार्रवाई करे। लेकिन इस तरह के मामले में कार्रवाई करना आयोग के लिए बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह कोई तात्कालिक घटना नहीं। इस तरह की घटनाओं को प्रभावी कानूनी प्रावधानों के जरिये ही रोका जा सकता है।
वैसे, चुनाव के दौरान आयोग बहुत सारे ऐसे फैसले ले लेता है जो सीधे उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं होते। जैसे, प्रचार के दौरान घरों-दफ्तरों आदि की दीवारों पर नारे लिखना या फिर प्लास्टिक का इस्तेमाल न करना। अब जबकि लोग एक छोटा सा कानूनी उल्लंघन करके बड़ी साजिश की जमीन तैयार कर ले रहे हैं, तो निष्पक्ष चुनाव कराने का उसका बुनियादी काम प्रभावित हो रहा है। ऐसे में चुनाव आयोग को भी वक्त के साथ बदलना होगा और ऐसी स्थितियों में क्या कदम उठाए जा सकते हैं, इसपर अभी से तैयारी करनी होगी क्योंकि यहां कुछ राज्यों के चुनाव और फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं। अगर वे डाल-डाल चलेंगे तो आपको भी पात-पात चलना सीखना होगा।
( लेखक  पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं)

स्टेशनों पर मुफ्त वाई-फाई
गूगल ने भारत के 500 रेलवे स्टेशनों पर मुफ्त में वाई-फाई देने का वादा किया है। यह काम दो चरणों में होगा। गूगल केवल सेवाएं देगी और जरूरी बुनियादी ढांचा सरकार को बनाना होगा।    

फेसबुक, गूगल, ट्विटर तलब  अमेरिकी सीनेट ने फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सीईओ सुंदर पिचई और ट्विटर के सीईओ जैक डोर्सी को न्यायिक आयोग के सामने 14 अप्रैल को पेश होने को कहा है।

फेसबुक-गूगल की धाक
 पिछले साल पूरी दुनिया में डिजिटल विज्ञापन में फेसबुक और गूगल का हिस्सा 20 फीसदी रहा। दोनों 100 अरब डॉलर  की कंपनी बनने की ओर हैं। इनका काफी सारा पैसा भारत से आता है।

चीन में बायडू और 360 की धूम
चीन में गूगल जैसे सर्च इंजन काम नहीं करते। वहां आॅनलाइन सर्च में बायडू और 360 का कोई मुकाबला नहीं। करीब 84 प्रतिशत खोज  इन्हीं पर होती है।

भारत में सर्वाधिक फेसबुक उपयोगकर्ता
 जुलाई 2017 में भारत में फेसबुक उपभोक्ता की संख्या तकरीबन 24.1 करोड़ थी, जो दुनिया में सर्वाधिक है। इसके बाद अमेरिका का नंबर आता है जहां इसी अवधि में 24 करोड़ उपभोक्ता थे।

गूगल को पल-पल की जानकारी
फेसबुक के डाटा लीक के बीच गूगल का ध्यान करें तो पाएंगे कि इस सर्च इंजन को हमारे पल-पल की जानकारी रहती है। जैसे- कब कहां गए, कब क्या खोजा। आपके कम्प्यूटर-मोबाइल से ‘हिस्ट्री’ हटा देने के बाद भी गूगल के पास वह सब सुरक्षित रहता है। सोचिए, कभी इसमें कोई घपला हुआ तो क्या होगा?

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