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शून्य को विचार भर सकता है किन्तु विचारशून्यता का खालीपन कैसे भरे? यह खालीपन खतरनाक होता है क्योंकि ऐसे में विचार के स्थान पर अहंकार कब्जा जमा लेता है। थोथापन भूलकर व्यक्ति को लगने लगता है कि-‘मैं ही हूं’। अहं की तरंगें बढ़ती हैं और अंत में यह ‘अहमास्मि’ की गूंज व्यक्ति को पतन की खतरनाक खोह तक ले जाती है। शुरुआत में व्यक्ति को लगता है कि उसे जो करना है, वह ‘किसी भी कीमत पर’ करना ही है। किन्तु वह यह भूल जाता है कि अंत में उसे यह ‘कीमत’ खुद ही चुकानी होगी। सोनिया गांधी के अस्वस्थ-असक्रिय होने पर कांग्रेस ने शीर्ष के इस शून्य को युवा नेतृत्व के जोशीले विचार से भरा था, किन्तु नए नेतृत्व की चिरपरिचित विचारशून्यता अब उसके लिए ज्यादा बड़ी चुनौती है। अपने नए नेता को खीज, नफरत और नकारात्मकता से भरा देखना पार्टी और कार्यकर्ताओं को किस तरह के संदेश दे सकता है! यह खुद को झूठे दिलासे देने और अहंकार बढ़ाने वाली स्थिति है। ऐसी स्थिति, जब नकारात्मक राजनीति के संदेश जल्दी लपक लिए जाते हैं।
राहुल गांधी जिस समय दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में नेता-कार्यकर्ताओं के सामने भविष्य का राजनैतिक खाका रखे बिना, ‘किसी भी कीमत पर’ अगला लोकसभा चुनाव जीतने की ताल ठोक रहे थे, सिद्धारमैया ने उसी वक्त तय कर लिया कि इसके लिए समाज से कितनी बड़ी कीमत वसूलनी है। यह मुद्दों और दृष्टिहीन कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का ‘धूर्तता में लिपटा अहंकार’ ही है कि वह आगामी विधानसभा चुनाव साफतौर पर हिन्दुओं को बांटकर लड़ना चाहती है। इसे ‘धूर्तता’ इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि राज्य के प्रभावी लिंगायत समुदाय को अलग पांथिक पहचान देने की सिफारिश के लिए न्यायमूर्ति नागमोहन दास की रिपोर्ट को आधार बनाया गया है और इस पर फैसले की गेंद केन्द्र सरकार के पाले में ठेल दी गई है। यानी सिफारिश का श्रेय तो मिले किन्तु फैसले (जो भी) के परिणाम न झेलने पड़ें। और अहंकार इसलिए क्योंकि – कांग्रेस ने इस कदम से साफ कर दिया है कि वह राजनैतिक दुस्साहस की समाज-विभाजक राहों पर इसी तरह बढ़ेगी और उसे यह भरोसा है कि देश-समाज की एकता तोड़ने पर भी उसे किसी तरह का संगठित सामाजिक जवाब नहीं मिलेगा।
प्रथम दृष्टया यह केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का सिरदर्द बढ़ाने का राजनैतिक पैंतरा भर दिख सकता है किन्तु इसके निहितार्थ गंभीर हैं। गुजरात में उन्मादी-जातीय राजनीति के बल पर कांग्रेस ने ‘झाग’ ही तो पैदा किया! इससे कांग्रेस को कोई ऊंचाई भले न मिली हो किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंसक आह्वानों से गूंजती और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा करती उस राजनीति ने समाज के मनों पर गहरे घाव छोड़े हैं। वैसे, यह अजब उलटबांसी है कि जो पार्टी खुद को सांप्रदायिक राजनीति का विरोधी कहते नहीं अघाती, वही पंथ-मजहबों के मामलों में सबसे ज्यादा राजनीतिक लोट लगाती पाई जाती है।
— शाहबानो मामला एक विधवा को न्याय दिलाने का मामला ही तो था! क्या पड़ी थी कांग्रेस को कि एक अत्याचारी के पक्ष में और इस्लामी रूढ़िवादियों के दबाव में देश के शीर्ष न्यायालय के निर्णय को पलट दे! किन्तु कांग्रेस ने यह किया।
— सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक का मामला भी सीधे तौर पर महिला अधिकारों और उन्हें अनकहे अत्याचार और भय से मुक्ति दिलाने का प्रयास था। मुस्लिम महिलाओं द्वारा लड़ी गई इस साहसिक लड़ाई में भी कांग्रेस कट्टर, रूढ़िवादी पुरुषों के समर्थन में ही सुर मिलाती रही!
— और क्या पड़ी थी राहुल गांधी को कि चाहे अचकन के ऊपर से ही सही और चाहे उलटा-पुलटा जैसे भी हो, ‘जनेऊधारी’
दिखने की!
यह तीनों प्रकरण भले अलग-अलग हैं किन्तु इनमें एक प्रकार का तारतम्य है।
एक क्रम — जो पुष्टि करता है तुष्टीकरण की घातक राजनीति की। एक जड़ता— जो उन्मादी लामबंदियों के आगे पस्त नजर आती है। एक खीझ — जो तुष्टीकरण की गोटी पिटने के बाद जनेऊधारी हिन्दू दिखने को छटपटा रही है किन्तु जिसके भीतर हिन्दुत्व को लेकर कुढ़न और नफरत दबी है। कर्नाटक में पार्टी का पैंतरा उसी कुढ़न का विस्तार तो नहीं है! यह बात पहले तुष्टीकरण में डूबी और अब हिन्दू मतों को निशाना बनाने निकली पार्टी को साफ करनी चाहिए कि यदि युवराज को हिन्दू होने, बताने का चाव है तो कर्नाटक में लिंगायत फांक पैदा करने का दांव क्यों है?
बहरहाल, दांव उलटा पड़ेगा, यह तय है। कर्नाटक, जहां के चुनाव को देखते हुए यह पासा फेंका गया और शेष देश में, जिसके आसन्न लोकसभा चुनाव को कांग्रेस भूल गई। विचारशून्यता ने एक बूढ़ी पार्टी में अहंकार भर दिया है। यह अहंकार उसे किन खतरनाक खोहों और किस शून्य तक ले जाएगा, देखते रहिए।
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