|
श्रीराम और हनुमान जी की जोड़ी भगवान और भक्त की अनूठी जोड़ी है। हनुमान जी का पूरा जीवन भगवान को समर्पित है और श्रीराम भी अपने भक्त के बिना अधूरे हैं
भारतवासी श्रीराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो पृथ्वी पर अजेय माने जाने वाले महाबलशाली, शास्त्रों और नीति के प्रकांड विद्वान रावण के अहंकार का नाश करने आए थे। अपने गुणों की विशिष्टता के कारण राम राज्य (राम का शासनकाल) आज भी सुशासन, शांति और समृद्धि की अवधि का पर्याय माना जाता है। श्रीराम के जीवन का मूल उद्देश्य अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना था।
रामचरितमानस में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम जहां भी गए, उन्होंने वहां की लोक-मान्यताओं, परंपराओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने को हमेशा अपना ध्येय बनाया। सभी की विभिन्न पूजा-पद्धतियों में खुद को प्रकट कर भी उन्होंने इसी विचार को पुष्ट किया। उन्होंने भील जनजाति की शबरी के जूठे बेरों को ग्रहण कर उसको मां के समान आदर दिया। सीता माता को रावण के चंगुल से बचाने के संघर्ष में अपने प्राण गंवाने वाले जटायु की अंत्येष्टि अपने हाथों से कर उसको पिता का मान दिया। रावण की विशाल सेना के प्रतिपक्ष में किष्किंधा के रीछ-वानरों को सहायक बनाया। यानी जिस अवसर पर जो मार्ग समरसता को बढ़ाने वाला लगा, उसी का अनुसरण किया।
श्रीराम के चरित्र में सगुण और निर्गुण, निराकार और साकार ब्रह्म संबंधी विचारों का अपूर्व समन्वय दिखता है। राम निराकार उपासकों के लिए भी और साकार उपासकों के लिए भी परमानंद की प्राप्ति का पर्याय इसीलिए है कि उसके स्मरण से व्यक्ति के भीतर के अहंकार का नाश होता है, क्योंकि रावण जैसे प्रतापी और ब्रह्मज्ञानी समझे जाने वाले प्रकांड विद्वान का सबसे बड़ा अवगुण अहंकार ही था। अत: भारत में प्रचलित अभिवादन का स्वरूप ‘राम-राम’ सामाजिक बराबरी का अभिप्राय बनकर लोकप्रिय हुआ। देश में सेकुलरवाद के नाम पर समाज को तोड़ने वाली तथाकथित ताकतों को यह समझना चाहिए कि ‘जय श्रीराम’ से बढ़कर पंथनिरपेक्षता का और कोई मंत्र हो ही नहीं सकता।
प्रख्यात विद्वान डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने अपने लोकप्रिय निबंध ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ में लिखा है, ‘‘राम पांथिक सहिष्णुता के सबसे बड़े प्रतीक हैं। राजसिंहासन पर बैठने के बावजूद उन्होंने साधारण जनमानस की जिज्ञासाओं का समाधान खोजा था। विभिन्न देवी-देवताओं और मत-मतांतरों से बंधे हिंदू समाज के अलग-अलग इष्ट देव हैं किंतु सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए दशरथ पुत्र राम ने जिस तरह परिवार से लेकर समाज और राष्ट्र तक में प्रेरणा भरने के लिए निर्विकार भाव से संपत्ति रहित सामान्य नर का जीवन बिताया और अपने कर्तव्य पथ पर सामने आने वाले झंझावातों को व्यावहारिक रूप से झेला, उसका कोई दूसरा उदाहरण समूचे भारतीय वांग्मय में नहीं मिलता। अत: राम शब्द के ईश्वर बोध में जनसामान्य का साहस बोध भी गुंथा हुआ है।’’
ऐसे भगवान के भक्त हनुमान जी के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है, ‘‘चारों जुग परताप तुम्हारा…।’’अर्थात् हनुमान जी का प्रताप चारों युग (सत, त्रेता, द्वापर और कलि) में रहा है और आगे भी रहेगा। हनुमान जी सतयुग में भगवान शंकर के स्वरूप में विश्व में अवस्थित थे। त्रेतायुग में वे श्रीराम की प्रतिच्छाया हैं और द्वापर युग में अर्जुन के रथ पर विराजमान हैं।
मान्यता है कि कलियुग में जहां-जहां श्रीराम की कथा, कीर्तन इत्यादि होता है, वहां-वहां हनुमत गुप्त रूप में विराजमान रहते हैं। वीरता में उनका कोई सानी नहीं है यानी वे महाबली हैं। सर्वलोक महेश्वर से अंजना को वर प्राप्त हुआ, जिसके आधार पर स्वयं शिव अपने अंश से हनुमान रूप में अंजना के गर्भ से उत्पन्न हुए और शिव के वरदान के अनुसार पवनदेव के प्रसाद से ही अंजना को सर्वगुणसंपन्न पुत्र प्राप्त हुआ। हनुमान चालीसा के पाठ, उनकी आरती तथा मंदिर में हनुमत दर्शन से इस विश्वास को बल मिलता है कि हम भी अपने जीवन में सद्गुणों को अपनाएं।
कहा जाता है कि हनुमान जी की उपासना से राम कृपा प्राप्त हो जाती है। सीता माता की खोज के लिए जब जाम्बवंत को हनुमान का ध्यान आया तो उन्होेंने देखा, हनुमान संकट के समय मौन रहकर प्रभु स्मरण कर रहे हैं।
लंका जाने के समय सुरसा हनुमान जी का मार्ग रोकती है। सुरसा के मुख का फैलते जाना प्रवृत्ति के विस्तार का परिचायक है, जबकि हनुमान जी में स्वयं के विस्तार की असीम सामर्थ्य है। प्रभु के कार्य को संपन्न करने के लिए वे विशाल से विशालतर और लघु से लघुतम बन जाते हैं तथा सुरसा के मुख में नन्हे रूप में प्रविष्ट होकर बाहर निकल आते हैं। हनुमान लंका में अति लघुरूप धारण कर प्रवेश करते हैं। लंका में प्रवेश करते समय श्रीराम का स्मरण करते हैं। हनुमान जी ने आठों सिद्धियों को सफलतापूर्वक प्राप्त किया था। ‘अष्ट सिद्धि, नव निधि …’ के स्वामी होते हुए भी उन्होंने इनका प्रयोग प्रभु कार्य अर्थात् राम काज के लिए किया, स्वयं के लिए नहीं।
हनुमान जी की आराधना करने वाला कभी निराश नहीं होता। प्रभु श्रीराम की कृपा के इच्छुक हर जीव को हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी हनुमान जी की स्तुति में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
कहा जाता है कि इंद्रादि देवताओं के बाद धरती पर सर्वप्रथम विभीषण ने ही हनुमान जी की शरण लेकर उनकी स्तुति की थी। इस स्तुति के कारण ही विभीषण के संकट के समय हनुमान जी एक चट्टान की तरह खड़े हो जाते हैं और संकट से निकाल लाते हैं। कहा जाता है कि जब विभीषण ने श्रीराम से शरण की याचना की तो सुग्रीव ने उन्हें शत्रु का भाई और दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और दंड देने का सुझाव दिया। इस पर हनुमान जी ने कहा, ‘‘जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है-मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।’’ इसके बाद ही विभीषण को शरण मिली। हनुमान जी की शरण में आने वाला व्यक्ति निडर होता है और उसके सारे संकट टल जाते हैं। हनुमान जी ने अपने जीवन में कई राक्षसों और साधु-संतों को भयमुक्त और जीवनमुक्त किया है। हनुमान जी की एकनिष्ठ भक्ति और उपासना श्रीराम जी से मिला देती है।
प्रस्तुति: अरुण कुमार सिंह और पूनम नेगी
टिप्पणियाँ