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बसवेश्वर या बसवा ने विविधता के मूल में व्याप्त एकता को ही बढ़ाने का काम किया था, लेकिन आज की राजनीति उस एकता पर ही चोट कर रही है
भारत में मानवता का कोई न कोई ऐसा प्रकाश स्तंभ हमेशा मौजूद रहा जो समाज में व्याप्त तत्कालीन कुरीतियों और भ्रमों से जनसामान्य को आगाह करता रहा। बसवेश्वर भी ऐसी एक महान आध्यात्मिक विभूति हैं। यह दुखद है कि आज राजनीतिक कारणों से बसवा को लेकर जनभावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जा रहा है।
बसवेश्वर को हिंदुत्व के अखंड प्रवाह से अलग बताने के लिए अनेक तथाकथित बुद्धिजीवी कुछ विचित्र तर्क रख रहे हैं, जैसे, ‘‘वे हिंदू धारा से अलग हैं क्योंकि वे जाति और छुआछूत को नहीं मानते थे।’’ जाति का निषेध तो कबीर, रामानुज, रैदास जैसे अनेक भगवद् स्वरूप संतों ने किया है। रामकृष्ण परमहंस ने तो जाति के अहंकार को व्यर्थ सिद्ध करने के लिए मंदिर की सीढ़ियों को अपने सिर की जटाओं से बुहारा था, जहां सभी के पांव पड़ते थे। निर्वाण षटकम में आदि शंकराचार्य मानव मात्र में शिव का वास बताते हुए कहते हैं, ‘न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:’ न मेरी कोई मृत्यु है, न कोई जाति है। वेद में भी जाति का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसे बुद्धिजीवियों का दूसरा तर्क है, ‘‘लिंगायत वेद को नहीं मानते। इसलिए वे हिंदुत्व से अलग हैं।’’ हिंदू दर्शन किसी भी पुस्तक को अनिवार्य नहीं बताता। आखिर मीरा कौन-सा शास्त्र पढ़ती हैं? कबीर तो कपड़ा बुनते जाते हैं, और राम नाम गुनते जाते हैं। हिंदू मान्यता है कि देह एक मंदिर है जिसमें परमात्मा का वास है। राजयोग और तंत्र की अनेक धाराओं में देह के अनेक भागों में देव वास बताया गया है। बसवेश्वर कहते हैं, ‘‘धनी व्यक्ति ने शिव का मंदिर बना लिया, मैं अकिंचन क्या करूं ?…. ये देह ही मठ है, पैर स्तंभ हैं, सिर सोने का गुंबद है।’’ गीता कहती है, ‘‘ज्ञानी संसार में उसी प्रकार रहता है जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी में रहता है, पर भीगता नहीं।’’ इसी बात को बसवेश्वर दूसरे शब्दों में कहते हैं, ‘‘जो खड़े रहते हैं वे गिर जाते हैं, पर जो चलते जाते हैं वे स्थिर रहते हैं।’’
एक और तर्क दिया गया है कि ‘लिंगायत एक परमात्मा को मानते हैं, जबकि हिंदुत्व में अनेक देवी-देवता हैं।’ देवी-देवता परमात्मा के प्रकार नहीं हैं। बहुदेववाद जैसी कोई चीज नहीं है। एक बहुप्रचलित आरती ‘जय शिव ओंकारा’ में यह पंक्ति आती है, ‘‘ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव जानत अविवेका, प्रणवाक्षर में शोभित, ये तीनों एका।’’ अर्थात् ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव आदि भेद अज्ञान के कारण हैं, ये सभी ॐ में समाहित हैं।
कर्मयोग को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं, ‘‘संपूर्णता से पूरे समर्पण के साथ कर्म करो, क्योंकि कर्म करने पर ही तुम्हारा वश है, उसके फल पर नहीं। इस प्रकार से कर्म करने से भगवद् प्राप्ति होती है।’’ बसवेश्वर कहते हैं, ‘‘कर्म अपने आप में दैवीय है।’’
जब कर्म और उपासनाएं अपने मूल अर्थ का खो देती हैं, और केवल दुहराव बन जाती हैं, तो महापुरुष समाज को झकझोरते हैं और उनका वास्तविक अर्थ ध्यान दिलाते हैं। इसीलिए कृष्ण गोवर्धन वासियों से कहते हैं कि वर्षा के लिए इंद्र का पूजन क्यों करते हो? गोवर्धन पर्वत का पूजन करो जो कि बादलों का मार्ग रोककर वर्षा करवाता है। बसवा भी यज्ञ का मूल समझाने के लिए कटाक्ष करते हैं कि पुरोहित अग्नि को ब्रह्म कहकर उसमें हवन सामग्री डालते हैं, लेकिन वही अग्नि जब भड़ककर उनके घर को जलाने लगती है तो भागकर लोगों को बुला लाते हैं, और छाती पीटते हैं, तब वे अग्नि की उपासना भूल जाते हैं। अर्थात् नित्य हवन करते हुए भी अंदर से मोह नहीं जाता और न ही अग्नि का तेज मन में उतरता है।
इन सारे तथ्यों के प्रकाश में यह विचारणीय है कि बसवा की विरासत भक्तों के ह्रदय में बसती है या राजनीतिक प्रस्तावों में विचरती है? क्या बसवेश्वर जैसे महान संतों को इस प्रकार दलगत और संप्रदायगत राजनीति में घसीटा जाना चाहिए? राजनीतिक कोलाहल के इस दौर में यह समय मूलभूत एकता के सुरों को खोजने का है।
प्रस्तुति: प्रशांत बाजपेई
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