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घड़ी, पल, पहर.. पंचाग में भी जिस तेजी से मुहूर्त नहीं बनते, राजनीति उससे तेज रफ्तार से रंग बदलती है। जरा पहले त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों में भाजपा की जोरदार राजनीति का गुलाल था। अब चार लोकसभा उपचुनाव के नतीजों की सुर्खियां विपक्षी पालेबंदियों के चेहरे खिला रही हैं। बड़े, अबूझ और अटपटे घटनाक्रमों का भी सहजता से घटना—यही तो राजनीति है!
खैर, अच्छी बात यह है कि इस चुनावी धमाचौकड़ी में एक घटनाक्रम ऐसा रहा जिस पर क्षुद्र राजनीति हावी नहीं हो सकी। यह महाराष्टÑ में किसानों के बड़े आंदोलन का शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त होना है। महाराष्टÑ की भाजपा सरकार ने किसानों की कई बड़ी मांगों को अत्यंत सहजता से मान लिया। गौरतलब है कि इनमें से कई मांगें ऐसी थीं जिनके मान लिए जाने का रास्ता उन्हें प्रस्तुत किए जाने से भी पहले साफ हो गया था। न्यूनतम समर्थन के तौर पर फसलों की ड्योढ़ी लागत का भुगतान ऐसी ही एक मांग थी जिसका उल्लेख इस वर्ष के बजट में किया जा चुका था। इसके अतिरिक्त महाराष्टÑ ने तय किया है कि किसानों के डेढ़ लाख रुपए तक के सभी कर्ज शून्य घोषित किए जाएंगे। पीढ़ियों से वन क्षेत्र में खेती कर रहे कृषकों को भूमि का स्वामित्व देने की भी बात हुई है। फसल को थामे रखने के लिए सिंचाई और किसानों की सेहत को ठीक रखने के लिए स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था करने की बात भी सरकार ने कही है। महत्वपूर्ण (और देखने वाली) बात यह है कि आने वाले छह माह में इन मांगों को पूरा करने का आश्वासन देवेन्द्र फड़नवीस की अगुआई वाली सरकार ने दिया है।
किसानों के लिए सदाशयता भारतीय राजनीति की मूलभूत आवश्यकता है, क्योंकि जिस देश में आधी से ज्यादा जनता सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी हो वहां आप कृषक हितों की उपेक्षा की बात सोच भी कैसे सकते हैं! किन्तु यही बिन्दु नेताओं को राजनीति और नौकरशाहों को पैंतरेबाजी करने का भी मौका देता है। राजनीति जहां इस बड़ी मतदाता संख्या को अपने पक्ष में झुकाने के लिए तरह-तरह की तिकड़में लगाती है, वहीं नौकरशाह नीति-निधार्रकों को यह पाठ पढ़ाते नजर आते हैं कि जनसंख्या के इतने बड़े भाग के कृषि-आश्रित होने की दर दुनिया में और कहीं नहीं है और भारत के विकास में यह भारी असंतुलन पैदा करती है। खेती-किसानी को मोहरा या निशाना बनाने वाली, दोनों ही प्रकार की सोच घातक है। ऐसे में इतने बड़े जनसमूह का व्यवस्था से भरोसा छीजने लगता है। कृषि क्षेत्र के नाम पर नीति-निर्माताओं में डर, किसानों के मुद्दों पर क्षुद्र राजनीति और आक्रोशित किसानों का व्यवस्था से मोहभंग कराते हुए उन्हें हिंसक राह पर उतारने की चेष्टा- यह कुचक्र नया नहीं है। भारत दशकों से यह देख रहा है।
अब इस कुचक्र को काटने का समय है। तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद यदि किसी सरकार ने खेती-किसानी की सुध लेने का गहरा और आधारभूत प्रयास किया है तो यह वर्तमान केन्द्र सरकार ही है। ध्यान देने की बात है कि इस वित्त वर्ष में किसानों को 11 लाख करोड़ रु. का कृषि ऋण देना प्रस्तावित है। किसान क्रेडिट कार्ड को पशुपालन और मछलीपालन जैसी कृषि से इतर किन्तु उसके साथ-साथ चलने वाली गतिविधियों से जोड़ा गया है। आलू-प्याज की ताबड़तोड़ पैदावार के बाद भी गिरे दामों के बीच हर वर्ष खुद को लुटा महसूस करने वाले किसानों की समस्या का स्थायी समाधान करते हुए इस उपज (ग्रीन फूड) के भंडारण के लिए 500 करोड़ रु. की व्यवस्था करते हुए इस दुष्चक्र को तोड़ने की राह बनाई गई है। इस सबके अतिरिक्त प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के अंतर्गत 26,000 करोड़ रु. की जो व्यवस्था इस सरकार ने की है वह अभूतपूर्व और चौंकाऊ है। किन्तु कुछ और है जो वाकई चौंकाऊ है।
उदाहरण के लिए, गोरखपुर में भाजपा की हार! उदाहरण के लिए, नेहरू और उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित की ऐतिहासिक सीट पर हाशिए पर पड़ी कांग्रेस का यह भूलकर इठलाना कि दोनों सीटों पर उसके वोट 20,000 से भी कम रह गए हैं!
उदाहरण के लिए, महाराष्टÑ में किसान आक्रोश को राजनीतिक तौर पर मूर्त रूप देने में विफल तत्वों का उपचुनाव परिणामों के बाद लखनऊ की ओर रुख करना! और यही वह मोड़ है जहां किसानों से छल करने वाली राजनीति को पकड़ने और उसकी मंशा उजागर करने की जरूरत है। दिल्ली में महाराष्ट्र के किसानों के लिए टसुए बहाने वाले, ट्विटर पर भूचाल उठाने वाले लोग केरल में प्रदर्शन करते किसानों के टैंट जलाने और गिरफ्तारियों पर मौन क्यों हैं? कौन किसानों को अपनी राजनीति का प्यादा बना रहा है? मात्र चार उपचुनाव राष्टÑीय राजनीति की दिशा नहीं बदल सकते, किन्तु किसानों को राजनीति का चारा बनाने वाली चाल इस देश को गहरा आघात जरूर दे सकती है।
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