|
सरस्वती नदी भारतीय इतिहास का ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर के मूल में भारतीय सभ्यता की कालजयी संस्कृति दृश्यमान होती है। यूरोपीय विद्वानों और उनके प्रभाव में आकर कुछ तथाकथित भारतीय विद्वानों ने ‘आर्य आक्रमण’ समस्या की कहानी गढ़ी और भारत के मूल निवासी आर्यों को बाहर से आए बताने का कुचक्र रचा, जो 1990 तक प्रभावी रूप से विद्यमान रहा और आज पूरी तरह ध्वस्त अवस्था में पड़ा है। इसके पीछे ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी की खोज ने महती भूमिका निभाई है। इसी सरस्वती नदी पर एक पुस्तक आई है-‘सरस्वती नदी की कहानी’। पुस्तक 15 छोटे-बड़े अध्यायों के माध्यम से सरस्वती से जुड़े विभिन्न आयामों में विभाजित है, जिसके प्रारंभ में सरस्वती नदी शोध अभियान से जुड़े विद्वानों, जैसे बाबा साहेब आप्टे, मोरोपंत पिंगले, डॉ. एस. कल्याण रमण, प्रो. टी. पी. वर्मा, पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर आदि के संदेश हैं। पुस्तक सरस्वती नदी शोध अभियान की जानकारी से लेकर इसके साहित्य में वर्णन, पुरातात्विक दृष्टि से महत्व, वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा इसकी सत्यता की जांच, इसके पुराप्रवाह और वर्तमान स्थिति के साथ-साथ वैदिक सरस्वती नदी सभ्यता का भी वर्णन और विवेचना करती है। पुस्तक के अंतिम अध्यायों में इससे संबंधित चुनौतियों और समाधान की चर्चा की गई है।
प्रथम अध्याय में लेखकद्वय ने नदी और रेगिस्तान को सभ्यता से जोड़ते हुए इसे सहोदर बताने का प्रयास किया है और इसके आलोेक में सरस्वती नदी को सभ्यता की जननी बताया है। द्वितीय अध्याय सरस्वती नदी के स्वतंत्र भारत के उस प्रथम शोध अभियान का वर्णन करता है जो 1985 में अखिल भारतीय इतिहास संकलन के द्वारा हुआ था। यह शोध यात्रा किस तरह सरस्वती के मूल स्थान आदिबद्री से प्रारंभ होकर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के प्रभासपाटण पर पूर्ण होती है, इसका वर्णन है। पुस्तक के तृतीय और चतुर्थ अध्याय में वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और पुराणों में सरस्वती नदी से संबंधित साहित्यिक स्रोेतों का वर्णन किया गया है। पंचम अध्याय में सरस्वती सभ्यता की प्राचीनता को पूर्व पाषाण युग तक बताया गया है। छठा और सातवां अध्याय भी इसी चर्चा को आगे बढ़ाता है। सातवें अध्याय में पुरातत्व के आलोक में सरस्वती नदी से संबंधित पुरास्थलों का वर्णन है जिसमें राखीगढ़ी, लोथल, धौलावीर, सिरसा आदि प्रमुख हैं। आठवां अध्याय सरस्वती के वैज्ञानिक शोध के विषय में जानकारी देता है। नौवें अध्याय में उत्तर भारत के प्रमुख नदी तंत्रों का वर्णन है जिसमें गंगा, ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र के साथ-साथ संभावित सरस्वती नदी तंत्र को बताने का प्रयास किया गया है। 10वें अध्याय में वर्णित है कि सरस्वती कालीन सभ्यता के प्रमाण आज भी मरू संस्कृति की निरंतरता को बनाए हुए है। सरस्वती नदी शोध का प्रमुख भाग उपग्रह छायाचित्र रहे हैं जिनका सदपयोग सरस्वती के शोधकर्ताओं ने किया है, इसका वर्णन 11वें अध्याय में भरपूर है। सरस्वती को पुन: प्रवाहित करने की और सारस्वत सभ्यता को पुनर्जीवित करने के पुरुषार्थ की चर्चा 12वें अध्याय में की गई है। सरस्वती नदी को दक्षिण भारत से जोड़ते हुए आर्य-द्रविड़ समस्या के मिथकीय विवाद की चर्चा और सरस्वती नदी के उद्भव को इस विवाद का समाधान बताने की बात 13वें अध्याय में है।
पुस्तक का 15वां और अंतिम अध्याय प्रचलित हड़प्पा सभ्यता को सरस्वती-हड़प्पीय सभ्यता के रूप में परिचित करता है और इसे ही भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का मूलाधार बताता है। पुस्तक के आखिरी भाग में जे. आर. शर्मा, ए. के. गुप्ता और बी. के. भद्रा के संयुक्त लेख को आंग्लभाषा में प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक पढ़कर अच्छी जानकारी मिलती हैं परन्तु सरस्वती नदी की खोज को लेकर अब तक हुए कार्यों के बारे में और विस्तार से बताया जा सकता था। कई अध्याय इतने छोटे हैं कि वे शीर्षक के ध्येय और मंतव्य को पूर्ण नही कर पाए। फिर भी सरस्वती नदी पर शोध कर रहे शोधार्थियों को यह पुस्तक पर्याप्त सामाग्री उपलब्ध कराने में सक्षम है।
डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी
पुस्तक का नाम : सरस्वती की कहानी
लेखक : जानकी नारायण श्रीमाली और चक्रवर्ती नारायण श्रीमाली
प्रकाशक : श्री बाबा साहेब आप्टे स्मारक समिति न्यास, यादव स्मृति, 55 फर्स्ट मेन,शेषाद्रिपुरम, बेंगलुरू-560020 (कर्नाटक)
पृष्ठ : 152
मूल्य : रु. 150/-
टिप्पणियाँ