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स्वातंत्र्य संग्राम की अनमोल यादें संजोए :
होली गंगा मेला
होली गंगा मेला औद्योगिक नगरी कानपुर की अनूठी सांस्कृतिक पहचान है। इस दिन शहर अलग ही रंग में डूब जाता है। अमीर-गरीब, मत-मजहब, जाति-वर्ग की दीवारें गिर जाती हैं। पूरा शहर होली के रंग में सराबोर हो जाता है
पूनम नेगी
बरसाना और काशी के होलिकोत्सव की तरह एशिया का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर का होली गंगा मेला भी देश-विदेश में विख्यात है। यह ऐतिहासिक मेला इस औद्योगिक नगरी की अनूठी सांस्कृतिक पहचान है। होली के आठ दिन बाद अनुराधा नक्षत्र में मनाए जाने वाले इस लोकोत्सव में समूचा शहर पूरे जोश-ओ-खरोश से शिरकत करता है। कानपुर में लोग होली के त्योहार के दिन रंग खेलें या न खेलें, लेकिन अनुराधा नक्षत्र के दिन होली जरूर खेलते हैं। इस दिन नगर में स्थानीय अवकाश रहता है तथा शासन-प्रशासन की निगरानी में नगर के व्यापारी, प्रबुद्धजनों के सहयोग से तमाम सामाजिक संगठन एवं आम शहरी इस समारोह में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।
यह जानना दिलचस्प होगा कि इस होली गंगा मेले के शुभारम्भ के पीछे स्वातंत्र्य संग्राम की एक अत्यन्त प्रेरक घटना जुड़ी है। जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तब कानपुर क्रांतिकारियों की सक्रिय कर्मस्थली हुआ करता था। चंद्रशेखर आजाद और अन्य क्रांतिकारी यहां अपना अज्ञातवास काटने आते थे। शहर के तमाम प्रबुद्ध लोग राजनैतिक चेतना की अलख जगाने में लगे हुए थे। गणेश शंकर विद्यार्थी भी यहां अक्सर बैठकें करते थे।
गीत ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ के रचयिता श्याम लाल गुप्त पार्षद के साथ तमाम व्यापारी और उद्योगपति भी क्रांतिकारियों की भरपूर मदद करते थे और पनाह भी देते थे, मगर अंग्रेजों की नजर क्रांतिकारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं और शुभचिंतकों पर जमी रहती थी।
जहां कहीं आठ-दस व्यापारियों और संभ्रांत नागरिकों की बैठक होती, पुलिस वहां आ धमकती और जरा-जरा-सी बात पर लोगों को प्रताड़ित करती। बताते हैं कि होली गंगा मेला की नींव साल 1942 में तब पड़ी, जब कानपुर में आजादी के दीवाने क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुक्मरानों के आदेश को धता बताते हुए होली के दिन हटिया बाजार के रज्जन बाबू पार्क में तिरंगा फहराया। रात को होलिका जलाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। इस सिलसिले में व्यापारियों, साहित्यकारों और प्रबुद्ध नागरिकों की एक बैठक बुलाई गई थी, जिसमें हटिया बाजार से संबद्ध शहर के कई गणमान्य व्यक्ति, जिनमें गुलाब चंद सेठ, बुद्धूलाल महरोत्रा, हामिद खां, जागेश्वर त्रिवेदी, विश्वनाथ टंडन, गिरिधर शर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रघुवर दयाल, श्यामलाल गुप्त (पार्षद) और पं. मुंशीराम शर्मा (सोमजी) समेत कई क्रांतिकारी भी शामिल थे। अंग्रेजी हुकूमत को होली के नाम पर शहर में जमावड़े की भनक लगी तो वह तुरंत हरकत में आ गई। अनहोनी की आशंका से घबराई पुलिस ने साजिश रचने के आरोप लगाकर इन लोगों को गिरफ्तार कर सरसैया घाट के पास वाली जेल में डाल दिया।
इन क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए नगरवासियों ने जो संघर्ष किया, उसने अंग्रेजी हुक्मरानों की चूलें हिलाकर रख दी। इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करना अंग्रेजी हुक्मरानों के लिए गले की हड्डी बन गया। गिरफ्तारी के विरोध में मजदूर, साहित्यकार, व्यापारियों और आम जनता ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया और उनके समर्थन में समूचा कानपुर शहर और आसपास के ग्रामीण इलाकों के भी बाजार बंद हो गए। मजदूरों ने कारखानों में काम करने से इनकार कर दिया। ट्रांसपोर्टरों ने चक्का जाम कर दिया और सड़कों पर ट्रकों को खड़ा कर दिया। सरकारी कर्मचारी भी हड़ताल पर चले गए। हटिया बाजार में मौजूद उस मुहल्ले के सौ से ज्यादा घरों में चूल्हे जलने बंद हो गए और मुहल्ले की महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे भी उसी पार्क में धरने पर बैठ गए। पूरे शहर की जनता ने अपने चेहरे से रंग नहीं उतारे, लोग यूं ही घूमते रहे। शहर के लोग दिनभर हटिया बाजार में ही इकट्ठे हो जाते और शाम पांच बजे के बाद ही अपने घरों को वापस जाते।
हटिया बाजार के वयोवृद्ध निवासी उमाशंकर द्विवेदी के मुताबिक कानपुर शहर में मीलें बंद हो गर्इं और कारोबार ठप होने से हुक्मरान परेशान हो गए। इस आंदोलन की आंच दो दिन में ही दिल्ली तक पहुंच गई।
महात्मा गांधी ने भी इस आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया। इस तरह बात फैलती हुई सात समंदर पार तक जा पहुंची। नतीजा यह हुआ कि आंदोलन के चौथे ही दिन एक बड़ा अंग्रेज अधिकारी कानपुर पहुंचा और इस मसले पर बातचीत के लिए शहर के कुछ प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया ताकि आंदोलनकारियों को काम पर लौटने के लिए मनाया जा सके। बातचीत के लिए आंदोलनकारियों को बुलाया गया, लेकिन उन्होंने हटिया बाजार के पार्क में आकर बात करने की शर्त रख दी। पहले तो उस अंग्रेज अधिकारी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, लेकिन अंत में उसे पार्क में आना पड़ा, जहां करीब चार घंटे तक बातचीत चली। उसके बाद सभी क्रांतिकारियों को होली के आठवें दिन अनुराधा नक्षत्र के दिन रिहा कर दिया गया। जब क्रांतिवीरों को जेल से रिहा किया गया तो उनके स्वागत में पूरा शहर जेल के बाहर इकट्ठा हो गया।
जेल से रिहा होने के बाद जुलूस पूरा शहर घूमते हुए हटिया बाजार में आकर खत्म हुआ। इसके बाद सभी क्रांतिकारियों को सरसैया घाट स्नान के लिए ले जाया गया। चूंकि होलिका दहन के बाद होली नहीं खेली जा सकी थी, इसलिए उस दिन सरसैया घाट पर क्रांतिकारियों और कानपुरवासियों ने जमकर होली खेली। तभी से होलिका दहन के बाद पड़ने वाले अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली खेलने की परंपरा पड़ गई। इस तरह आजादी पूर्व जिस परंपरा की शुरुआत हुई थी, वह आज भी कायम है।
होली गंगा मेले के दिन कानपुर का रंग कुछ और ही होता है। पंथ, जाति, वर्ग, अमीर-गरीब की दीवारें गिर जाती हैं और पूरा शहर होली में सराबोर हो जाता है। नगरवासी बताते हैं कि शुरुआत में होली मेले की अगुआई सेठ गुलाबचंद किया करते थे। उसके बाद आयोजन की कमान उनके पुत्र सेठ मूलचंद (मुल्लू बाबू) ने संभाल ली।
आज भी सरसैया घाट पर आजादी के मतवालों की याद को जिंदा रखते हुए शहरवासी गंगा मेला मिलन समारोह का वृहद आयोजन करते हैं। हटिया के निवासी हरिशंकर प्रसाद बताते हैं कि बीते वर्ष इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में देश के नामचीन कवियों ने जब क्रांतिवीरों को याद किया तो पुरानी स्मृतियां एक बार फिर ताजा हो आर्इं। ल्ल
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